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दिल्ली में गजब सियासी दंगल चल रहा है. बातचीत के बहाने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके साथी उपराज्यपाल अनिल बैजल के निवास में दाखिल हुए और फिर धरने पर बैठ गए. छह दिन हो चुके हैं धरना और अनशन जारी है. हजारों की संख्या में समर्थकों ने बाहर डेरा डाल दिया है. जैसे-जैसे समय बीत रहा है आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता सभी की बेचैनी बढ़ती जा रही है. केजरीवाल अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हल निकालने की गुहार लगा रहे हैं. कभी गुजारिश वाले अंदाज में तो कभी धमकी भरे तेवर के साथ. प्रधानमंत्री हैं कि सुन ही नहीं रहे. ऐसे में मामला उलझ गया है. असली संकट यह है कि लाज कैसे बचाई जाए. अगर एक भी मांग पूरी नहीं हुई और धरने से उठना पड़ा या जबरन उठा दिया गया तो बड़ी बेइज्जती होगी. ऐसे में दो अहम सवाल हैं. पहला यह कि इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? दूसरा कि क्या कोई बीच का रास्ता निकलने की गुंजाइश है या नहीं?
शुरुआत पहले सवाल से. आखिर मौजूदा संकट के लिए जिम्मेदार कौन है? इसका जवाब ढूंढने के लिए हमें 11 जून को हुई बैठक से दो दिन पहले यानी 9 जून की एक घटना पर गौर करना चाहिए. उस दिन केजरीवाल के घर पर आम आदमी पार्टी की बड़ी बैठक हुई. उस बैठक में यह तय किया गया कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए आंदोलन छेड़ा जाएगा. उसी दिन “एलजी दिल्ली छोड़ो” का नारा बुलंद किया गया.
उनकी सोशल नेटवर्क टीम ने अनिल बैजल को नरेंद्र मोदी का पिट्ठू बताते हुए बुरा भला कहा. मतलब केजरीवाल और उनकी टीम ने बैठक से पहले सोची समझी रणनीति के तहत एलजी के विरुद्ध माहौल तैयार किया. उसके बाद केजरीवाल एलजी से मिलने अकेले जाने की जगह तीन साथियों मनीष सिसोदिया, सत्येंद्र जैन और गोपाल राय के साथ शाम 5.30 बजे बातचीत करने पहुंचे. एलजी के सामने उन्होंने तीन मांगें रखीं और कहा कि ये तीनों मांगें तुरंत पूरी की जाएं. एलजी ने समय मांगा तो केजरीवाल और उनके तीनों मंत्रियों ने कहा कि वो वेटिंग रूम में इंतजार कर रहे हैं जितना समय चाहिए ले लीजिए.
मतलब एलजी निवास पर बैठक से पहले और बैठक के बाद जो कुछ हुआ वह एक व्यापक रणनीति का हिस्सा है. यह कोई स्वत:स्फूर्त घटना नहीं है. यह संकट पहले से निर्धारित रणनीति के तहत पैदा किया गया है. इस मकसद के साथ कि दिल्ली में एक बार केंद्र सरकार के खिलाफ व्यापक मुहिम चलाई जाए और 2019 के आम चुनाव से पहले चल रही बहस में आम आदमी पार्टी को भी जगह दिलाई जाए.
यानी यह संकट केजरीवाल ने जानबूझ कर पैदा किया है और इसके लिए एलजी को जिम्मेदार ठहराना गलत है. इसे और अच्छी तरह समझने के लिए आपको उन मांगों पर गौर करना होगा जो एलजी से की गई हैं.
इस पूरे सियासी खेल में तीसरी मांग महज एक मुखौटा है. मानवीय दिखने के लिए उसे यूं ही शामिल किया गया है. असल में पहली दो मांगें सियासी लड़ाई का मुख्य बिंदू हैं. केजरीवाल और उनके साथियों को अच्छी तरह मालूम है कि यह दोनों मांगे ऐसी हैं जिनका हल निकालना इतना आसान नहीं इसलिए इन पर पेंच फंस जाएगा. पेंच फंसेगा तभी लड़ाई आगे बढ़ेगी यानी इन दोनों मांगों को सोच समझ कर एलजी के सामने इसलिए रखा गया क्योंकि लड़ाई आगे बढ़ानी थी.
पहली दोनों मांग आईएसएस अधिकारियों से जुड़ी है जो अरविंद केजरीवाल के मुताबिक सरकार के काम में उनका सहयोग नहीं कर रहे हैं. आखिर इस टकराव की वजह क्या है? यह टकराव पहले से चल रहा था क्योंकि केजरीवाल और उनके साथी जिस अराजक अंदाज में काम करते हैं उस तरह से काम करना सभी के बस की बात नहीं और अधिकारियों को कुछ संरक्षण केंद्र सरकार ने भी दिया हुआ था. इसलिए दिल्ली सरकार और अधिकारियों के बीच टकराव पहले से चल रहा था. मगर यह टकराव इस साल 19 फरवरी को और बढ़ गया. उस दिन केजरीवाल ने देर रात मुख्य सचिव अंशु प्रकाश को बातचीत के लिए अपने घर बुलाया. आरोप है कि बातचीत के दौरान केजरीवाल के साथियों ने मुख्य सचिव पर हाथ उठा दिया. यह घृणित घटना थी लेकिन केजरीवाल के साथियों ने उस घटना के लिए मुख्य सचिव से माफी नहीं मांगी और बात बढ़ गई.
अगर केजरीवाल इस मामले को सुलझाना चाहते तो मुख्य सचिव के साथ बात करते और अपने विधायकों से उस ओछी हरकत के लिए माफी मांगने को कहते और सुलह-सफाई हो जाती. लेकिन झगड़ा सुलझाना मकसद नहीं है. झगड़ा बढ़ाना मकसद था तभी तो 9 जून को पार्टी की बैठक में एलजी दिल्ली छोड़ो का नारा बुलंद किया गया और ऐसी मांग रखी गई जो तुरंत पूरी नहीं की जा सकती थी. बिना केजरीवाल और उनके साथियों के उदार रवैये के तो कतई पूरी नहीं की जा सकती. केजरीवाल को यह लग रहा था कि हंगामा जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा बाकी सियासी दल उनके समर्थन में मैदान में उतरेंगे. मीडिया माहौल बनाएगा. बीजेपी के खिलाफ चल रही बहस में उनका नाम भी मुख्य खिलाड़ी के तौर पर शामिल हो जाएगा और केंद्र सरकार दबाव में आ जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस मसले पर कांग्रेस केजरीवाल के विरोध में खड़ी हो गई. बाकी दलों ने भी कोई जोरदार समर्थन नहीं दिया. अरविंद और उनके साथी अकेले पड़ गए हैं और मामला सुलझने की जगह उलझ गया.
अब आते हैं दूसरे सवाल पर कि क्या कोई बीच का रास्ता निकलने की गुंजाइश है या नहीं? राजनीति में कोई भी कदम उठाने से पहले भला बुरा सब सोचना चाहिए. हमेशा कुछ दरवाजे खुले रखने चाहिए ताकि जरूरत पड़ने पर बाहर निकला जा सके. लेकिन केजरीवाल के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वह कुछ ज्यादा ही सयाने हैं. इसी सयानेपन में वो कई बार ऐसे कदम उठाते हैं जिसमें उन्हें मुंह की खानी पड़ती है.
26 जनवरी, 2014 से पहले वो कुछ इसी तरह बेतुके अंदाज में संसद भवन के पास धरने पर बैठ गए थे और जब सुनवाई नहीं हुई तो तिलमिला कर उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड को वीआईपी लोगों का मनोरंजन बता दिया. उस समय उनकी बड़ी किरकिरी हुई और उन्हें मजबूरी में अपना कदम वापस लेना पड़ा. कुछ यही काम उन्होंने जितेंद्र सिंह तोमर के मामले में किया. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण कहते रहे कि तोमर भरोसे के लायक नहीं है, लेकिन उन्हें नीचा दिखाने के लिए केजरीवाल ने न केवल तोमर को चुनाव लड़वाया बल्कि जीतने पर कानून मंत्री बना दिया. बाद में तोमर का फर्जीवाड़ा सामने आया तो केजरीवाल मुंह छिपा कर बैठ गए.
इस बार भी कुछ ऐसा ही होता नजर आ रहा है. अब आम आदमी पार्टी के दूसरे नेता बीच का रास्ता निकालने की कोशिश में जुट गए हैं. आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने एक दिन पहले गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मुलाकात करके दखल देने की मांग की है. अरविंद प्रधानमंत्री से दखल की अपील कर रहे हैं लेकिन अभी तक प्रधानमंत्री की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है. खुद प्रधानमंत्री भी थोड़ा जिद्दी किस्म के नेता हैं. वो जवाब देने में बहुत यकीन नहीं रखते. ऐसे में अगर केजरीवाल और उनके साथी अपील पर अपील करते रहे और प्रधानमंत्री ने कोई आश्वासन नहीं दिया तब क्या होगा? वैसी स्थिति में जो भी फॉर्मूला निकलेगा वह अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के लिए सम्मानजनक नहीं होगा.
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