मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019 2019 की “खिचड़ी” क्यों होगी एक लजीज पॉलिटिकल डिश, ये हैं 3 कारण 

2019 की “खिचड़ी” क्यों होगी एक लजीज पॉलिटिकल डिश, ये हैं 3 कारण 

अनुभव का तकाजा है कि 2019 में भी सीटें उसी तरह तीन हिस्सों में बंटेंगी जैसे 1996 के चुनाव में हुआ था

राघव बहल
नजरिया
Updated:
(फोटो: क्विंट हिंदी)
i
null
(फोटो: क्विंट हिंदी)

advertisement

खिचड़ी यानी चावल और दाल को मिलाकर बनने वाली एक ढीलीढाली भारतीय डिश, जो आमतौर पर उन लोगों के लिए बनाई जाती है, जिनका हाजमा खराब होता है. लेकिन, इसी खिचड़ी को अगर कुछ खास मसालों के साथ पकाया जाए, तो ये बन जाता है एक स्वादिष्ट व्यंजन.

आम बोलचाल की भाषा में खिचड़ी शब्द का इस्तेमाल कमजोर गठबंधन सरकारों के लिए भी किया जाता है. ये शब्द 1996-97 के दौर में काफी प्रचलित हुआ था, जब देश ने यूनाइटेड फ्रंट की कई अस्थिर सरकारों को आते-जाते देखा था. भारतीय लोकतंत्र के लिए वो एक कमजोरी और अस्थिरता से भरा दौर था. आज एक बार फिर से उसी दौर के लौटने की बात हो रही है. कई विद्वानों को लग रहा है कि 2019 के आम चुनाव में कहीं एक बार फिर से खिचड़ी गठबंधन की जीत न हो जाए.

लेकिन मेरी राय कुछ अलग है. हां, वो एक खिचड़ी सरकार तो होगी, लेकिन एक ऐसी खिचड़ी जिसे स्वादिष्ट राजनीतिक व्यंजन कहा जा सकता है. और हां, ये भी हो सकता है कि संसद में अलग-अलग पार्टियों के सांसदों की संख्या लगभग उतनी ही हो, जितनी 1996 में थी. लेकिन, उस गठबंधन में शामिल सहयोगियों को आपस में जोड़ने वाली केमिस्ट्री बिलकुल अलग होगी.

पहले ये जानते हैं कि 1996 में दरअसल हुआ क्या था...

वो बड़ा ही असाधारण वक्त था. प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने हाल ही में अपना कार्यकाल पूरा किया था, वो भी लगातार पांच साल तक अल्पमत सरकार चलाते हुए. पता नहीं किन वजहों से वो नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ हो गए थे, जबकि उससे पहले वो इसी परिवार के दो प्रधानमंत्री इंदिरा और राजीव के वो निष्ठावान सहयोगी रह चुके थे.

राव का कार्यकाल विरोधाभासों से भरा हुआ था. एक तरफ तो उन्होंने बड़ी दिलेरी के साथ उदारीकरण की नीति के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को सरकारी वर्चस्व से छुटकारा दिलाने वाले कदम उठाए, वहीं दूसरी तरफ राजनीतिक कुटिलता दिखाते हुए बाबरी मस्जिद को ढह जाने दिया. अगर उन्होंने आतंकवाद प्रभावित पंजाब में चुनाव करवाकर बेअंत सिंह को मुख्यमंत्री बनाने का साहस दिखाया तो दूसरी तरफ अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, जीके मूपनार और माधवराव सिंधिया जैसे वरिष्ठ सहयोगियों के साथ रिश्ते बिगाड़ने का काम भी किया, जिससे पार्टी में टूट हुई.

