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जिस 2जी ‘स्कैम’ से सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ रुपये के कथित नुकसान का दावा किया गया था, वह अदालत की शुरुआती जांच में भी टिक नहीं पाया. सीबीआई कोर्ट ने आरोपियों को दोषमुक्त करते हुए कहा कि पर्याप्त समय और मौकों के बावजूद सीबीआई अपना पक्ष साबित करने के लिए एक भी ऐसा सबूत पेश नहीं कर पाई, जो कानून के सामने टिक पाए.
तो क्या इस मामले में कैग ने गलती की थी?
क्या यह माना जाए कि जिस इंसान ने खुद को ‘देश की चेतना का संरक्षक’ बताया था, उसने एक अकाउंटेंट का काम भी ईमानदारी से नहीं किया? कैग के ‘सरकारी खजाने को हुए लॉस’ के अजीब कैलकुलेशन से एक प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि पर आंच आई और उन्हें ‘रेनकोट पहनकर नहाने वाला’ शख्स तक बताया गया.
इस अजीब कैलकुलेशन से कई लोगों की राजनीतिक तकदीर संवर गई, तो कइयों का राजनीतिक ग्राफ गिर गया.
एक प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान ‘आरोपी’ जेल भेजे गए और उन पर नाक की नीचे होने वाली गलतियों पर चुप्पी साधने के लिए हमले हुए. जो शख्स और पार्टी भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर सत्ता में आए थे, उनके कार्यकाल में इन ‘आरोपियों’ को बरी कर दिया गया. क्या विडंबना है! बेशक, यह दलील दी जा सकती है कि सीबीआई ने जान-बूझकर केस को कमजोर किया. लेकिन इससे यह सच सामने आ जाता है कि ‘स्कैम’ का इस्तेमाल मौजूदा सरकार ने राजनीतिक डील के लिए किया. इससे उस भ्रष्ट सियासत की पोल भी खुल जाती है, जिसकी बुनियाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई पर टिकी है.
आइए अब जरा ‘बोफोर्स स्कैंडल’ की बात करें. प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई राजीव गांधी सरकार को कुछ ही साल बाद रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा. इस पर खूब शोर मचाया गया. आरोप लगाया गया कि 64 करोड़ के घोटाले के तार सरकार के टॉप लेवल तक जाते हैं.
यह दावा किया गया कि जैसे ही इस भ्रष्ट सरकार की जगह पवित्र और ईमानदार सरकार आएगी, सौदे की स्विस बैंकों में छिपाई गई रकम का खुलासा किया जाएगा. लोगों ने तब इन आरोपों को सच माना था. इसके बाद राजीव गांधी के नेतृत्व में 1989 में हुए चुनाव में कांग्रेस हार गई थी.
इस घटना को 28 साल हो चुके हैं और आज भी देश स्विस बैंक अकाउंट की डिटेल्स का इंतजार कर रहा है. राजनीतिक हित सधने के बाद बोफोर्स को लेकर हल्ला मचाने वाले नेता स्विस एकाउंट के बारे में सब कुछ भूल गए.
पिछली सरकार के कथित भ्रष्टाचार को लेकर आंदोलन हुआ था और लोकपाल बनाने की मांग की गई थी. सत्ता बदलने के बाद भी देश लोकपाल की राह तक रहा है. लोकपाल का हश्र भी स्विस बैंक अकाउंट की तरह हुआ.
हाल के सालों में ब्राजील में डिल्मा रूसेफ की सरकार इसी स्ट्रैटेजी के तहत गिराई गई थी. उसके बदले वहां कैसी सरकार आई, इसका अंदाजा आप लगा ही सकते हैं. ब्राजील के नए राष्ट्रपति मिशेल टेमेर ना सिर्फ भ्रष्टाचार से निपट रहे हैं, बल्कि वह ‘रिफॉर्म’ भी कर रहे हैं. रिफॉर्म के नाम पर सरकारी खर्च और पेंशन स्कीम में कटौती हुई. लेबर लॉ में ढील दी गई. दिलचस्प बात यह है कि अब उन पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं.
भारत में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. यह मत भूलिए कि ‘2जी एलोकेशन में भ्रष्टाचार’ के नाम पर मुहिम एक ऐसी सरकार के खिलाफ छेड़ी गई थी, जिसने सूचना का अधिकार, खाद्य सुरक्षा, मनरेगा और एक प्रगतिशील भूमि विधेयक पेश किया था.
2जी ‘स्कैम’ और बोफोर्स मामले में हमारे लिए कई सबक छिपे हैं. पहली बात तो यह कि अगर कोई ऐसा स्कैंडल होता है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय प्लेयर्स, देश के बड़े बिजनेस घराने और कई पार्टियों के नेता का बहुत कुछ दांव पर लगा हो, तो किसी का कुछ नहीं बिगड़ेगा. 2जी और आदर्श हाउसिंग केस में हम यह देख चुके हैं. हां, बिहार के चारा घोटाले की बात और है. लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला के दूसरे केस में हाल ही में दोषी ठहराया गया है.
यूपीए की पिछली सरकार के खिलाफ दक्षिणपंथी पार्टी ने यही किया. आज हम राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था में उसके दकियानूसी विचारों का असर देख रहे हैं. उच्च पदों पर होने वाले भ्रष्टाचार से लोगों का भरोसा टूटता है. इसके लिए दोषियों को सजा मिलनी चाहिए. इसके साथ उन लोगों को भी जवाबदेह बनाना पड़ेगा, जो झूठे आरोप लगाकर न सिर्फ किसी की छवि खराब कर रहे हैं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक नीतियों को भी पटरी से उतार रहे हैं.
(ये आर्टिकल सबसे पहले TheQuint पर छापा गया था. लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल क्विंट हिंदी के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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Published: 28 Dec 2017,09:20 PM IST