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पांच साल पहले लगभग इसी समय मैंने पहला चुनाव लड़ा. जीवन बदल देने वाला यह अनुभव था. मैं दोबारा अतीत में जाना चाहूंगी और इसे दोहराना चाहूंगी, भले ही नतीजा पहले की ही तरह क्यों न हो. ईमानदारी से कहूं तो यह आवेग में लिया गया फैसला था.
आम आदमी पार्टी की यथास्थिति विरोध वाली सोच मुझे पसंद थी. और, मैंने एचएस फुल्का जैसे इंसान की खातिर, जिनकी मैं लम्बे समय से प्रशंसक रही थी, अभियान चलाने के लिए समय निकाला. जब चंडीगढ़ के आम आदमी पार्टी उम्मीदवार ने नाम वापस ले लिया, मैं अरविन्द केजरीवाल के पास पहुंची और अपनी टोपी उतार दी.
चंडीगढ़ छोटा शहर है जिसे मैं घर मानती हूं. मैं इसे बहुत अच्छी तरह से जानती हूं या फिर ऐसी मेरी सोच है. जब ‘आप’ के लिए अभियान के वास्ते मैं योजना बनाने लगी, मुझे महसूस हुआ कि शहर को मैं जितना जानती थी, उससे कहीं ज्यादा है यह शहर.
स्टार्ट-अप पार्टी से चुनाव लड़ने का फायदा ये होता है कि आप पहली ही बार में सारी प्रक्रियाएं जान लेते हैं. स्थापित दलों में कई टीम होती हैं और जो कुछ करने की जरूरत है उस हिसाब से वे बहुत कुशल होती हैं. शुरूआत करने वालों के लिए नामांकन पत्र का काम बहुत थकाऊ होता है अगर आप सबकुछ वहीं भरना चाहते हैं. और, अगर कोई व्यक्तिगत तौर पर साथ बैठा है तो आप जानते हैं कि हलफनामे में क्या लिखा जाना है.
बेशक मेरे साथ अन्य लोगों के अलावा दो वकील मित्र और मेरे चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट थे, जिन्होंने कागजी जरूरत पूरे किए. मैं जो कुछ वहां लिख रही थी, उसे लेकर बेहद सावधान थी. उदाहरण के लिए, मैंने राजनीतिक विज्ञान में 2013 में अपना मास्टर पूरा किया था. फिर भी, मेरे हाथ में डिग्री सर्टिफिकेट नहीं थे और इसलिए कई दिनों हलफनामे में इसका जिक्र किए जाने को लेकर चिन्तित रही. आखिरकार, मैंने इसका जिक्र नहीं किया.
स्थापित दलों के पास खास तौर से ‘नामांकन टीम’ होती है जो अक्सर तथ्यों के करीब और सही अंदाजा लगाते हुए कागजात तैयार कर देती है. अभियान में व्यस्त उम्मीदवार बस उस पर हस्ताक्षर कर देते हैं. अक्सर यह जांचते भी नहीं कि उसमें क्या लिखा है. उदाहरण के लिए शैक्षिक योग्यता में विसंगति.
पार्टी के स्वयंसेवकों ने मिलकर एक शानदार अभियान की योजना बनायी और मैं हर सुबह 6 बजे से रात 8 बजे तक उससे जुड़ी रहती. हमेशा सतर्क चुनाव आयोग की टीम के साए में रहना होता है, क्योंकि आचार संहिता के टूटने की आशंका बनी रहती.
भूख से निबटने के लिए मैं बैग में बिस्कुट लेकर चलती और पेशाब पर भी जबरदस्त नियंत्रण मैंने विकसित कर लिया था. समय के साथ-साथ मैंने झिझक छोड़ दी और जब कभी महसूस होता तो खुद ही आगे बढ़कर दरवाजा खटखटा देती. साधारण और सामान्य के ‘मुखौटे’ में ‘सेलेब्रिटीडम’ दिखाना अच्छा लगता. लू ब्रेक भी लोगों से जुड़ने का अच्छा अवसर हुआ करता था, क्योंकि अमूमन वह समय निर्वाचन क्षेत्र स्थित घरों में ‘टी ब्रेक’ में बदल जाया करता.
