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2006 में वन अधिकार कानून (FRA) के पास होने के पांच साल बाद भारत के पहले गांव को सामुदायिक वन अधिकार हासिल हुए. मेंढा लेखा नाम के उस गांव ने बांस के जंगलों के जरिए एक संपन्न स्थानीय अर्थव्यवस्था को विकसित किया. लेकिन भले ही देश सामाजिक आर्थिक संकेतकों के लिहाज से प्रगति कर रहा है, लेकिन बहुत कम आदिवासी समुदायों के पास मेंढा लेखा जैसे मौके हैं.
भले ही संविधान सभी को शिक्षा और रोजगार की गारंटी देता है, भू-अधिकार और स्वशासन के लिए सरकारी नीतियां मौजूद हैं, और परोपकारी संगठन, गैर सरकारी संगठन तमाम कोशिशें कर रहे हैं, लेकिन आदिवासी लोग, जो आबादी का लगभग 8 प्रतिशत हैं, गरीबी का शिकार हैं और अवसरों का अभाव झेल रहे हैं.
2015 की ऑक्सफैम रिपोर्ट बताती है कि कैसे आदिवासी समुदाय हाशिए पर धकेल दिए गए हैं: “उनके भूमि और वन अधिकारों का उल्लंघन होता है, जिसके कारण वे अक्सर विस्थापन या बेदखली का शिकार होते हैं; बड़े पैमाने पर दुनिया के साथ शोषक आर्थिक संबंध; और सांस्कृतिक परंपराओं का छीजना, जनजातीय समुदाय के जीवन की कड़वी, लेकिन एक आम सच्चाई है.”
हाल के दशकों में नागरिक समाज के संगठनों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसे क्षेत्रों में सेवाओं को बढ़ावा देने के लिए कार्यक्रमों की एक श्रृंखला शुरू की है. इन क्षेत्रों में गैर बराबरी की जड़ें बहुत गहरी हैं. बेशक, खास क्षेत्रों पर ध्यान देना जरूरी है, फिर भी इनके जरिए आदिवासी समुदायों को वह ताकत नहीं मिल रही, जिनके जरिए वे अपनी किस्मत खुद बदल सकें. अपने पैरों पर खड़े हो सकें.
उनकी सामूहिक महत्वाकांक्षा सिर्फ शैक्षिक और आर्थिक लाभ हासिल करना नहीं है, वे स्वायत्तता और अपनी एजेंसी चाहते हैं. चाहते हैं कि उनमें पहल करने, प्रभावी बनने और अपनी जिंदगी को खुद प्रभावित करने की क्षमता विकसित हो.
जैसा कि भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली एकता परिषद के जनरल सेक्रेटरी रमेश शर्मा कहते हैं, संविधान आदिवासियों को भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर स्वशासन के अधिकार की गारंटी देता है. तो स्वशासन उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना शिक्षा और रोजगार को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम. वह कहते हैं, "लगभग 10 करोड़ लोग अपनी आजीविका के लिए सीधे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं, और उनके लिए, उनकी आजीविका ही उनकी संस्कृति, उनकी पहचान, उनकी गरिमा-उनका सब कुछ है."
हमने एनजीओ, एकैडमिक्स और इंटरमीडियरीज से भी ऐसी ही बातें सुनीं, जिनका इंटरव्यू हमने यह बेहतर तरीके से जानने के लिए किया था कि दलित और आदिवासी समुदायों का आर्थिक और सामाजिक विकास किस प्रकार किया जा सकता है. हम अपने निष्कर्षों को पाथवेज टू ग्रेटर सोशल मोबिलिटी फॉर इंडियाज दलित एंड आदिवासी कम्यूनिटीज में दर्ज किया है.
जिन लोगों का हमने इंटरव्यू किया, उन्होंने कहा कि आदिवासी स्वशासन को सहयोग देने में सरकारी पहल धीमी है जिसकी वजह से न तो कार्रवाई होती है, और न ही अच्छे परिणाम प्राप्त होते हैं. भारतीय संसद ने पर्याप्त आदिवासी (पांचवीं अनुसूची) क्षेत्रों वाले 10 राज्यों में समुदायों के लिए ग्राम सभाओं के माध्यम से स्वशासन सुनिश्चित करने के लिए 1996 में पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, या पेसा को लागू किया था.
यानी सत्ता के केंद्रीकरण की बजाय, उसका विकेंद्रीकरण करना. जिन राज्यों ने नियम बनाए भी हैं, उनमें ग्राम सभाओं के अधिकारों को लेकर भ्रम कायम है और भागीदारिता कम है, जिसकी वजह से उनका प्रभाव सीमित है.
इसी तरह वन अधिकार कानून, जिसका मकसद वन क्षेत्रों में जनजातीय लोगों के व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों की हिफाजत करना है, उसे भी सीमित सफलता मिली है. दरअसल आदिवासी क्षेत्रों में खनिज, वन और जल संसाधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, और कॉरपोरेट्स उन्हें विकसित करने के लिए दबाव बना रहे हैं. इसी के चलते आदिवासी समुदायों और कॉरपोरेट्स के बीच संघर्ष कायम है. जनजातीय समुदायों पर एक सरकारी समिति ने 2014 की अपनी रिपोर्ट में कहा था, "कानून और नियम जो जनजातियों को सुरक्षा प्रदान करते हैं, उनमें लगातार हेरफेर किया जा रहा है और कॉरपोरेट्स के हितों को हिसाब से उन्हें तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है."
आदिवासी समुदायों को सशक्त करने के लिए जो पहल की जाए, उनके केंद्र में उनकी एजेंसी और अभिव्यक्ति को मजबूत करना होना चाहिए. अगर उनके पास उनकी एजेंसी होगी, तो वे हाशिए से निकल पाएंगे और आदिवासी नेताओं की आवाज और धारदार बनेगी. कमिटी ऑफ रिसोर्स ऑर्गेनाइजेशन कोरो की संस्थापक निदेशक सुजाता खांडेकर कहती हैं, "जब पहचान बननी शुरू होती है तो लोग खुद को लायक और काबिल महसूस करते हैं. उन्हें लगता है कि वे बदलावों का हिस्सा हैं, उन पर असर डाल सकते हैं."
अपने रिसर्च में हमें ऐसे कई संगठनों और कार्यक्रमों के बारे में जाना जो आदिवासी एजेंसी को बढ़ाने के लिए काम करते हैं. मिसाल के तौर पर, एकता परिषद सामूहिक अभिव्यक्ति और अधिकारों, हकदारियों की एजेंसी को मजबूत करती है. एकता परिषद को 15,000 गांवों के लगभग 250,000 भूमिहीन गरीबों का समर्थन मिला हुआ है. यह एक अंब्रैला संगठन के रूप में काम करता है जो एक्टिविस्ट्स, सामुदायिक नेताओं और 2,000 से अधिक संगठनों को एकजुट और लामबंद करता है. ये संगठन गरीब और भूमिहीन ग्रामीणों (जिनमें से अधिकांश दलित या आदिवासी समुदायों के सदस्य हैं) को भूमि और संसाधनों तक पहुंच प्रदान करके समानता के लिए अभियान चलाते हैं. हालांकि कानून के तहत ये लोग इन सबके हकदार हैं.
CORO एक और उदाहरण है. उसने आदिवासी समुदायों में नेतृत्व विकसित किया और एजेंसी भी. CORO का फेलोशिप कार्यक्रम आदिवासी पहचान को मजबूत करता है और फेलोज को एजेंट्स ऑफ चेंज के तौर पर काम करने में मदद करता है. प्रतिभागियों को 12 महीने और 18 महीने के ट्रेनिंग प्रोग्राम्स में से चुनना होता है. ये ट्रेनिंग प्रोग्राम्स स्वयं और समुदाय की समझ, संचार और सुविधा के मॉड्यूल्स पर आधारित होते हैं. प्रोग्राम के दौरान वे अपने संगठनों और समुदायों के साथ काम करना जारी रखते हैं और एक "लर्निंग लैब" बनाते हैं. फेलो को CORO से स्टाइपेंड भी मिलता है क्योंकि वे स्थानीय जरूरतों की पहचान करने और बदलाव के लिए समर्थन जुटाने के लिए काम करते हैं.
2008 से कोरो के फेलोशिप प्रोग्राम ने 1,300 जमीनी नेताओं को प्रशिक्षित किया है, जो अनुमानित 25 लाख लोगों तक पहुंच बना चुके हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में फेलो दो से तीन गांवों के साथ काम करते हैं, और शहरी क्षेत्रों में वे 500 घरों तक काम करते हैं, ये सभी समुदाय आधारित पहल हैं.
एकता परिषद और कोरो आदिवासी व्यक्तियों और समुदायों की आवाज और एजेंसी को मजबूत करने वाले कार्यक्रमों के सिर्फ दो उदाहरण हैं. इन कार्यक्रमों की मदद से आदिवासी समुदाय अपनी किस्मत की डोर अपने हाथ में थाम सकते हैं. इस तरह अधिक से अधिक आदिवासी लोग सामाजिक और आर्थिक मार्ग पर आगे बढ़ पाएंगे. दूसरी तरफ समाज भी आदिवासी समुदायों के मूल्यों और परंपराओं की इज्जत करना सीखेगा. खासकर जो लोग पर्यावरण और आपसी सामुदायिक सहयोग के प्रति अपने सम्मान को दर्शाते हैं.
(ऋति महापात्रा और ऋषभ तोमर दी ब्रिजस्पैन ग्रुप में काम करते हैं. यह एक ग्लोबल नॉन प्रॉफिट फर्म है जो गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करती है. यह एक ओपिनियन पीस है. इसमें व्यक्त लेखकों के अपने हैं. द क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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