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राष्ट्रपति चुनाव जीतने के बाद रामनाथ कोविंद ने बड़ी गंभीर बात कही. उन्होंने कहा, ‘मैं उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करूंगा, जो जिंदगी जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. मैंने कभी राष्ट्रपति बनने की कल्पना नहीं की थी. मेरी जीत उन लोगों के लिए एक संदेश है, जो अपना काम ईमानदारी से कर रहे हैं. मेरा राष्ट्रपति चुना जाना भारतीय लोकतंत्र की महानता का प्रमाण है.’
जीत के बाद लोकतंत्र के नाम पर इस तरह के रस्मी भाषण दिए जाते रहे हैं, लेकिन यह बयान राष्ट्रपति पद के इतिहास की याद दिलाता है. राष्ट्रपति राज्यों के चुने हुए प्रमुख होते हैं और वह जिस राष्ट्रपति भवन में रहते हैं, वह गणतंत्र का प्रतीक है.
आज जिसे राष्ट्रपति भवन कहा जाता है, इसे 20वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेजों ने बनवाया था. तब इसका नाम गवर्नमेंट हाउस हुआ करता था. अनौपचारिक तौर पर इसे उस वक्त वायसराय हाउस भी कहा जाता था. इसका नाम 26 जनवरी, 1950 को राष्ट्रपति भवन रखा गया. 15 अगस्त, 1947 को यहां जो आयोजन हुआ था, उसी से आजादी के बाद राष्ट्रपति भवन की ‘रिपब्लिकन पहचान’ जुड़ी है.
ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों के हाथ में सत्ता देने के लिए जो समझौता किया था, उसमें लिखा था कि 15 अगस्त 1947 का समारोह ब्रिटिश सरकार और भारत के राजनीतिक नेतृत्व दोनों के लिए खास होगा. भारतीय नेताओं के लिए यह अंग्रेजी राज की डोर टूटने का प्रतीक था, जिसे वह भविष्य निर्माण के लिए बहुत जरूरी मानते थे.
इस समारोह में अंग्रेजी में शिक्षा लेने वाले भारतीयों, यूरोपीय लोगों, राजाओं और सबसे अहम आम लोगों को हिस्सा बनाना जरूरी था.
लॉर्ड माउंटबेटन ने इस समारोह के बारे में जो लिखा है, उससे ‘जनता’ और भीड़ के बीच के फर्क को समझा जा सकता है. उन्होंने लिखा:
जवाहरलाल नेहरू और दूसरे कई भारतीय नेता भीड़ और ‘जनता’ के इस भेद को नहीं मानते थे. आजादी का जश्न कई मायनों में ‘अभिजात्य’ था, लेकिन गवर्नमेंट हाउस और असेंबली बिल्डिंग (जिसे बाद में संसद भवन का नाम दिया गया) का इस्तेमाल ‘रिपब्लिकनिज्म’ के सशक्त विचार को उभारने के लिए किया गया.
14 अगस्त, 1947 के संविधान सभा के सत्र में यह तय हुआ कि भारतीय लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होगी. इसी सत्र में नेहरू ने ‘नियति से मुलाकात’ वाला ऐतिहासिक भाषण दिया था. माउंटबेटन ने गवर्नमेंट हाउस के बाहर जिस भीड़ का जिक्र किया था, उसकी बड़ी भूमिका ना सिर्फ लोकतांत्रिक संस्थाओं के कामकाज में होनी थी, बल्कि गवर्नमेंट हाउस जैसी औपनिवेशिक इमारतों की तकदीर तय करने में भी उन्हें बड़ा रोल अदा करना था.
‘लोकतंत्र और गणतंत्र’ के आदर्शों का इस्तेमाल करके भीड़ और जनता के बीच की खाई पाटी गई. शायद इसी वजह से नेहरू ने दिल्ली के स्कूलों बच्चों को आधिकारिक आयोजन का हिस्सा बनाने का फैसला किया था.
अखबार में उस समय की जो खबरें छपी थीं, उनमें बताया गया कि दिल्ली के स्कूलों में आजादी के मौके पर मिठाइयां बांटी गईं और छात्रों को स्कूल ड्रेस पर लगाने के लिए तिरंगे का बैज दिया गया.
1950 में गवर्नमेंट हाउस का नाम राष्ट्रपति भवन किया गया. इस इमारत और आम भारतीयों की रोजमर्रा की जिंदगी के बीच एक तार जोड़ने में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बड़ी भूमिका निभाई.
वक्त के साथ राष्ट्रपति भवन का भारतीयकरण बढ़ता गया. एक समय इस इमारत को ‘ब्रिटिश साम्राज्य का नगीना’ कहा जाता था, वह भारतीय गणतंत्र का प्रतीक बना, जिस पर सिद्धांत पर देश की जनता का अधिकार है और जिसमें अब चुने हुए प्रतिनिधि रामनाथ कोविंद रहने जा रहे हैं.
(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इनसे @Ahmed1Hilal पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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