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गोरखपुर-फूलपुर-कैराना लैब टेस्ट से जिस महागठबंधन का जन्म उत्तर प्रदेश में 2019 के आम चुनाव के लिए हुआ है, उसके प्रयोगधर्मी पुरुष अगर कोई हैं, तो वो हैं अखिलेश यादव. राजनीति और चुनाव की प्रयोगशाला में इनके नाम कई प्रयोग हैं. इसकी असफलताएं भी उनके हिस्से हैं और सफलता की उम्मीद भी उनके साथ है.
यूपी की सियासत का एक ध्रुव बनकर अखिलेश पूरे देश में एक-दूसरे से जुड़ी सियासत की लड़ी तैयार करने का संदेश दे रहे हैं.
एसपी-बीएसपी कुनबे में जयंत चौधरी ने तीन सीटों के साथ अगर एंट्री की है, तो इसका पूरा श्रेय अखिलेश यादव को जाता है, जिन्होंने अपने हिस्से की भी एक और सीट आरएलडी के नाम कर दी. अब मुजफ्फरनगर, बागपत और मथुरा की सीटों पर आरएलडी चुनाव लड़ेगी, जो सीटें फिलहाल बीजेपी के पास हैं. इसे इस रूप में भीकह सकते हैं कि तीन सीटें ‘कैराना’ बनने-बनाने को तैयार हो रही हैं.
2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जब अखिलेश ने राहुल गांधी का हाथ थामा, तब राहुल और उनकी पार्टी कांग्रेस भारतीय राजनीति में अपने लिए अछूत की स्थिति का सामना कर रहे थे और दिल्ली की सत्ता से बेदखल हो चुके थे.
हालांकि नतीजा अच्छा नहीं रहा. जिस समाजवादी पार्टी के खाते में 2012 में 224 सीटें थीं, वह 2017 में 47 सीटों पर आ गई्. कांग्रेस के पास 2012 में 28 सीटें थीं, जो अब सिमटकर 7 पर पहुंच गई. पिता मुलायम की नाराजगी के बावजूद अखिलेश ने तब जो ‘आत्मघाती’ तालमेल किया था, वह अनुभव भी अखिलेश को महागठबंधन बनाने में काम आ रहा है.
अखिलेश यादव लगातार यह साबित करने की कोशिश करते दिख रहे हैं कि त्याग और कुर्बानी के बगैर कोई गठबंधन खड़ा नहीं हो सकता. खासकर वे कांग्रेस को ये सबक देते दिख रहे हैं जो ‘अलग राह’ में अपना फायदा देखने में जुटी है. इस ‘अलग राह’ से अगर कांग्रेस ‘गुमराह’ हो जाती है, तो इसका फायदा यूपी ही नहीं, देशभर में बीजेपी को होगा.
आश्चर्य की बात ये है कि अखिलेश यादव अभी और कुर्बानी देने के मूड में हैं. वे खुलकर कह रहे हैं कि कांग्रेस भी महागठबंधन में शामिल है. इसका एक मतलब यह हुआ कि अगर कांग्रेस अलग होकर भी लड़ती है, तो बस चंद सीटों के लिए वह ऐसा करेगी. इसका दूसरा मतलब है कि महागठबंधन अभी लॉक नहीं हुआ है. बातचीत चल रही है. कांग्रेस के लिए संख्या 2 से 10 भी हो सकती है और इसमें कुछ ऊंच-नीच भी हो सकता है.
कांग्रेस के लिए एक और कुर्बानी को तैयार अखिलेश यादव ने एसपी-बीएसपी गठबंधन में भी अपने लिए कठिन राह चुन रखी है. जिन 37 सीटों पर समाजवादी पार्टी चुनाव लड़ेगी, उनमें 11 ऐसी हैं जहां कभी उसने जीत हासिल नहीं की है. इसका मतलब ये हुआ कि कहने को 37 सीटें हैं, वास्तव में यह 26 हुईं. इन 11 सीटों में वाराणसी जैसी सीटें भी हैं.
मगर सोचने का यह तरीका मुलायमवादी है.
