advertisement
कुछ समय पहले मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट लगाई थी. इस पोस्ट में सुबह की धूप में सूखने के लिए कपड़े फैलाने के आनंद का वर्णन किया गया था. एक अफसोस भी था कि वॉशिंग मशीनों ने हाथ से कपड़े धोने का आनंद छीन लिया है. यह एक निजी नोट था. इसका मकसद वॉशिंग मशीनों की निंदा करना न था. सिर्फ जीवन के एक छूटे हुए आनंद को याद करना था.
लेकिन प्रिय मित्र दिलीप सी. मंडल ने इस पोस्ट पर द क्विंट में एक लेख लिखा. इसमें उन्होंने अर्थशास्त्री हां जून चांग का यह बयान उद्धृत किया:
चांग ने तो दुनिया के बदलने की बात कही है, लेकिन दिलीप ने इसे सीधे स्त्री मुक्ति से जोड़ दिया:
“इस बात पर आम राय नहीं है कि वॉशिंग मशीन का आविष्कार किसने किया. लेकिन जिसने भी यह काम किया, उसका नाम महिला मुक्ति के योद्धाओं की लिस्ट में शुमार होना चाहिए. भारत में बनने वाली ऐसी लिस्ट में उसका नाम जरूर शुमार होना चाहिए.”
उन्होंने यह भी समझाया कि पुरुष होने के नाते मैं महिलाओं के नजरिए को समझने के काबिल नहीं हूं. मेरा और उनका स्टैंड प्वाइंट अलग-अलग है. हालांकि यह बात दिलीप और प्रोफेसर चांग पर भी लागू होती है. उन्हें तो महिलाओं के नजरिए को समझने में कोई दिक्कत नहीं हुई. कम से कम उन्हें तो ऐसा ही लगता है, फिर मुझे ही क्यों दिक्कतत होगी? मेरी पोस्ट पर भारी संख्या में महिलाओं ने इस अनुभव की ताईद की है. यह पोस्ट उन्हें अपनी-सी लगी. खैर, इसे जाने दें. यहां असली सवाल यह है कि क्या तकनीकी क्रांति सामाजिक अन्याय की शिकार श्रेणियों की मुक्ति का आलंबन बन सकती है?
दिलीप ने अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए यहां तक कह डाला, “जैसे कचरा फैलाना हर किसी का काम है, लेकिन सफाई करना सिर्फ अनुसूचित जाति के लोगों का काम. इसलिए जिस दिन ऐसी सस्ती मशीन आएगी, जिसके बाद सीवर में उतरना बंद हो जाएगा, उस दिन का जश्न भी हर कोई नहीं मनाएगा. जिसकी समस्या है, समाधान का सुख भी उसी का है.''
इसका मतलब भारत में दलित मुक्ति के लिए एक तकनीकि क्रांति की आवश्यकता है!
क्या सीवर की सफाई करने वाली मशीनें बहुत महंगी हैं?
क्वालिटी एनवायरो की 12 हजार लीटर की क्षमता वाली ट्रक सवार सीवर सक्शन कम जेटिंग मशीन तकरीबन पांच लाख रुपये की आती है. इन मशीनों का इस्तेमाल किया जाए, तो इंसान के मेनहोल में घुसने की जरूरत नहीं. मेनहोल में घुसने के लिए बना बनीसूट भी 4-5 हजार रुपये में आ जाता है. सांस लेने की मशीन 20 हजार तक में मिल जाती है. अगर इन बेहद सस्ते उपकरणों का भी इस्तेमाल किया जाए, तो मेनहोल में किसी की जान न जाए.
अहमदाबाद स्थित कामगार स्वास्थ्य सुरक्षा मंडल का अनुमान है कि देशभर में मेनहोल में घुसने वाले कम से कम 1000 लोग तो हर साल मरते ही हैं. यानी हर रोज 2 या 3 लोग. इसके अलावा भारी संख्या में लोग अपनी आंखें या दूसरे मूल्यवान अंग गंवा देते हैं. जो लोग जिंदा बच जाते हैं, उनकी भी औसत आयु बहुत कम होती है और उसका बड़ा हिस्सा बीमारियों से लड़ते गुजरता है. भारत दुनिया के चंद उन देशों में शामिल है, जहां आज भी मजदूर नंगे बदन मेनहोल में उतरता है. भारत अकेला देश है, जहां सिर पर मैला ढोने की प्रथा आज भी जिंदा है, कानूनी प्रतिबंध के बावजूद.
तकनीक सुलभ है, सस्ती भी है. लेकिन भारत के सफाई मजदूर उसी हालत में जी रहे हैं, जिस हालत में वे कई सदी पहले थे. शहरों में बेतहाशा बढ़ती भीड़ और दुर्व्यवस्था ने उनकी हालत और अधिक खराब कर दी है.
तकनीकी क्रांति सफाई मजदूरों के लिए मुक्ति का संदेश लेकर क्यों नहीं आई? कारण जगजाहिर है. भारत में जाति-व्यवस्था के कारण करोड़ों ऐसे लोग उपलब्ध हैं, जिनके पास जीने के लिए सीवर की सफाई या मैला ढोने के अलावा और कोई उपाय नहीं है. ऐसा नहीं कि वे दूसरे तरह के कौशल अपना नहीं सकते. बनने को तो वे वैज्ञानिक और प्रधानमंत्री भी बन सकती हैं. लेकिन एक समुदाय के रूप में उनके भीतर यह बात संस्कार की तरह बिठा दी गयी है कि यही उनका धर्म है. शिक्षा पाकर कुछ और करने की सोचना भी पाप है. उन्हें शिक्षा का अधिकार देना भी पाप है, जिसके लिए स्वयं भगवान हत्या करने पर उतारू हो सकते हैं. इसीलिए राम ने शम्बूक की हत्या की थी.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि मैला ढोना वाल्मीकि समुदाय का ‘आध्यात्मिक मिशन’ है. उनके भाषण संग्रह ‘कर्मयोग’ में इसे पढ़ा जा सकता है.