चंद्रास्वामी जैसे संदिग्ध लोगों के साथ उनके करीबी रिश्तों और उनकी प्रखर बौद्धिकता में भी गहरा विरोधाभास नजर आता था. उन पर (बाद में) भ्रष्टाचार के आरोप में आपराधिक मुकदमा भी चला, लेकिन उनमें भारत की विदेश नीति को नए सिरे से गढ़ने और इसके लिए अमेरिका, चीन और ईस्ट एशिया से संबंध सुधारने की पहल करने का माद्दा भी था. चुनाव से कुछ ही महीने पहले अगर काले धन को सफेद करने वाला जैन हवाला कांड सामने नहीं आता, जिसमें कई नेताओं को 3 करोड़ 30 लाख डॉलर की घूस दिए जाने के खुलासे हुए थे, तो वो चुनाव जीतकर दोबारा प्रधानमंत्री भी बन सकते थे.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
लेकिन 11वें आम चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई. लोकसभा में उसे सिर्फ 140 सीटें मिलीं, जो उसका तब तक का सबसे खराब प्रदर्शन था. लेकिन विडंबना देखिए कि पूरी तरह त्रिशंकु संसद बनने की वजह से जीत किसी की नहीं हुई. बीजेपी को उसके इतिहास की सबसे ज्यादा 161 सीटें मिलीं और वो सबसे बड़ी अकेली पार्टी बनकर उभरी, लेकिन बहुमत का आंकड़ा उसकी पहुंच से 100 से ज्यादा सीट दूर ही रह गया. इसके बाद काफी ड्रामा हुआ. बीजेपी ने सरकार बनाने का राष्ट्रपति का न्योता मंजूर कर लिया, लेकिन संसद में जरूरी समर्थन नहीं जुटा पाई और प्रधानमंत्री वाजपेयी को 13 दिन में इस्तीफा देना पड़ा.

इसके बाद कई पार्टियां हड़बड़ी में एक साथ आईं और गठबंधन के नाम पर यूनाइडेट फ्रंट के नाम से भानुमति का कुनबा तैयार कर लिया और इस तरह कर्नाटक के एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने, जो 46 सांसदों वाले जनता दल के नेता थे. ये एक हैरान करने वाली बेमेल कैबिनेट थी, जिसमें गृह मंत्रालय एक कम्युनिस्ट नेता के पास था और कांग्रेस छोड़कर आए एक नेता वित्त मंत्री बने. कांग्रेस इस सरकार को "बाहर से समर्थन" दे रही थी. ये वो कांग्रेस थी, जिसकी कमान अब बिहार के बिल्कुल अलग मिजाज और अंदाज वाले नेता सीताराम केसरी के हाथों में थी.

केसरी बहुत जल्दबाजी दिखाने वाले व्यक्ति थे. उन्हें लगता था कि वो खुद प्रधानमंत्री बन सकते हैं, 11 महीने के भीतर उन्होंने देवगौड़ा को हटाकर उनकी जगह पूर्व कांग्रेसी नेता इंदर कुमार गुजराल को गद्दी पर बिठा दिया. 8 महीने बाद गुजराल को भी हटा दिया गया और देश 2 साल से भी कम वक्त में एक बार फिर से चुनाव की दहलीज पर खड़ा हो गया. लगातार दो खिचड़ी सरकारों के गिरने की वजह से इस पारंपरिक डिश का नाम राजनीति की दुनिया में हमेशा के लिए कलंकित हो गया !

अनुभव का तकाजा है कि 2019 में भी सीटें उसी तरह तीन हिस्सों में बंटेंगी

1996 के जादुई रिप्ले की तरह 2019 में भी बीजेपी 180-200 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बन सकती है, कांग्रेस 130-150 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर आ सकती है और बाकी बची 200 सीटों के छोटे-छोटे हिस्से तमाम क्षेत्रीय पार्टियां अपनी-अपनी झोली में डाल सकती हैं.

लेकिन इसके आगे की कहानी 1996 से पूरी तरह अलग हो सकती है. दरअसल, मेरी राय में ऐसी तीन बड़ी वजहें हैं, जिनके चलते 2019 में ऐसी खिचड़ी पकने के आसार हैं, जिसे स्वादिष्ट राजनीतिक व्यंजन कहा जा सकता है!

