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अंग्रेजों की बनाई ऑल इंडिया सर्विस की परिभाषा को बदलना है जरूरी

आजादी के बाद जब मौका आया सिस्टम को बदलने का तो थोड़ी सी बहस के बाद सिस्टम को कायम रखने का फैसला लिया गया

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
आईएएस अधिकारियों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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आईएएस अधिकारियों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
(फाइल फोटोः ट्विटर)

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ब्यूरोक्रेसी की सीरीज पर यह मेरा तीसरा लेख है. पहले में मैंने ये बताया था कि क्यों मैं अपने आप को इस विषय पर लिखने के काबिल समझता हूं. दूसरे में मैंने लिखा था कि देश का सबसे मुश्किल और जटिल काम है- डिस्ट्रिक्ट मैनेजमेंट- वह सर्विस के सब से जूनियर ऑफिसर करते हैं. इसलिए मोदीजी को इस प्रणाली को बदलना चाहिए, ताकि कोई अधिकारी 15 या 20 साल की सेवा के पहले कलेक्टर या एसपी नहीं बने.

मैंने ये भी कहा था कि पॉलिसी बनाने का काम कम उम्र के अधिकारियों को सौंपना चाहिए. इससे पुराने ख्यालात, जो हर नए आइडिया पर रोक लगाते हैं, वो काफी कम हो जाएंगे. अगर मोदीजी ऐसा करते हैं तो एक बहुत बड़ा सांस्थानिक बदलाव होगा.

आईएएस कैडर के अधिकारी इस बात का जमकर विरोध करेंगे, क्योंकि जिलों में उपलब्धियां काफी कम होती है. लेकिन देश में हर बात का विरोध स्वाभाविक बन गया है. इसलिए इस मामले पर कम से कम सोच-विचारकर शुरुआत करनी चाहिए.

दूसरी तरफ, ये मामला राज्यों के अंदर आता है. इसलिए केंद्र सरकार को उन्हें राजी करना होगा कि इसी में उनकी भलाई है. इसके लिए एक लंबी बहस की जरूरत है. 21वीं सदी तो अभी शुरू ही हुई है. अगर अगले 10 साल में ये मामला सुलझ जाए तो ये बहुत बड़ी जीत होगी.
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बदलाव की है जरूरत

संक्षेप में कहा जाए तो हमें ऑल इंडिया सर्विस की जो फिलहाल परिभाषा है उसे बदलना पड़ेगा. जो अभी सिस्टम है जहां केंद्र सरकार आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को नियुक्त करती है और उन्हें फिर विभिन्न राज्यों में भेजती है, ये अब कोई मायने नहीं रखता.

देखा जाए तो हर राज्य में जो अधिकारी राज्य सेवा से आईएएस/आईपीएस में प्रमोट हुए हैं उनकी संख्या करीब 40 फीसदी है. ये अधिकारी केंद्र सरकार में शायद ही कभी आते हैं. जो बाकी सीधे नियुक्त अधिकारी बचते हैं, उनमें से 10 से 15 फीसदी राज्यों के बाहर काम करते हैं. जो बचे 40-50 फीसदी हैं, उनमें से ज्यादातर अधिकारी औसत या उससे भी कम काबिलियत के होते हैं. बस नाम के आगे आईएएस/आईपीएस लगा के रौब जमाते हैं. इसलिए जो पुरानी मान्यताएं थी ऑल इंडिया सर्विस की, वो अब नहीं रहीं. इसे किस तरह बदला जाए उस पर हमें गौर करना पड़ेगा.

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अंग्रेज गए, प्रणाली छोड़ गए

आईसीएस और आईपी की जो खासियत थी, वो ये थी कि उनकी नियुक्ति और उनका नियंत्रण अंग्रेज वायसराय के हाथ में था. 1919 में जब डायार्की (द्वैध शासन) आई तब गोरे अधिकारियों ने वायसराय से कहा कि वो भारतीयों के नीचे काम करना पसंद नहीं करेंगे, इसी वजह से इन दोनों सेवाओं को वायसराय की निगरानी में रखा गया.

आजादी के बाद जब मौका आया सिस्टम को बदलने का तो संविधान सभा में थोड़ी सी बहस के बाद सिस्टम को कायम रखने का फैसला किया गया. अब समय के साथ सब कुछ बदल गया है. फिर भी वही सिस्टम चला आ रहा है, इसका असर काफी प्रतिकूल रहा है.

करीब 25 फीसदी अधिकारी निजी कारणों से केंद्र में आने की कोशिश में लगे रहते हैं. जैसे बीवी की नौकरी और बच्चों की पढ़ाई. बाकी जो केंद्र के लायक नहीं माने जाते, वो टाइम पास में लग जाते हैं, इस पोस्टिंग से उस पोस्टिंग में. पर सबका लक्ष्य या तो राजधानी में या किसी बड़े शहर में रहने का होता है, जहां अस्पताल, स्कूल, क्लब आदि होते हैं.

ये एक बहुत बड़ा कारण है जिसकी वजह से जिलों का इतना बुरा हाल है. अंग्रेजों के समय में ऐसा नहीं होता था. सालों तक गोरे ऑफिसर अपने परिवारों से दूर रहते थे. ठीक उसी तरह जैसे सेना के अधिकारी आज के समय में रहते हैं.

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गुजरात में मोदी जी ने काफी हद तक ये आदतें बदली थी. यही अब उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर करना पड़ेगा. कुछ नहीं तो ये बहस शुरू तो करनी ही होगी.

इंडियन पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस की हो शुरुआत

मेरा एक साधारण सुझाव हैः जैसे ही अधिकारी मसूरी की ट्रेनिंग खत्म करते हैं, उसके बाद फिर से उनकी एक परीक्षा लेनी चाहिए. इससे जो टॉप 25 फीसदी अधिकारी निकलें, उन्हें ही केंद्र की सेवा में भर्ती करनी चाहिए. इस सेवा का नाम इंडियन पॉलिसी मैनेजमेंट सर्विस होना चाहिए. चौंकिए मत, 1953 में नेहरु जी ने पब्लिक सेक्टर को मैनेज करने के लिए ठीक ऐसी ही एक सर्विस बनाई थी.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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