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जून 2011 में, मैंने emergic.org पर “प्रोजेक्ट 275 फॉर 2014” नाम से एक ब्लॉग प्रकाशित किया था. इसमें सुझाव दिया गया था कि बीजेपी को अपने बलबूते पर बहुमत हासिल करने के लिए चुनावी लहर बनानी होगी (बजाय कि किसी खास राज्य पर आक्रमकता के साथ ध्यान केंद्रित करना). उस समय, बीजेपी के लिए सर्वाधिक जीती हुई सीटों की संख्या 182 थी. इस 275 के आंकड़े से बीजेपी मिशन 272+ की रणनीति पर आई.
राजनीति जंग की आधुनिक कला है. यह क्षेत्र पर अधिकार जमाने के बारे में है. चुनाव विस्तार के अवसर हैं. बीजेपी ने हर चुनाव में कड़ी मेहनत के साथ आगे बढ़ते हुए पिछले कुछ सालों में प्रभुत्व पाने में महारथ हासिल की है. आज बीजेपी जिन राज्यों में सत्ता में है, वे भारत की 70 प्रतिशत आबादी कवर करते हैं. तो, अगले चुनाव में बीजेपी क्या करेगी? पहले यह समझते हैं कि 2014 के चुनाव में क्या हुआ था.
हम सब जानते है कि 2014 के चुनाव में बीजेपी को 282 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. लेकिन वे कैसे जीते? इसका जवाब है “60% का 90%”. इस सिद्धांत को प्रवीण चक्रवर्ती ने 2014 के चुनाव परिणामों के पांच दिन बाद बिजनेस स्टैंडर्ड के कॉलम में प्रकाशित किया था.
इसलिए, सबसे पहले और सबसे आसान कदम यह देखना है कि क्या अगले चुनाव में “60% का 90%” सिद्धांत दोहराया जा सकता है? लेकिन यहां समस्या है, क्योंकि शासन कसौटी पर खरा नहीं उतर पाया है – युवाओं के लिए रोजगार और किसानों की आय में वृद्धि न हो पाना चिंता का विषय है.
याद रहे कि नरेंद्र मोदी बीजेपी का नेतृत्व कर रहे हैं – भले ही स्वतंत्रता के बाद से नहीं मगर कम से कम पिछले 40 सालों में भारत ने नरेंद्र मोदी को सबसे चतुर राजनेता के रूप में देखा है. यहां बड़ा और लंबा सोचना होगा. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व की शक्ति और गति के साथ, बीजेपी यदि अब देश के कोने-कोने तक नहीं पहुंचती है, तो कब पहुंचेगी.
बीजेपी गैर हिंदी भाषी राज्यों को लक्ष्य बनाए, जहां उसे 206 में से 31 सीटें हासिल हुई. इन राज्यों में, मुख्य विपक्षी पार्टी बनने की कोशिश करे जिससे सत्तारूढ़ पार्टी की गलतियों का सीधा फायदा बीजेपी को मिल सकता है.
बीजेपी मुख्य रूप से जम्मू कश्मीर, उत्तर पूर्व और संघ शासित राज्यों को लक्ष्य बनाए, जहां उसे 34 में से 19 सीटें हासिल हुई थी. यह विशेष रूप से उत्तर-पूर्व में बढ़ने के लिए काम आ सकता है. इससे अगले चुनाव में 10-15 सीटें जोड़ सकते हैं. लेकिन अभी भी यह सुरक्षित जोन(क्षेत्र) नहीं है. यहीं से तीसरी रणनीति उभरती है- मुख्यतः महाराष्ट्र, बिहार और आंध्र प्रदेश में एनडीए की सहयोगी पार्टियों द्वारा जीती गई 52 सीटें.
