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OPINION: केजरीवाल की माफी, मतलब आम आदमी के सपने की बेवक्‍त मौत!

अरविंद केजरीवाल जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला रहे थे, तब की उनकी भाषा पूरी तरह बदल चुकी है.

दिलीप सी मंडल
नजरिया
Updated:
केजरीवाल ने पंजाब में विधानसभा चुनाव के वक्त बादल सरकार पर ड्रग माफिया के आरोप लगाए
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केजरीवाल ने पंजाब में विधानसभा चुनाव के वक्त बादल सरकार पर ड्रग माफिया के आरोप लगाए
(फोटो: Harsh Sahani/The Quint)

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अरविंद केजरीवाल ने पंजाब के अकाली नेता विक्रम मजीठिया से माफी मांगकर साबित कर दिया कि वो वाकई में ‘आम नेता’ ही हैं, जो राजनीति के बने-बनाए ढर्रे पर चल रहे हैं.

आम आदमी पार्टी और दूसरे राजनीतिक दलों की संस्कृति में ढकोसले के तौर पर ही सही, अगर कोई बदलाव था भी, तो वह खत्म हो चुका है. ये पार्टी अब सैकड़ों राजनीतिक दलों की भीड़ में एक और राजनीतिक दल ही है. अब तो ऐसा लगता है कि केजरीवाल ने ईमानदार और दिलेर राजनीति का जो दावा किया था, वो पूरी तरह खोखला था, सिर्फ एक्टिंग थी.

केजरीवाल ने विक्रम मजीठिया पर ड्रग माफिया होने का आरोप लगाया था(फोटो: PTI)

केजरीवाल ने पंजाब में विधानसभा चुनाव के वक्त आरोप लगाए थे कि बादल सरकार का ड्रग माफिया के सिर पर हाथ है. उन्होंने ताल ठोककर दावा किया था कि सुखबीर के साले विक्रम मजीठिया ड्रग माफिया के सरगना हैं और सरकार बनते ही वो उन्हें जेल भेजेंगे. पर हुआ क्या? कानूनी दबाव बढ़ा, तो उन्होंने माफी मांगकर आसान रास्ता पकड़ लिया.

इंडिया अगेंस्ट करप्शन, परिवर्तन और कबीर जैसे एनजीओ ने जब राजनीतिक दल बनना तय किया, तो उसके कुछ घोषित और अघोषित वादे थे. उन वादों में सबसे महत्वपूर्ण थी ईमानदारी की राजनीति.

आम आदमी पार्टी एक अलग तरह की राजनीति का वादा लेकर आई थी. यूपीए-2 के शासनकाल में कोयला से लेकर स्पेक्ट्रम और तमाम अन्य तरह के घोटालों की वजह से राजनीतिक दलों की विश्वसनीयता निम्नतम स्तर पर थी. केंद्रीय मंत्री से लेकर टॉप ब्यूरोक्रेट और उद्योगपति जेल जा रहे थे. दिल्ली शहर में कॉमनवेल्थ, बिजली और बस खरीद घोटालों की चौतरफा चर्चा थी. राजनीति का चेहरा बेहद दागदार नजर आ रहा था.

उसी दौरान कुछ एनजीओ एक मॉडल लेकर आए कि अगर लोकपाल बन गया और उसे राजनीतिक दलों और नौकरशाहों के ऊपर बिठा दिया गया, तो देश में भ्रष्टाचार का समाधान हो जाएगा. देश की तरक्की चूंकि भ्रष्टाचार की वजह से रुकी है, तो उसके खत्म होते ही चौतरफा खुशहाली आ जाएगी.

इस आंदोलन के फ्रंट में अन्‍ना हजारे थे. अन्‍ना इससे पहले महाराष्ट्र में अपने गांव रालेगण सिद्धि में स्थानीय शासन के कुछ प्रयोग कर चुके थे और भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन भी चला चुके थे. लेकिन इस आंदोलन के पीछे संगठन और दिमाग अरविंद केजरीवाल का था. इसलिए देखते ही देखते, अन्ना हजारे आंदोलन की पृष्ठभूमि में चले गए और कमान अरविंद केजरीवाल के हाथ में आ गई.

एक समय ऐसा आया कि भारत की तमाम गड़बड़ियों के लिए राजनीतिक दलों और राजनीति को कोसने वाले अरविंद केजरीवाल ने एक पार्टी बना ली और खुद उसके अध्यक्ष बन गए. इसके बाद उनकी राजनीतिक यात्रा शुरू होती है.

क्या था अरविंद केजरीवाल का मॉडल?

अरविंद केजरीवाल ने खुद को और अपनी टीम को ईमानदार लोगों के रूप में पेश किया और राजनीति में उतर गए.(फोटोः PTI)

अरविंद केजरीवाल राजनीति में सिर्फ एक वादा ही लेकर नहीं आए थे, बल्कि वो तो एक मॉडल बता रहे थे. उनका वादा यह था कि वर्तमान राजनीतिक ढांचे को चलाने वाले अगर ईमानदार लोग हों, तो राजनीति ईमानदार हो जाएगी.

अरविंद केजरीवाल के मॉडल के हिसाब से राजनीति में गड़बड़ी या भ्रष्टाचार इसलिए है, क्योंकि इसे चलाने वाले गड़बड़ और भ्रष्ट लोग हैं. ये मॉडल इस बात को नहीं मानता था कि राजनीति की आंतरिक संरचना ही ऐसी है कि इसे चलाने वाले का खास रंग में ढल जाना ही स्वाभाविक बात है.

