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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ विदेश और सुरक्षा नीतियों पर सेना की बजाय सरकार का नियंत्रण बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे, तभी सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में उन्हें पद पर बने रहने के अयोग्य ठहरा दिया. हालांकि अभी इन आरोपों में उनके खिलाफ मुकदमा भी नहीं चला है.
शरीफ के सत्ता पर नियंत्रण की इन कोशिशों से पाकिस्तानी सेना खुश नहीं थी. इसलिए उसने न्यायपालिका के साथ मिलीभगत करके उन्हें प्रधानमंत्री पद से हटाने का जाल बुना.
शरीफ और उनके परिवार के खिलाफ जांच के लिए बनी सुप्रीम कोर्ट की ज्वाइंट इनवेस्टिगेशन टीम में सेना ने इसके लिए अपने दो सदस्य रखवाए. इसमें से एक मेंबर मिलिट्री इंटेलिजेंस, तो एक खुफिया एजेंसी आईएसआई का था. दरअसल, शरीफ को पद से हटाया जाना एक तरह का तख्तापलट है. इससे सिर्फ और सिर्फ सेना को फायदा होगा.
पाकिस्तान की तरह इसकी सेना भी मुश्किल दौर का सामना कर रही है. खैबर-पख्तूनवा (पुराना नाम नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस) और फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज (एफएटीए) में विद्रोहियों के खिलाफ उसका अभियान कमजोर पड़ गया है. सेना के ठिकानों पर इन क्षेत्रों में हमले हुए हैं.
मई 2011 में एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के अमेरिकी रेड में मारे जाने के बाद से नाटो सहयोगियों के साथ पाकिस्तानी सेना के संबंध काफी खराब हो गए थे, जिसमें अभी तक सुधार नहीं हुआ है. सेना का मनोबल कमजोर है और उसके शीर्ष नेतृत्व का एक बार फिर पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व से टकराव चल रहा है.
दिसंबर 2011 में ‘मेमोगेट’ स्कैंडल से पाकिस्तानी सेना के देश की सियासत और राजकाज में दखल का मामला सामने आया था. उस वक्त प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने तब आर्मी को ‘देश के अंदर देश’ करार दिया था. वैसे तो इस जुमले का इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है, लेकिन कई जानकारों का कहना है कि पूर्व प्रधानमंत्री का बयान ठीक नहीं था, क्योंकि पाकिस्तान में तो आर्मी ही ‘सत्ता’ है. सच तो यह है कि आर्मी और आईएसआई के हाथ में ही देश की असल पावर केंद्रित रही है.
आर्मी के इस खेल में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा ही साथ दिया. आर्मी ने देश में कभी भी लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं होने दीं. पड़ोसी देश में तानाशाही की जड़ें अयूब खान से जुड़ी हुई हैं, जो ‘नियंत्रित लोकतंत्र’ के पैरोकार थे. इसके बाद राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख (सीओएएस) के रूप में ‘सत्ता के बंटवारे’ का कॉन्सेप्ट सामने आया. पाकिस्तानी सेना के इस ‘राजनीतिक सैन्यवाद’ से लोकतांत्रिक नियमों पर कई तरह की बंदिशें लग गईं.
अफगानिस्तान और जम्मू-कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की नीति आर्मी तय करती है. इसलिए उसकी सहमति के बिना भारत के साथ पड़ोसी देश के रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते. पाकिस्तान के न्यूक्लियर हथियार प्रोग्राम पर वहां की सेना का कंट्रोल है.
परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की नीति तय करने में वहां की राजनीतिक सत्ता की कोई भूमिका नहीं है. सेना प्रमुख ही आईएसआई को कंट्रोल करते हैं और वही तय करते हैं कि हर साल रक्षा पर कितना पैसा खर्च किया जाएगा. सीनियर लेवल अप्वाइंटमेंट और प्रमोशन में ही उनकी चलती है और सरकार सिर्फ उन फैसलों पर मुहर लगाती है.
भारत को कमजोर करने और एशिया में भारत का प्रभाव कम करने के चीन के मकसद को पूरा करने के लिए पाकिस्तानी सेना ने ‘भारत को लहूलुहान’ करने की रणनीति बनाई है. भारत में 1947-48 में कश्मीर में हमला, 1965 में ऑपरेशनल जिब्राल्टर और 1999 में कारगिल में घुसपैठ के जरिये कारगुजारी वह कर चुकी है. आईएसआई समर्थित आतंकवाद के जरिये जम्मू-कश्मीर और देश के दूसरे हिस्सों में वह छद्म युद्ध चलाती रही है. नवंबर 2008 में मुंबई हमला इसी रणनीति के तहत हुआ था.
1980 में पाकिस्तान ने सिख आतंकवादी संगठनों को बढ़ावा दिया था और उनका समर्थन किया था. आईएसआई लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों को भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए हर संभव मदद करती है.
अफगानिस्तान में भी तालिबान के कई धड़ों और नॉर्थ वजीरिस्तान बेस्ड हक्कानी नेटवर्क का वह इसी तरह समर्थन करती आई है. ये संगठन अफगानिस्तान की करजई सरकार और नाटो-आईएसएएफ के सुरक्षाकर्मियों को निशाना बना रहे हैं. यह हाल तब है, जबकि पाकिस्तान नॉन-नाटो सहयोगी है और कथित तौर पर वह ‘आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध (जीडब्ल्यूओटी)’ का हिस्सा है.लोकतांत्रिक सरकारों को कमजोर करती आई है सेना
अंतरराष्ट्रीय वजहों से भी पाकिस्तान में आर्मी का रोल बढ़ा है. अमेरिका ने पाकिस्तान की सेना को जमकर हथियारों की सप्लाई की है. अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना की कारगुजारियों को देखते हुए अब जाकर अमेरिका इस पॉलिसी को बदल रहा है.
अगर पाकिस्तान की सेना अफगानिस्तान में दखलंदाजी बंद नहीं करती, भारत को अस्थिर करने की कोशिशें नहीं छोड़ती और अपने यहां सियासत में दखल देना बंद नहीं करती, तो इससे बड़ी समस्या पैदा होगी. सेना को देश की अंदरूनी सुरक्षा को मजबूत बनाने की जरूरत है, ताकि आतंकवादी मनमानी न कर सकें. देशहित में पाकिस्तानी सेना को ‘देश के अंदर देश’ की भूमिका बंद कर देनी चाहिए और लोकतांत्रिक सरकार के नियंत्रण को स्वीकार कर लेना चाहिए.
(लेखक इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस एंड एनालिसिस (IDSA) में फेलो हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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