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हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद एक टीवी एंकर ने मुझसे पूछा, ‘क्या अदालत का फैसला पार्टी और सरकार के लिए झटका है?’ मैंने एक पल सोचा. आखिर ये ‘आप’ के लिए झटका क्यों होना चाहिए? देश में लोकतंत्र है. संसदीय व्यवस्था है.
लोकतंत्र में लोग बड़ी उम्मीदों से एक पार्टी को अपना मत देते है. बहुमत पाने वाली पार्टी सरकार बनाती है. सरकार में आने के बाद पार्टी को लोगों से किए वादों को पूरा करना होता है. ये उम्मीद उन्हें गैर-चुने हुए यानी नियुक्त किये लोगों/अधिकारी से नहीं होती.
चुने हुए की जबावदेही सीधे जनता के प्रति होती है, जबकि गैर-चुने सिर्फ उसके प्रति जबावदेह होता है, जिसने उसको नियुक्त किया होता है. हाईकोर्ट का फैसला भारतीय संविधान की इस मूल अवधारणा के खिलाफ है. इससे दिल्ली की जनता को धक्का लगा है, जिसने बड़ी उम्मीदों से आम आदमी को चुना, उसको 70 में से 67 सीटें दी.
आम आदमी पार्टी का जन्म तो 2012 में हुआ. ऐसे लोगों ने पार्टी बनाई, जिनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं था. नई पार्टी अचानक खड़ी हो जाती है. एक ऐसी पार्टी, जिसके पास चुनाव लड़ने तक के पैसे नहीं थे. इस पार्टी को 2013 में 28 सीटें मिली और उसकी सरकार बनी. यानी पार्टी बनने के सवा साल में बीजेपी और कांग्रेस को धताते बताते हुए ‘आप’ सरकार में आसीन हो गई. अखबारों ने लिखा कि ये क्रांति है. दो दिग्गज राष्ट्रीय पार्टियों के रहते ‘आप’ का उभरना वाकई किसी अजूबे से कम नहीं था.
केजरीवाल के इस्तीफा देने के बाद सबने कहा ‘आप’ पार्टी खत्म हो गयी. पानी का बुलबुला था जो फट गया. लोकसभा में ‘आप’ दिल्ली की सभी सीट हार गई. विधानसभा चुनावों के समय फिर लोगों ने ‘आप’ को भाव नहीं दिया पर अजूबा हो गया. कांग्रेस साफ और बीजेपी 31 से घटकर 3 पर सिमट गई. एक और चमत्कार. दिल्ली में ‘आप’ के उदय को समझना होगा. इसको समझे बगैर हाई कोर्ट के फैसले को सहीं संदर्भ में नहीं समझा जा सकेगा.
लोगों ने ‘आप’ पर इतना यकीन क्यों किया? दिग्गजों के सामने नौसिखियों पर भरोसे का कुछ तो कारण होगा ? भारतीय राजनीति में आज जो कुछ गड़बड़ है, जिससे लोग चिढ़ते हैं, जिसे बदलना चाहते हैं, वो सब कुछ इन दोनों पार्टियों में साक्षात मौजूद है. इनके लिए राजनीति समाज सेवा नहीं बल्कि धंधा है, पैसा कमाने का सबसे आसान रास्ता. सरकार में कोई भी काम पैसे के बगैर नहीं होता. हर सरकारी काम में ऊपर से लेकर नीचे तक पैसा बंधा है. भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे है. चुनाव में पैसे के बल पर वोट खरीदे जाते हैं. मुहल्ले के छटे लोगों को टिकट दिया जाता है. टिकट खुलेआम बिकता है.
जब ‘आप’ सत्ता में आई तो उसने पुरानी भ्रष्ट व्यवस्था पर हमला किया, उसने बदलाव लाने की शुरुआत की, जो लोग पुरानी व्यवस्था से लाभ कमा रहे थे, उनके लिए भयाक्रांत होना स्वाभाविक था. ये सभी तत्व एकजुट हो गए. ‘आप’ सरकार भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के ख़िलाफ कार्रवाई न कर पाए इसलिए 40 साल पुराने एंटी करप्शन ब्यूरो को ‘आप’ सरकार के अधिकार क्षेत्र से जबरदस्ती छीन कर उपराज्यपाल महोदय को दे दिया गया. ब्यूरो ठप्प हो गया, ‘आप’ के विरुद्ध साजिश करने का अड्डा बन गया.
सीएनजी फिटनेस घोटाला जिसमें पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उपराज्यपाल नजीब जंग की भूमिका संदेह से परे नहीं है, उसकी जांच इंक्वायरी कमीशन नहीं कर सकता. बिजली कंपनियों ने बिजली मे भारी घोटाला किया है. कैग ये कहता है कि बिजली कंपनियों ने आठ हजार करोड़ का घोटाला किया लेकिन ‘आप’ इसकी जांच नहीं करवा सकती, ऐसा हाई कोर्ट के फैसले से लोग अर्थ निकाल रहे हैं.
‘आप’ सरकार के फैसले को उपराज्यपाल ने रोक दिया. अदालत कहती है उपराज्यपाल सही है. सबसे बड़ी बात अब तक ये तय था कि पुलिस, कानून व्यवस्था और जमीन को छोड़कर दिल्ली सरकार सारे मसलों पर कानून बना सकती है, उनके बारे में फैसला ले सकती है और तीन मसलों को छोड़कर उपराज्यपाल दिल्ली सरकार की सलाह को मानने के लिये बाध्य होंगे. अदालत अब कहती है कि दिल्ली सरकार की ये दलील संविधान सम्मत नहीं है.
इसका मतलब क्या है ? दिल्ली की चुनी हुई सरकार को पूरी तरह से एक गैर-चुने शख्स के अधीन कर दिया गया है. यानी दिल्ली में चुने हुए मुख्यमंत्री का कोई मतलब नहीं है. चुने हुए विधायकों का कोई अर्थ नहीं है. विधानसभा बेकार है. अगर इन सबके कोई मायने नहीं है तो फिर संविधान संशोधन कानून 69 भी अर्थहीन है. जिसके तहत दिल्ली की विधानसभा का गठन हुआ और लोकतांत्रिक सरकार अस्तित्व में आई. ऐसे में एक बड़ा सवाल ये है कि फिर दिल्ली में चुनाव क्यों करवाये जाते है ? क्यों दिल्ली के लोग वोट देते हैं ? क्यों मुख्यमंत्री चुना जाता है ? क्यों कैबिनेट का गठन होता है ? अगर सब कुछ गैर-चुने हुये उपराज्यपाल को ही करना है तो फिर ये नाटक क्यों ?
‘वी द पीपुल’ यानी आम आदमी लोकतंत्र के केंद्र में होता है. भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान बनाते समय भी वी द पीपुल को ही भारतीय संसदीय व्यवस्था के मूल में रखा. 22 जनवरी 1947 को पंडित नेहरू की अगुवाई में संविधान सभा ने जो प्रस्ताव पास किया और जो भविष्य के संविधान की नींव बना, उसका पैरा चार कहता है
“स्वतंत्र और संप्रभु भारत, इसके हिस्से और सरकार के अंग को अपने सभी अधिकार और सत्ता, जनता से मिलते हैं .” लेकिन दिल्ली में उल्टी गंगा बहाई जा रही है. यहां चुनाव तो हुए लेकिन कहा ये जा रहा है कि अधिकार और सत्ता चुने मुख्यमंत्री के पास न हो कर उपराज्यपाल के पास रहेंगे, जिन्होंने चुनाव नहीं लड़ा और जिनकी नियुक्ति गृह मंत्रालय ने की है. जो जनता के प्रति जबावदेह न होकर गृह मंत्रालय के प्रति जबावदेह है. चुनी हुई सरकार को जनता 5 साल के बाद बदल सकती है पर उपराज्यपाल ग्रह मंत्रालय की दया पर जब तक चाहे तब तक रह सकते हैं. ये कौन सा लोकतंत्र है ? क्या भारतीय संविधान निर्माताओं ने कभी ऐसा सोचा था ?
अब सवाल ये है कि 2015 में दिल्ली के लोगों ने जिस उम्मीद को वोट दिया था उसका क्या होगा ? उस राजनीतिक प्रयोग और आंदोलन का क्या होगा, जिसकी अगुवाई ‘आप’ और केजरीवाल ने की थी ? लोग बदलाव चाहते है, परंपरागत राजनीति की गंदगी से छुटकारा पाना चाहते हैं, ये छुटकारा ‘आप’ ही दे सकती है.
लेकिन अगर ‘आप’ की सरकार को उपराज्यपाल के अधीन कर दिया जाएगा, तो फिर क्या वो सपना कभी पूरा होगा ? एक नई सुबह का सपना. ‘आप’ को मालूम है कि व्यवस्था परिवर्तन की ये लड़ाई लंबी होगी, ढेरों बाधाएं आएंगी और पूरी कोशिश होगी इस बदलाव को असफल करने की. वो इन तकलीफों से घबराने वाली नहीं है, क्योंकि वो सत्य के साथ है. ये तो भारतीय लोकतंत्र की मजबूती का इम्तिहान है. पास फेल लोकतंत्र को होना है. इसलिए झटका ‘आप’ को नहीं ‘वी द पीपुल’ को लगा है. और सुप्रीम कोर्ट को लोकतंत्र की इस परीक्षा मे सत्य के साथ खड़ा होना होगा. उसे बदलाव को रोकने वाली ताकतों को कमजोर करना होगा. भारतीय संविधान की असली परीक्षा तो अभी होनी है.
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