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भारतीय ग्रामीण समाज: सम्पूर्ण क्रांति से संचार क्रांति के दौर तक 'भारत गांवों का देश'
प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के बहुत सारे निबंध इसी पंक्ति से शुरू होते थे. औरों का नहीं पता, लेकिन इस एक पंक्ति ने मेरे विद्यार्थी जीवन में एक बहुत बड़ी भूमिका अदा की थी. कहने का तात्पर्य यह है कि इस पंक्ति से शुरू हुए निबंधों ने मुझे कुछ अच्छे अंक और शिक्षकों की शाबाशी बड़े ठाठ से दिलाई.
दूसरी पंक्ति यह थी कि 'भारत की आत्मा गांव में बसती है'.
एक बहुत बड़ा वर्ग, जिसमें मैं भी शामिल हूं, यह मानता है कि शरीर अपना आकार, रूप आदि में परिवर्तन करता है, परन्तु आत्मा का स्वरूप सदैव एकसमान रहता है, यह नश्वर है. तो क्या यही बातें हमारे देश के सन्दर्भ में भी कही जा सकती हैं. बदलते युग के साथ हमारे देश के स्वरूप में आमूल-चूल परिवर्तन आया है, जिसे नंगी आंखों से स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता हैं.
देश के इस स्वरूप परिवर्तन में गांवों में आए बदलाव ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. बदलते समय और नित नए आ रहे तकनीक ने गांवों को भी उसी प्रकार चकाचौंध किया है, जैसे शहरों को.
सरकार ने सूचना क्रांति के फायदों को देखते हुए इसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए डिजिटल इंडिया और इस तरह की कई योजनाओं की शुरुआत की. बैंकों और वित्तीय संस्थानों तक ग्रामीणों की आसान पहुंच और सरकार की कुछ नीतियों ने गांवों में भी अवसर पैदा करना शुरू किया, जिससे ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में बदलाव आने की एक शुरुआत जरूर हुई है. हालांकि इसे एक लम्बा सफर तय करना है.
फिर भी एक ग्रामीण होने के नाते गांवों में आ रहे इन बदलावों को मैंने महसूस किया है. अगर मैं अपने ही गांव का उदहारण लूं (कुशमाहा, झारखण्ड के देवघर जिला मुख्यालय से 18 किलोमीटर की दूरी) तो पिछले दस से पंद्रह वर्ष के दौरान आर्थिक स्थिति में एक उल्लेखनीय परिवर्तन आया है. गांव के ज्यादातर परिवार पूरी तरह संपन्न न सही, पर अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम जरूर हो गए हैं.
इसके साथ दैनिक मनोरंजन के साधनों और सूचना तकनीक का भी उपयोग नवयुवाओं ने किया है. मेरे गांव में सड़क, बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और नजदीकी शहर तक यातायात की उत्तम व्यवस्था के आधार पर एक विकसित ग्राम कहना अनुचित नहीं होगा. इस तरह गांवों में अब विकास की शुरुआत या यों कहें नींव तो रखी जा चुकी हैं. यह आज के दौर की बेहतरीन उपलब्धि है.
इस तरह देश का कुपोषित शरीर धीरे-धीरे पोषित होने लगा है. कहने का मतलब है कि शरीर के स्वरूप में संरचनात्मक परिवर्तन आने लगा है. अब अगर शरीर से थोड़ा आगे बढ़ते हुए उस आत्मा की भी बात कर ली जाए, जो इन्हीं गांवों में बसती है, तो क्या आत्मा में भी बदलाव आया है? अगर कोई बदलाव आया है, तो यह सकारात्मक है या नकारात्मक. यह एक बहस का मुद्दा है और प्रत्येक व्यक्ति की इस पर अपनी राय हो सकती है.
जहां एक तरफ 'सम्पूर्ण क्रांति' ने पूरे देश को एक साथ, एक मंच पर लाने में सक्रिय भूमिका अदा की थी, वहीं सूचना या संचार क्रांति ने भूगोल के सिद्धांतों को दरकिनार हुए देश दुनिया को एक मंच पर ला खड़ा किया और इसका फायदा गांवों तक भी पहुंचा. दूर-दराज के गांव जो अपनी भोगौलिक स्थितियों के कारण पीछे छूट जाते थे, उन्हें उसी पंक्ति में ला खड़ा किया, जिसमें बाकी दुनिया लगी हुई थी. सूचना क्रांति के बाद ग्रामीण लोगों के जीवन में जो बदलाव आया, उसी बदलाव ने गांवों के सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में भी एक बदलाव आया है.
गांव के बुजुर्ग और हमसे दो ऊपर की दो पीढ़ियों के मन में अक्सर ये भाव रहता है कि जो सामाजिक ताना-बाना गांव में मौजूद था, उसको आज जबरदस्त आघात पहुंचा हैं. उनके विचार से, आज का समाज भले ही प्रगतिशील है, लेकिन ‘समाज’ शब्द अपने वास्तविक अर्थ को पुष्ट करने में थोड़ा कमजोर पड़ने लगा है.
गांव की ये एक खास बात थी कि किसी गांव के उत्सव, मेले या फिर सामाजिक कर्मकांडों, जैसे शादी-विवाह या फिर किसी व्यक्ति के निधन पर होने वाले श्राद्ध पर आस-पास के कई गांवों के व्यक्तियों का हुजूम उमड़ पड़ता था. लोगों का एक-दूसरे से मिलना-जुलना होता था. आसपास और दूर-दराज में घटने वाली घटनाओं की जानकारियां ऐसे ही लोगों को मिलती थी.
राजनीति पर चर्चा होती थी, बदलते और उभरते राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था पर लोगों को एक-दूसरे का विचार और दृष्टिकोण समझते और समझाते थे. लोग एक-दूसरे के सामने अपनी राय रखते थे और यह सब बिल्कुल एक जगह होता था.
गांव-देहात में होने वाले उत्सव या समागम इनके मंच बनते थे. यह लोगों में, खासकर युवकों में अपने से वरिष्ठों के विचार और उनके ज्ञान को जानने का एक अवसर होता था. यह लोगों के दिल में सामाजिकता पैदा करता था और इनकी वजह से लोग कुछ भी गलत करने से पहले सौ दफा सोचते थे, क्योंकि एक साधारण व्यक्ति की भी एक पूरे इलाके में एक खास पहचान होती थी.
आज की बदलती दुनिया ने लोगों के बीच एक अंतर पैदा किया है. लोगों की एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदारी में कमी आई है. लोग अब सामाजिक होने के बदले कुछ और होते जा रहे हैं, जिन्हें परिभाषित करने के लिए मेरे पास तत्काल कोई उचित शब्द नहीं है. हालांकि इन बदलावों के प्रति सभी के मन में एकसमान विचार नहीं हैं. कोई इसे एक सकरात्मक और सराहनीय परिवर्तन बताता है, कोई इसे सुव्यवस्थित सामाजिक संरचना पर आघात.
अतः यह लोगों को ही तय करना है कि क्रांतियों से उत्पन्न होने वाले प्रभावों से वे अपने जीवन को कितनी हद तक प्रभावित होने देते हैं. इन तकनीकों का सकारात्मक उपयोग कर अपने जीवन को तरक्की के रास्ते पर बढ़ाते हुए, अपने मूल्यों को किस हद तक बचाए रख सकते हैं. हमारे बुजुर्गों की चिंता व्यर्थ नहीं, लेकिन इस कारण से तकनीक से खुद को दूर बनाए रखने का विचार भी पूरी तरह से असंगत है.
अंत में, सब कुछ फिर से मनुष्य के विवेक पर ही निर्भर होता है.
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