बहरहाल, राजनीति की सफाई के वादे के साथ अरविंद केजरीवाल ने खुद को और अपनी टीम को ईमानदार लोगों के रूप में पेश किया और राजनीति में उतर गए. उन्होंने ऐसा पेश किया मानो वो राजनीति की तमाम बुराइयों से ऊपर हैं, जाति-धर्म की राजनीति नहीं करते और उनके सत्ता में आते ही करप्शन खत्म हो जाएगा.

लेकिन अब तक के अनुभव के बाद कहा जा सकता है कि अरविंद केजरीवाल ने राजनीति को जितना नहीं बदला है, उससे ज्यादा राजनीति ने अरविंद केजरीवाल को बदल दिया है. केजरीवाल अब किसी भी और नेता की तरह राजनीति कर रहे हैं. जाति और धर्म के समीकरण देखकर वे चुनाव में टिकट देते हैं. चुनाव में उनकी पार्टी भी बाकी दलों की तरह खर्च करती है. वे कई ऐसे वादे करते हैं, जिन्हें पूरा करना उनकी प्राथमिकता में नहीं होता.

दिल्ली में लोकपाल बनाने की तो वो बात तक नहीं करते. पार्टी का उनका ढांचा भी उसी तरह अधिनायकवादी है, जैसा कि बाकी दलों का है.

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आम आदमी पार्टी और बाकी दलों का फर्क मिटा

पार्टी में अरविंद केजरीवाल का वैसा ही दबदबा है, जैसा बाकी दलों में होता है. योगेंद्र यादव, आनंद कुमार और प्रशांत भूषण को पार्टी से निकालकर अरविंद केजरीवाल ने दिखा दिया है कि पार्टी का संचालन कितना लोकतांत्रिक है. पार्टी के नेता और कार्यकर्ता पद और पैसे के उतने ही लोभी हैं, वरना कोई वजह नहीं थी कि विधायकों को संसदीय सचिव बनाकर लाभान्वित करने का इंतजाम किया जाता. इसी वजह से आज इन विधायकों की सदस्यता जा रही है.

योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण भी पहले आम आदमी पार्टी का हिस्सा थे(फोटो: TheQuint)

अरविंद केजरीवाल जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला रहे थे, तब की उनकी भाषा पूरी तरह बदल चुकी है. अब वे उन सपनों को नहीं बेच रहे हैं, जो उन्होंने उस समय बेचे थे. आम आदमी पार्टी का दिल्ली में भ्रष्टाचार खत्म हो जाने का कोई दावा नहीं है. पार्टी यह नहीं कह पा रही है कि दिल्ली सरकार के दफ्तरों में करप्शन खत्म या कम हो गया है. जनता और सरकारी बाबुओं के रिश्तों में कोई निर्णायक बदलाव आम आदमी पार्टी नहीं ला पाई है.

टूट गया ईमानदार राजनीति का सपना

यह कई मायनों में स्वप्नभंग है. दिल्ली में युवाओं के एक हिस्से ने इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन और आम आदमी पार्टी में एक सपना देखा था. उन्हें लग रहा था कि इसे चलाने वाले ईमानदार लोग हैं और जब इनकी सरकार आएगी, तो करप्शन खत्म हो जाएगा. ऐसा कुछ नहीं हुआ.

आम आदमी पार्टी यह कह सकती है कि उसे केंद्र सरकार से किसी भी तरह का कोई सहयोग नहीं मिल रहा है. लेकिन राज्य सरकार के दफ्तरों को करप्शन मुक्त बनाना केजरीवाल सरकार का काम है.

जिस तरह कोई भी राजनीतिक दल चुनाव के दौरान तमाम तरह के वादे करते हैं और तमाम तरह के आरोप लगाते हैं, ठीक वही काम आम आदमी पार्टी ने भी किया है. पंजाब में ड्रग एक गंभीर समस्या है. लेकिन अगर आप किसी नेता पर कोई गंभीर आरोप लगा रहे हैं, तो इसके पीछे तथ्य होने चाहिए. अरविंद केजरीवाल की इस मायने में चूक कोई गंभीर बात नहीं है. सभी पार्टियां ऐसा करती हैं. आम आदमी पार्टी ने भी वही किया.

फिर दूसरे दलों और आम आदमी पार्टी में फर्क किस बात का है? आम आदमी पार्टी अब भारत का एक और राजनीतिक दल है. यह एक सपने की मौत है. यह उस सपने की मौत है, जिसके मुताबिक ईमानदार लोग राजनीति में आएं, तो राजनीति का चेहरा बदल जाएगा.

साबित यह हुआ कि राजनीति एक व्यापक प्रक्रिया है, जो लोगों को ही बदल देगी. व्यक्तिगत ईमानदारी का यहां सीमित महत्व है. यह मुमकिन नहीं है कि राजनीतिक संस्थाएं वैसी ही बनी रहें, बाकी संस्थाएं भी पहले की तरह ही काम करती रहें और राजनीति साफ-सुथरी हो जाए.

राजनीति को साफ बनाने में व्यक्तियों का महत्व जरूर है. लेकिन सिर्फ कुछ लोगों के चाहने से राजनीति की तस्वीर नहीं बदल जाएगी. यह बताने के लिए अरविंद केजरीवाल का धन्यवाद!

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं.)

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Published: 16 Mar 2018,08:06 PM IST

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