अखिलेश के फैसले को परखने के लिए नजरिया को भी अखिलेश जैसा बनाना होगा. अखिलेश ने सुनिश्चित जीत के आधार को पहचाना है. उस आधार पर सम्भावित सहयोगी दलों को उन्होंने खड़ा किया है. इससे न्यूनतम सफलता की गारंटी हो चुकी है. उदाहरण के लिए जिन 7 सुरक्षित सीटों पर समाजवादी पार्टी और 17 सीटों पर बहुजन समाज पार्टी चुनाव लड़ने जा रही है, वहां एसपी-बीएसपी गठबंधन के रहते किसी और दल के लिए जीतना टेढ़ी खीर होगा.
यह अखिलेश की अखिल भारतीय सोच ही है कि वह इन सीटों में से भी कांग्रेस के लिए एक-दो सीट निकालने को तैयार हो जा सकते हैं. बहराइच (सुरक्षित) सीट की सांसद साध्वी सावित्रीबाई फुले कांग्रेस में शामिल हो चुकी हैं. बाराबंकी (सुरक्षित) सीट भी पीएल पुनिया के लिए छोड़ने को अखिलेश तैयार हो सकते हैं.
इन कुर्बानियों की बुनियाद पर अखिलेश 2019 के आम चुनाव में यूपी के साथ-साथ देश की सियासत को मनोनकूल तरीके से प्रभावित करने की स्थिति में आने जा रहे हैं. वाराणसी, बरेली, गाजियाबाद, पीलीभीत, लखनऊ, कानपुर, कुशीनगर, चंदौली, इलाहाबाद, मिर्जापुर के अलावा गोरखपुर, फूलपुर और कैराना जैसी सीटों पर जीत दर्ज करना अकेले समाजवादी पार्टी के लिए मुश्किल है, यह सच है.
मगर अखिलेश ने यह बात उपचुनाव में साबित कर दिखलायी है कि अगर महागठबंधन बना, तो उत्तर प्रदेश की किसी भी सीट को जीता जा सकता है.
अगर अखिलेश के महागठबंधन के इस नैरेटिव को कांग्रेस समझ लेती है, तो पूरे देश में फायदा कांग्रेस का होगा. कांग्रेस को दिल्ली में अरविंद केजरीवाल से भी समझौता करने का संदेश अखिलेश दे रहे हैं, तो बंगाल में ममता बनर्जी से भी. मान लिया जाए कि कांग्रेस ऐसा नहीं समझ पाती है, तब भी अगर अखिलेश यादव ने एसपी-बीएसपी-आरएलडी के गठबंधन से ही बीजेपी के विजय रथ को काबू में कर लिया, तो असली नेता वही माने जाएंगे.
कैराना, मुरादाबाद, रामपुर, संभल, गाजियाबाद, हाथरस (सुरक्षित), फिरोजाबाद, मैनपुरी, एटा, बदायूं, बरेली, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, हरदोई (सुरक्षित), उन्नाव, लखनऊ, कन्नौज, झांसी, बांदा, कौशाम्बी, फूलपुर, इलाहाबाद, बाराबंकी (सुरक्षित), फैजाबाद, बहराइच (सुरक्षित), गोंडा, महाराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर, आजमगढ़, बलिया, चंदौली, वाराणसी, मिर्जापुर और रॉबर्ट्सगंज (सुरक्षित).
अखिलेश के शुभचिन्तक दो तरह के हैं. एक मुलायमवादी हैं, जो इसलिए कठोर हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि अखिलेश के भोलेपन का फायदा उठाया जा रहा है. या यूं कहें कि अखिलेश ठगे जा रहे हैं. दूसरे शुभचिंतक वे लोग हैं, जो अखिलेश की सियासी चाल को वक्त के मुताबिक और कुर्बानी देते हुए वक्त को अपने अनुकूल बनाने वाला मान रहे हैं. ये तो वक्त ही बताएगा कि कौन शुभचिन्तक यथार्थ के अधिक करीब है.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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Published: 06 Mar 2019,09:24 PM IST