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अगर आप लोगों से पूछें कि ‘रिफॉर्म’ का मतलब क्या है, तो उनमें से ज्यादातर बगल में झांकने लगेंगे. उसकी वजह यह है कि 1992 में जब से ‘रिफॉर्म’ शुरू हुए, कोई भी सरकार लोगों को इसका मतलब बताने का साहस नहीं जुटा पाई.
दरअसल, इसका अर्थ यह है कि 1960 से 1990 के दशक के दौरान सरकार ने अर्थव्यवस्था में अपना जो दखल बढ़ाया था, वह उसे प्राइवेट यानी निजी कंपनियों के लिए खाली करेगी.
जिस लोकतंत्र में 80 फीसदी लोग गरीब हों और जो सरकार से उम्मीद करते हों कि वह उन्हें गरीबी से बाहर निकालेगी, वहां ऐसी बात कहने पर चुनाव हारने का खतरा होता है. इसलिए सभी सरकारें गुपचुप तरीके से ‘रिफॉर्म’ करती रही हैं. 1992 के बाद आई हर सरकार ने धीरे-धीरे रिफॉर्म किए हैं.
एनडीए 1 ने सरकारी होटलों से पीछा छुड़ाया. एनडीए 2 यानी मौजूदा सरकार इससे एक कदम आगे बढ़कर सरकारी विमानन कंपनी एयर इंडिया के निजीकरण की बात कह रही है. इससे एक पुराना लेकिन सामान्य सवाल मन में आया कि भारत में कितनी एविएशन कंपनियों की गुंजाइश है? या यह कहें कि एक रूट कितनी एयरलाइन कंपनियों को सपोर्ट कर सकता है?
यह सवाल इसलिए मायने रखता है, क्योंकि एविएशन बिजनेस में काफी पूंजी लगानी पड़ती है. इसलिए यह हर किसी से बस की बात नहीं होती.
इकनॉमिक टर्म्स में एयरलाइन कंपनी किसी सब्जी बेचने वाले की तरह होती है, क्योंकि दोनों ऐसा सामान बेचते हैं, जिसकी कुछ समय बाद कोई कीमत नहीं रह जाती. सच तो यह है कि सब्जी बेचने वाले से ज्यादा बुरी हालत एयरलाइन की होती है. सब्जी को तो कई दिनों तक खराब होने से बचाया जा सकता है, लेकिन प्लेन के उड़ान भरते ही खाली सीट की वैल्यू शून्य हो जाती है.
एयरलाइन बिजनेस के बारे में एक और बात यह है कि इसमें निवेश करने वालों को नुकसान होने की आशंका बहुत अधिक रहती है. पिछले 50 सालों में सभी एयरलाइन कंपनियों में किए गए निवेश पर एवरेज डेकेडल रिटर्न 1.5 फीसदी के करीब रहा है.
सब्जी बेचने वाले के साथ भी ऐसा ही होता है. वो बहुत कम रिटर्न के लिए बहुत ज्यादा मेहनत करते हैं.
सबसे मुनाफे वाला मार्केट वह होता है, जहां 3-4 या शायद 5 ऐसे विक्रेता हों. एविएशन इंडस्ट्री को लेकर दुनिया यह बात पहले ही समझ चुकी है, लेकिन भारत को अभी तक यह बात समझ में नहीं आई है. इसलिए यहां कई रूट पर कई एयरलाइन कंपनियों के बीच घमासान चल रहा है.
1953 से 1993 तक भारतीय एयरलाइन इंडस्ट्री में सरकारी कंपनी का एकाधिकार था और आज यह परफेक्ट कंपीटिटिव मार्केट में बदल गया है. इसलिए सभी कंपनियां न्यूनतम किराये पर सीट ऑफर कर रही हैं. कुछ तो लागत से कम किराया मांग रही हैं. इसलिए इस सेक्टर में कंपनियों की संख्या घटानी होगी.
मेरी इस सलाह पर हो सकता है कि कंज्यूमर एक्टिविस्ट आपा खो बैठें, लेकिन उन्हें तर्क से काम लेना चाहिए, न कि भावनाओं में बहकर कोई राय बनानी चाहिए.
देश में आज जिस तरह से कोई भी सब्जी का ठेला लगा सकता है, उसी तरह से कोई भी एयरलाइन कंपनी शुरू कर सकता है. हमारे यहां एक पॉल्ट्री फार्मर और शराब कंपनी के मालिक ने एयरलाइन शुरू भी की थी. लेकिन क्या वे इसे सफलतापूर्वक चला सकते हैं?
अब तक हमने जो देखा है, उससे तो यही लगता है कि इस बिजनेस को कामयाबी के साथ चलाना बहुत मुश्किल है. उसकी वजह यह है कि हवाई जहाज, क्रू, मैनेजमेंट और वर्किंग कैपिटल भले ही आपको आसानी से मिल जाए, लेकिन मार्केट एक्सेस इतनी आसानी से नहीं मिलता. अगर आपके पास बहुत कम रूट हैं, तो इन चीजों का आप क्या करेंगे?
कुछ लोग एयर इंडिया पर कर्ज का रोना रो रहे हैं. यकीन मानिए, यह उसके मार्केट एक्सेस की वैल्यू का 10 पर्सेंट भी नहीं है. रूट के अलावा कंपनी के पास रियल एस्टेट भी है. अगर इन्हें जोड़ दिया जाए तो इसे खरीदने वाले की वास्तविक लागत और कम हो जाएगी. कई लोग एयर इंडिया की कॉस्ट की वजह से शायद इस पर यकीन न करें, लेकिन सही बिजनेस और प्राइसिंग स्ट्रैटेजी से कंपनी की लागत काफी कम हो सकती है.
हालांकि यह तभी संभव है, जब सरकार कंपनी में बिल्कुल भी हिस्सेदारी न रखे. इसका कोई तुक भी नहीं है. अगर वह नेताओं को मुफ्त में यात्रा कराने के लिए कंपनी में छोटी हिस्सेदारी रखना चाहती है, तो इसके बजाय लोकसभा अध्यक्ष का उनके लिए 10,000 टिकट रिजर्व रखने के लिए कहना काफी होगा. ये टिकट किन नेताओं को दिए जाने हैं, इसका फैसला लोकसभा अध्यक्ष पर छोड़ देना चाहिए.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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