हमारी रणनीति घर-घर जाने की थी ताकि दौलत का मुकाबला किया जा सके क्योंकि हम उतना खर्च नहीं कर सकते थे. खर्च की वैधानिक सीमा 54 लाख थी. (चूकि चंडीगढ़ केंद्र शासित प्रदेश था इसलिए यहां खर्च की सीमा दूसरे संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से कम थी) मैं खुशनसीब रही कि चंदे से जुटायी सारी रकम खर्च करने में कामयाब हो सकी और यह किसी अभियान की मजबूती का आधार होती है.
वित्तीय सीमाओं के बावजूद हमारे अभियान ने ऊंचाई हासिल की. यह 2014 में उन चार चुनाव क्षेत्र में था, जिसकी सबसे अधिक चर्चा हुई (इसके अलावा वाराणसी, अमेठी और अमृतसर). हमने व्यस्त रहने के अनोखे तरीके निकाले. मेरी मोटरसाइकिल रैलियां हिट रहीं (इस वजह से मुझे द इकॉनोमिस्ट और दूसरी विदेशी प्रेस में भरपूर जगह मिली).
एक और बात जो मैं जान सकी वह यह कि अपने विरोधी पर व्यक्तिगत आक्षेपों के बिना भी साफ-सुथरा तरीके से और सकारात्मक रहते हुए प्रभावी चुनाव अभियान सम्भव है. चंडीगढ़ में राजनीतिक अभियानों का जो स्तर था वह राष्ट्रीय स्तर पर जो कुछ हो रहा था, उसके ठीक उलट था. पवन बंसल, किरण खेर और मैं अक्सर एक-दूसरे से मिलते और कई बार एक ही प्लेटफॉर्म पर ऐसा होता. उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं अलग थीं. व्यक्तिगत तौर पर दोनों के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है.
अब जब मैं वर्तमान को देखती हूं मुझे महसूस होता है कि शायद उस चुनाव में जीत असंभव बात होती. हालांकि, उस समय मैंने ऐसा नहीं सोचा था. रिक्शा चालकों से लेकर बड़े-बड़े घरों में रहने वाले लोगों तक से जिससे नॉर्दर्न सेक्टर बने हैं- सभी तबकों से मिले समर्थन से मैं बहुत खुश थी. मैं इस बात से भी खुश थी कि हमने कितना धन इकट्ठा कर लिया था और वह भी सभी तबकों से- लेबर चॉक में इंतजार करते श्रमिक वर्ग से लेकर उन लोगों से, जिन्होंने खुले दिल से चेक पर हस्ताक्षर किए.
चूंकि हमारी ताकत जनप्रतिनिधियों में होती है और इसलिए हमें निश्चित रूप से ऐसे व्यक्ति को चुनना चाहिए जो जरूरत पर उपलब्ध भी हो और हमारे प्रति जिम्मेदार भी. संसदीय लोकतंत्र इसी तरीके से चलता है. ऐसे लोग जो ताकत को अपने तरीके से परिभाषित कर सकते हैं और अपने तरीके से इसे आकार दे सकते हैं, चाहें तो आगामी चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव का प्रोजेक्ट बना सकते हैं. लेकिन, वास्तव में यह ऐसा नहीं है. हम राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए प्रॉक्सी वोट नहीं देते. कौन सी पार्टी सरकार बनाती है इससे ऊपर उठकर मुझे उम्मीद है कि हम ऐसे उम्मीदवार चुनते हैं जिनमें वास्तव में दम हो, जो अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए जिम्मेदार रहेंगे.
(गुल पनाग एक कलाकार, पायलट, राजनीतिज्ञ और उद्यमी हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @GulPanag . यह उनका व्यक्तिगत ब्लॉग है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इससे कोई सरोकार नहीं है.)
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