advertisement
हाल के दिनों में देश में हुए उपचुनाव के नतीजों से राजनीति का एक नया अध्याय शुरू हुआ है. इस अध्याय के नायक हैं समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव और राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी हैं.
इन तीनों ने उपचुनाव में न केवल अपनी सीटें बचाई हैं, बल्कि बीजेपी से तीन संसदीय और दो विधानसभा सीटें छीन ली हैं. ताजा उपचुनाव में कैराना लोकसभा सीट पर जिस तरह अखिलेश यादव की अगुवाई में जयंत चौधरी ने बीजेपी को मात दी है, वह गौर करने लायक है. बिहार विधानसभा की जोकीहाट सीट पर तेजस्वी ने सत्ताधारी जेडीयू का तिलिस्म तोड़कर एक बार फिर से आरजेडी का परचम लहरा दिया है.
सबसे पहले बात अखिलेश यादव की, जो जयंत और तेजस्वी की तुलना में ज्यादा अनुभवी हैं. 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की बड़ी जीत के बाद मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश की कमान बेटे अखिलेश यादव के हाथ में सौंप दी थी. अखिलेश को 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा और 2017 में प्रदेश का राज भी उनके हाथ से निकल गया.
सबसे अधिक चौंकाने वाली जीत गोरखपुर की रही. यह सीट सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के इस्तीफा देने की वजह से खाली हुई थी. ये दक्षिणपंथी राजनीति का एक मजबूत किला है. मगर अखिलेश ने जिस सूझ-बूझ से बीजेपी को उसके गढ़ में घुस कर मात दी, उसने उनका कद प्रदेश और देश की राजनीति में बढ़ा दिया है.
कैराना सियासतदान अखिलेश के विस्तार का अगला पड़ाव है. तबस्सुम हसन समाजवादी पार्टी की नेता थीं. लेकिन अखिलेश ने जयंत चौधरी से बात करके उन्हें आरएलडी के टिकट पर मैदान में उतारा. मकसद साफ था कि अगर जयंत चौधरी की कोशिशों से जाटों ने एक मुसलमान महिला को अपने प्रतिनिधि के तौर पर स्वीकार कर लिया, तो इससे पश्चिमी यूपी में 2013 से पहले की स्थिति बहाल करने में कामयाबी मिलेगी.
2013 के हिंदू-मुस्लिम दंगों ने जाटों और मुसलमानों के बीच गहरी खाई पैदा कर दी थी. ऐसे में अगर यह खाई भरती है और 2013 से पूर्व पहले की स्थिति बहाल होती है, तो इसका सीधा फायदा गैर-बीजेपी गठबंधन को मिलेगा. वही हुआ भी. उप चुनाव में कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा, दोनों जगह बीजेपी को करारी हार मिली. अब अगर तबस्सुम ने बतौर प्रतिनिधि जाटों से सीधा संवाद स्थापित कर लिया, तो इसका असर 2019 के चुनाव में दिखेगा. कुल मिलाकर कैराना और नूरपुर के नतीजों ने अखिलेश यादव को सूबे में और देश में एक ताकतवर और चतुर नेता के तौर पर स्थापित कर दिया.
लालू प्रसाद के जेल जाने के बाद लोगों को यह लग रहा था कि आरजेडी का अस्तित्व खतरे में है. लेकिन उनके छोटे बेटे तेजस्वी ने जिस तरह बड़ी जिम्मेदारी संभाली है, उसने सभी विरोधियों को गलत साबित कर दिया है. तेजस्वी ने जेडीयू और नीतीश कुमार को ये संदेश भी दिया है कि आने वाला समय उनके लिए मुश्किल भरा हो सकता है.
पिछले उपचुनाव में तेजस्वी ने यह बताया कि वो अपनी सीट बचाना जानते हैं. जोकीहाट के उपचुनाव में उन्होंने यह साबित किया कि वो दूसरों की सीट छीनना भी जानते हैं. मतलब वह सियासत में एक कदम और आगे बढ़ गए हैं.
जयंत चौधरी तीसरी पीढ़ी के नेता हैं. उनके दादा चौधरी चरण सिंह देश के प्रधानमंत्री थे. देश की सियासत में चौधरी चरण सिंह के बेटे और जयंत सिंह के पिता चौधरी अजित सिंह की भी अपनी पहचान रही है. उसी कड़ी में जयंत अपने पुरखों की विरासत संभालने की कोशिश में बरसों से जुटे हैं. लेकिन उनके हाथ अब तक ऐसी कोई कामयाबी नहीं लग रही थी, जो उन्हें बड़ी लीग में शामिल करा सके.
कैराना में तबस्सुम हसन की जीत ने यह काम कर दिया है. 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद 2014 के आम चुनाव में जयंत की पार्टी आरएलडी का सूपड़ा साफ हो गया था. कैराना में तो उनकी पार्टी की जमानत जब्त हो गई थी. अब उसी कैराना में जयंत चौधरी और अखिलेश यादव की जोड़ी ने पासा पलट दिया है.
हालांकि इस जीत से अखिलेश यादव का कद ज्यादा बढ़ा है, लेकिन इसने जयंत चौधरी को भी पश्चिमी यूपी के एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर स्थापित कर दिया है. इसने वो जमीन तैयार की है, जिस पर अगर जयंत ने अपने कदम ठीक से आगे बढ़ाए, तो 2019 के आम चुनाव में वो एक बड़ी भूमिका में नजर आ सकते हैं.
उपचुनाव से अखिलेश, तेजस्वी और जयंत ने अपना कद तो बढ़ा लिया है, लेकिन 2019 की चुनौती बड़ी है. अखिलेश और जयंत के जिम्मे उत्तर प्रदेश है और तेजस्वी के जिम्मे बिहार. यूपी में अखिलेश और जयंत को मिली जीत की एक सूत्रधार बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती हैं. मायावती ने कहा है कि अगर सम्मानजनक समझौता नहीं हुआ, तो वह अपने दम पर चुनाव लड़ सकती हैं. मतलब मायावती को बड़ा हिस्सा चाहिए और बिना मायावती यूपी में बीजेपी को हराना बड़ा मुश्किल काम होगा.
इन तीनों में भी असली आजमाइश अखिलेश की होनी है, क्योंकि वे इनमें एक कदम आगे हैं. सियासत में जो एक कदम आगे होता है, उसकी आजमाइश ज्यादा कठिन होती है. अखिलेश का सामना न केवल ताकतवर विरोधी बीजेपी से है, बल्कि सयानी सहयोगी मायावती से भी है. मायावती हाथ मिलाकर सामने वाले की सारी ताकत निचोड़ लेने की क्षमता रखती हैं. मजबूत विरोधी से लड़ना एक बात है और मजबूत सहयोगी से खुद को बचाना दूसरी बात है. सियासत का यही वो गुर है, जो अखिलेश को सीखना है.
अगर अखिलेश ऐसा कर सके, खुद को बचाए रखते हुए यूपी में गैर बीजेपी दलों का मजबूत गठबंधन तैयार कर सके, तो मुमकिन है कि वे सभी मिलकर नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोक दें.
ये भी पढ़ें- कैराना ने BJP का भ्रम तोड़ा, 2019 चुनाव के लिए भी मुश्किल बढ़ी
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined