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अमरनाथ यात्रियों पर सोमवार की रात के हमले के बाद कश्मीर में दो तरह के रिएक्शन दिखे. घटना के तुरंत बाद चारों तरफ हैरानी, गुस्सा और दहशत का माहौल था. कश्मीरियों के चेहरे पर इसे पढ़ा जा सकता था.
कइयों के चेहरे पीले पड़ गए थे, तो कुछ की आंखें नम थीं. लोग रुंधे हुए गले से बात कर रहे थे. उनकी दबी आवाज से इसका पता चल रहा था.
हालांकि, कुछ ही घंटे बाद कुछ लोगों ने ‘इसे भारतीय एजेंसियों की करतूत’ बताना शुरू कर दिया. कश्मीर में अभी जैसे हालात हैं, उसमें यह ट्रेंड लगातार बढ़ रहा है. यहां जो लोग लोकतंत्र के हिमायती, महिला अधिकारों और आधुनिकता के समर्थक हैं, वे भी ऐसी बातें करने लगे हैं. उन्होंने हमले के बाद इसे ‘पार्टी लाइन’ मान लिया था.
कश्मीर हिंसा की जिस दलदल में फंसा है, उसकी एक वजह इस तरह की ‘पार्टी लाइन’ है. इसमें एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहता है. यहां तक कि जो ऐतिहासिक घटनाएं आंखों के सामने हुई हों, उनके भी अलग-अलग वर्जन पेश किए जाते हैं. हैरानी की बात यह है कि ज्यादातर कश्मीरी इस तरह की गलतबयानी को चुनौती नहीं दे रहे हैं.
इसलिए अमरनाथ यात्रियों पर हमले के कुछ ही घंटों बाद कुछ निचले वर्ग के सरकारी कर्मचारियों को यह कहते हुए सुना गया कि इसके पीछे भारतीय खुफिया एजेंसियों का हाथ हो सकता है. इसकी गढ़ी हुई वजहें भी बताई गईं. इनमें कहा गया कि गुजराती लोगों को निशाना बनाया गया. बस की सुरक्षा व्यवस्था नहीं की गई थी. हालांकि, इसके पीछे कट्टरपंथी आतंकवादियों का हाथ हो सकता है, यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है.
फर्जी झंडे वाली थ्योरी में माना गया है कि अमरनाथ यात्रियों पर हमले से बीजेपी को चुनावी फायदा होगा. हालांकि, अगर बीजेपी ने इसका दोष राज्य सरकार पर मढ़ा होता और इसका राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश की होती, तो इसे सच माना जा सकता था.
मुझे लगता है कि बीजेपी समर्थक पहले ही मान चुके हैं कि मुस्लिम और खासतौर पर कश्मीरी राष्ट्रविरोधी हैं और हिंदुओं के प्रति दुश्मनी की भावना रखते हैं. वे बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से कश्मीरियों के दमन की उम्मीद रखते हैं.
पार्टी के ये समर्थक कहेंगे कि बीजेपी सरकार ने आतंकवादियों से यात्रियों की सुरक्षा के पर्याप्त इंतजाम नहीं किए थे. हमले के बाद केंद्र और राज्य सरकार के शीर्ष नेतृत्व की प्रतिक्रिया से यह बात सच साबित होती लग रही है.
मुझे इसमें शक नहीं कि दुनियाभर में राजनीतिक पार्टियां और खुफिया एजेंसियां दंगे और आतंकवादी हमले करवाती हैं और उपद्रवियों और आतंकी संगठनों की फंडिंग करती हैं. हालांकि, मैंने यह भी देखा है कि कश्मीरी युवाओं के दिमाग में कट्टरपंथी विचार घर कर गए हैं. मैं गलत साबित हो सकता हूं, लेकिन हमले के तुरंत बाद मुझे लगा कि इससे केंद्र और राज्य सरकार कमजोर होगी.
जेएनयू मामले में मुंह की खाने के 17 महीने बाद भी उदार सोच रखने वालों ने कोई सबक नहीं सीखा है. इस तरह के हमले के पहले दिन बेसिर-पैर की बात करने से सरकार के लिए ऐसे लोगों को राष्ट्रविरोधी बताना आसान हो जाता है. यह ट्रेंड कुछ साल से दिख रहा है.
जिन छात्र नेताओं ने जेएनयू आंदोलन किया था, वे कुछ लोगों के लिए तो हीरो बन गए, लेकिन आलोचकों के लिए वे घृणा के प्रतीक हैं. ऐसे लोगों को केंद्र में रखकर आलोचक देश-दुनिया के लिए एक सोच को बढ़ावा देते हैं.
अफसोस है कि देश के बुद्धिजीवी इसे देख नहीं पाए कि उन्हें किस तरह से एक सांचे में कैद कर दिया गया. उन्हें एक तरह से ‘अछूत’ बना दिया गया है और ऐसी बहस में उनकी भूमिका न के बराबर रह गई है, जिसका देश की बड़ी आबादी पर असर पड़े.
दुनिया भर में आज संकीर्ण सोच और ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिल रहा है. ऐसे में हमें विमर्श के नए तरीके पर विचार करना होगा. अभी हम जिस दलदल में फंसे हैं, उससे तो ध्रुवीकरण को ही बढ़ावा मिल रहा है.
(लेखक जाने-माने जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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