तकनीक से मुक्ति मिल जाती, तो इस जमाने में उत्पीड़न का नामोनिशान न होता. वॉशिंग मशीन ने महिलाओं का समय जरूर बचाया, लेकिन क्या वे उस समय का इस्तेमाल अपने लिए कर सकती हैं? कपड़े धोने का श्रम दुखदायी तब होता है, जब दूसरों के कपड़े ढोने की गुलामी करनी पड़ती है. अपनी मर्जी से अपना वही काम करना आनंददायी हो सकता है.
भारतीय मध्यवर्ग की एक सामान्य कामकाजी महिला का अनुभव यह है कि तकनीकी क्रान्ति और आजादी के इस दौर में उसका दोहरा शोषण हो रहा है. घर के सब कामों की जिम्मेदारी तो पहले की तरह बनी ही हुई है, अब दफ्तर और बाहर की जिम्मेदारियां और लद गई हैं. रोटी सेंकने, घर की सफाई करने के कामों में नौकरी करने, बाजार करने और बैंकिंग के काम निपटाने की जिम्मेदारियां और जुड़ गई हैं.
तकनीक ने उसकी वह आजादी भी छीन ली है, जो पुराने दौर में घर के काम निपटाते भी उसे मिल जाती थी. तब कम से कम मर्दों के निकल जाने के बाद वो घर की मालकिन होती थीं. अपने कामों की व्यवस्था अपने मन मुताबिक करके सहेलियों के साथ गप्पें लड़ाने का समय भी निकाल सकती थीं. लेकिन आज मोबाइल, व्हाट्सऐप, स्काइप के जमाने में उसकी हर सांस निगरानी में है. तकनीक ने उसके शोषण और दमन की संभावना को अपरम्पार बना दिया है.
यह स्वाभाविक है. शोषण का संबंध सामाजिक शक्ति के असंतुलन से है. अगर यह असंतुलन बना रहता है, तो हर नई तकनीक, नया ज्ञान-विज्ञान और नया क्रांतिकारी दर्शन भी सत्ताधारी की ही सेवा करेगा.
मराठी दलित साहित्य से जुड़े नामदेव ढसाल जैसे युगांतरकारी कवियों की कविता क्या आखिरकार शिवसेना के काम न आई?
बेशक ये उपलब्धियां उत्पीड़ितों के काम भी आ सकती हैं. लेकिन तभी, जब वे इसे अपनी सामाजिक–राजनीतिक मुक्ति के अभियान का हिस्सा बनाएंगे. अंबेडकर ने इस अभियान की मूल रूपरेखा बता दी थी– शिक्षित हो, संगठित बनो, संघर्ष करो. संघर्ष के भी तीन चरण हैं- वैचारिक संघर्ष, सामाजिक संघर्ष और राजनीतिक संघर्ष. उनका स्पष्ट मत है कि बिना सामाजिक क्रांति के राजनीतिक क्रान्ति नहीं हो सकती. इस रणनीति में तकनीकि क्रान्ति का कहीं उल्लेख नहीं है.
दिलीप सी. मंडल सजग पत्रकार होने के साथ साथ सामाजिक–राजनीतिक कार्यकर्ता भी हैं. इसलिए मुक्ति की रणनीति का सवाल उनके लिए चलताऊ नहीं हो सकता. सामाजिक मीडिया पर भी उनकी मौजूदगी और सक्रियता खासा असर रखती है. इसलिए तकनीकि को मुक्ति का वरदान समझने के उनके नजरिए पर गंभीर विचार और सख्त आलोचना जरूरी है.
दिलीप मंडल उन प्रमुख टिप्पणीकारों में हैं, जो ईवीएम मशीनों के इस्तेमाल के खिलाफ अभियान चलाते रहे हैं. यह अभियान बिलकुल सही है.
लेन-देन के डिजिटाइजेशन और आधार नंबर की सर्वग्रासी पहुंच भी तकनीक का एक चमत्कार है. लेकिन यह चमत्कार मुक्ति के विमर्श को जैम देने की जगह आम लोगों पर निगरानी रखने और उन पर सत्ता का शिकंजा मजबूत करने का माध्यम आसानी से बन सकता है. यह आशंका अनेक बार अनेक जानकार लोगों ने प्रकट की है.
तकनीक का स्वागत करना चाहिए, लेकिन खुले दिमाग के साथ. सत्ता समीकरणों को बदलने के बुनियादी संघर्ष के साथ उसे समायोजित करते हुए. अन्यथा जिस फेसबुक, ट्विटर और वाट्सऐप को जनता की अभिव्यक्ति की आजादी और उनके संवाद का शक्तिशाली माध्यम समझा गया था, उसे फांसीवादी के फैलाव के उपकरण में बदलते देखना पड़ेगा. और हम समझ नहीं पाएंगे कि फेसबुक पर हम पर लाइक की बरसात करने वाली जनता वोट के वक्त कमल का बटन दबाकर क्यों चली आती है?
(आशुतोष कुमार दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)