पहली वजह : विरोधियों में मोदी की दहशत

मोदी की विरोधियों को हर हाल में धूल चटाने वाली राजनीतिक शैली उन विपक्षी दलों को मजबूती से एकजुट करने वाली सबसे बड़ी ताकत है, जो मोदी का डर न होने पर आपसी तकरार में ही उलझे रहते. उन्हें पता है कि अगर वो मोदी को नहीं हराएंगे तो मिटा दिए जाएंगे. मोदी बेमिसाल ऊर्जा के साथ कैंपेन करते हैं. वो उन लोगों में से हैं, जिन्हें अमेरिका में "क्लोजर" कहा जाता है, और जो प्रचार का आखिरी लम्हा गुजर जाने के बाद तक इतना जोर लगाते हैं कि निश्चित नजर आ रही हार के जबड़े से भी जीत का निवाला छीन लाते हैं.

वो मनमोहन सिंह जैसे वरिष्ठ राजनीतिक विरोधी पर बिना पलक झपकाए देशद्रोह का आरोप लगा सकते हैं. वो अखबारों की सुर्खियों को संदर्भ से काटकर बिलकुल अलग रूप में पेश करना जानते हैं. मसलन, कांग्रेस को एक मुस्लिम पार्टी बताते हुए वो एक ऐसी पार्टी पर हंसते-हंसते कीचड़ उछाल सकते हैं, जिसने देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया है.

मोदी अपनी चुप्पी का राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना भी बखूबी जानते हैं. दलितों और मुसलमानों की मॉब लिंचिंग पर चुप्पी, दुष्ट ट्रोल्स को सोशल मीडिया पर फॉलो करने के मामले में चुप्पी, अपने एक मंत्री द्वारा हत्या के दोषियों को सरेआम माला पहनाए जाने पर चुप्पी. उनकी इस रणनीतिक चुप्पी से उनके विरोधी बुरी तरह बौखला जाते हैं. वो समझ नहीं पाते कि क्या करें - अगर चुप रहते हैं तो भी वही धिक्कारे जाते हैं और अगर ज्यादा विरोध करें तो भी निशाना उन्हें ही बनना पड़ता है. दोनों ही स्थितियों में मुद्दा तीखे ध्रुवीकरण का जरिया बन जाता है.

अखबार और टेलिविजन चैनल सरेंडर कर चुके हैं. वो अक्सर सरकार की तरफदारी में इतना शोर मचाते हैं कि उसके सबसे मुखर प्रचारकों को भी पीछे छोड़ देते हैं. यहां तक कि न्यायपालिका भी सार्वजनिक तौर पर अलग-अलग खेमों में बांटी जा चुकी है.

1996 और 2019 के बीच सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर यही है : 1996 में कोई मोदी नहीं था, जो विपक्षी गठजोड़ को एक साथ बने रहने को मजबूर कर देता. लेकिन 2019 में मोदी उस मजबूत गोंद का काम करेंगे, जिसकी वजह से उनके तमाम विरोधी एक साथ रहेंगे - या हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे !

दूसरी वजह : राहुल और सीताराम केसरी की कांग्रेस में जमीन आसमान का फर्क है

एक और बड़ी वजह है, जिसके चलते 1996 जैसी नाकामी 2019 में नहीं दोहराई जाएगी - क्योंकि आज की कांग्रेस वैसी नहीं है, जैसी वो तब थी :

* 1996 के चुनाव में कांग्रेस एक बुरी तरह हारी हुई पार्टी थी, जिसकी ताकत 244 सीटों से घटकर 140 पर आ गई थी इसलिए वो नैतिक रूप से सत्ता में वापसी का दावा नहीं कर सकती थी. लेकिन, 2019 में अगर कांग्रेस लोकसभा की 44 सीटों से बढ़कर 130-150 सीटों तक पहुंच गई, तो वो एक “बढ़ती हुई ताकत” होगी. इससे कांग्रेस को गठबंधन सरकार में बढ़चढ़कर शामिल होने या मौका मिलने पर उसका नेतृत्व करने का नैतिक अधिकार भी मिल जाएगा. ऐसा होने पर सरकार को “बाहर से समर्थन देने” वाले घिसे-पिटे तरीके से छुटकारा मिलेगा, जो बड़ी राहत की बात होगी.