बीजेपी बिना सहयोगियों के चुनाव लड़ने का निर्णय ले. जब कोई पार्टी किसी सीट का चुनाव करती है, तब वह बूथ- स्तर पर अपनी मौजूदगी के लिए कार्य करती है, जो जीतने के लिए अति-आवश्यक है. महाराष्ट्र, बिहार और आंध्र प्रदेश पर करीब से नजर डालते हैं. जैसा कि महाराष्ट्र में, विधानसभा व नगरपालिका के चुनाव में देखा गया, बीजेपी शिवसेना के मतदाताओं को अपनी तरफ स्थानांतरित कर सकती है. तो क्यों न हर जगह यही किया जाए? बिहार में बीजेपी का वोटशेयर 30 प्रतिशत के आसपास स्थिर रहा है. और जेडी(यू) से अलग होकर चुनाव लड़ने से सत्ता विरोधी लहर से बचा जा सकता है, विशेषकर तब जब लालू प्रसाद यादव इस खेल से बाहर है.
‘मिशन 543’ पर ज्यादा केंद्रित होना, महाराष्ट्र में शिव सेना और आंध्र प्रदेश में टीडीपी से अलग होने के कारण को समझने में सहयोग देता है. यह मायने नहीं रखता कि आखिरी निर्णय कौन लेगा- मजबूत स्थिति में होने की वजह से अंतिम निर्णय बीजेपी का था कि उसे उसके सहयोगियों का साथ चाहिए या उनसे अलग.
बीजेपी को कांग्रेस को पूरी तरह अलग-थलग करने का प्रयास करना होगा. कुछ राज्यों में कांग्रेस के नेताओं को भ्रष्ट साबित कर, बीजेपी दूसरी पार्टियों को कांग्रेस से गठबंधन करने से रोक सकती है. तमिलनाडु में ऐसा किया जा चुका है. इसे प्लान बी के रूप में देखा जा सकता है- कांग्रेस को इस तरह अलग-थलग करना होगा कि चुनाव के बाद बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के पास गठबंधन के लिए बीजेपी के अलावा कोई विकल्प न बचे.
इस प्रकार बीजेपी विपक्षी दलों के लिए उस पर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पलटवार करना मुश्किल बना सकती है. कांग्रेस के हर वरिष्ठ नेता और क्षेत्रीय पार्टियों को संदेश है कि संभवतः बीजेपी सरकार उनके पीछे केंद्रिय जांच एजेंसियों को लगा सकती है. अंततः वे सभी बीजेपी के ‘मिशन 543’ में बाधाएं ही हैं.
इस तरह “60% का 90%” सिद्धांत दोहराने की असमर्थता को देखते हुए बीजेपी के मिशन 543 को जन्म दिया गया है. बीजेपी हर चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़कर, स्वयं को सीटें बढ़ाने का अवसर दे रही है. तथा क्षेत्रीय दलों के लिए संदेश है कि सबसे पहले अपने क्षेत्रों की रक्षा करे, क्योंकि बीजेपी पूरी ताकत से आ रही है.
यहां तक कि पारंपरिक मीडिया पर मजबूत नियंत्रण होने के बाद भी बीजेपी के लिए फेसबुक और व्हाट्सएप पर उसके प्रति नकारात्मक संदेशों के प्रवाह को सीमित करना मुश्किल होगा, जो पिछले सितंबर के पहले से ही शुरू हो चुका है. इसके अलावा, ‘बीजेपी के विकल्प’ के खालीपन को एक राजनीतिक स्टार्टअप से भरा जा सकता है, जिसका पूरे मन से एक ही लक्ष्य हो- समृद्धि-विरोधी मशीन का खात्मा. क्योंकि भारतीयों को आज भी इंतजार है अपने पहले समृद्धि प्रधानमंत्री का.
(राजेश जैन 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के कैंपेन में सक्रिय भागीदारी निभा चुके हैं. टेक्नोलॉजी एंटरप्रेन्योर राजेश अब 'नई दिशा' के जरिए नई मुहिम चला रहे हैं. ये आलेख मूल रूप से NAYI DISHA पर प्रकाशित हुआ है. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखक के हैं. इसमें क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है)
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