* सीताराम केसरी एक बूढ़े, कमजोर और हड़बड़ी दिखाने वाले प्रांतीय स्तर के नेता थे. उनमें वैसी गंभीरता का साफ तौर पर अभाव था, जो किसी पार्टी के कमांडर-इन-चीफ में होनी चाहिए. उनसे बिल्कुल उलट, राहुल गांधी कांग्रेस के निर्विवाद नेता हैं. वो युवा हैं और सब्र रखना जानते हैं. उन्होंने अपनी बातों और कामकाज से साबित किया है कि वो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए उतावले नहीं हुए जा रहे. वो केसरी की तरह छल-कपट करने वाले भी नहीं हैं, जिसकी वजह से देवगौड़ा और गुजराल सरकारों का बुरा हाल हुआ था.

तीसरी वजह : 2019 का गठजोड़ सोची-समझी प्रक्रिया का ठोस नतीजा होगा

1996 का यूनाइटेड फ्रंट गठबंधन चुनाव के बाद बेहद हड़बड़ी में बना था. जिसे चंद घंटों के भीतर किसी तरह जोड़तोड़ करके खड़ा किया गया था. जबकि मौजूदा विपक्ष 2019 के लिए बड़े धैर्य और मेहनत के साथ मजबूत प्लेटफॉर्म तैयार कर रहा है. गोरखपुर, फूलपुर, कैराना, अजमेर, अलवर, गुरदासपुर और दूसरी जगहों पर हुए कई उपचुनावों में मिली भारी जीत ने उनमें नई उम्मीद जगाने का काम किया है.

शरद पवार जैसे दिग्गज राजनेता इस प्रक्रिया को अपने अनुभव और प्रभाव से और मजबूत बना रहे हैं. (राज्यसभा में उपसभापति पद के लिए साझा उम्मीदवार तय करने का मुश्किल काम इसका ताजा उदाहरण है.) मायावती ने राहुल गांधी के बारे में गलतबयानी करने वाले अपने एक वरिष्ठ नेता को 24 घंटे के भीतर पद से हटाकर ऐसी टीम भावना दिखाई है, जिसकी झलक पहले कभी नहीं देखी गई थी. एचडी कुमारस्वामी ने रोने-धोने और गठबंधन के अपने सहयोगी को शर्मिंदा करने वाली 1996-स्टाइल ड्रामेबाजी से बहुत जल्द तौबा कर ली. इतना ही नहीं, 24 घंटे के भीतर उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अपनी गलती मानी और प्रधानमंत्री पद के योग्य उम्मीदवार के तौर पर राहुल गांधी की तारीफ भी की. हालांकि ये कुछ छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन इनसे भरोसा जमता है कि विपक्षी दलों के बीच बेहतर तालमेल और समझदारी विकसित हो रही है, जो 1996 के शोर शराबे और रहस्यमय जोड़तोड़ वाले माहौल से बहुत अलग है.

कुल मिलाकर, अंतिम निष्कर्ष बिलकुल साफ है : 2019 के चुनावी समीकरण भले ही एक बार फिर से 1996 जैसी त्रिशंकु संसद की ओर इशारा कर रहे हों, लेकिन इस बार विपक्षी दलों के गठजोड़ का मिजाज पूरी तरह अलग होगा, जो इसे खारिज करने वालों को चौंकाने की संभावना रखता है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 28 Jul 2018,08:32 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT