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जब मैंने पहली बार सात अमरनाथ यात्रियों की हत्या के बारे में सुना, तो सबसे पहले सोचा कि इसकी निंदा करूं और इससे प्रभावित हुए लोगों के लिए संवेदना व्यक्त करूं. बहुत सी और भी ऐसी आवाजें गम और गुस्सा जाहिर करते हुए सुरक्षा इंतजामों पर सवाल उठा रही थीं.
कुछ ने सरकार पर आतंकी हमले का इंटेलिजेंस इनपुट होने के बाद भी लापरवाही बरतने का आरोप लगाया. सरकार ने अपनी तरफ से हत्यारों से निपटने का संकल्प दोहराया. जाहिर है, यह सर्वोच्च प्राथमिकता है. सरकार को प्रशासनिक या सुरक्षा प्रबंध में चूक की जरूर जांच करानी चाहिए, जिसके चलते यह हमला हुआ.
लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं हो जाता. जैसा कि हमेशा होता है, कश्मीर का मामला हो, तो हमारे सामने यह सवाल भी होता है कि हम हिंसा को कैसे कम कर सकते हैं और अमन के करीब जा सकते हैं. इस सवाल को समझने के लिए, कुछ पुरानी बातें याद करना जरूरी है.
अगस्त 2000 में पहलगाम में अमरनाथ यात्रियों पर एक अन्य आतंकवादी हमले में 25 लोग, जिनमें से ज्यादातर तीर्थयात्री और कुछ स्थानीय लोग थे, मारे गए थे. उस समय भी हमने ऐसा ही निंदा, गुस्से और आतंकवाद को जीतने नहीं देने का प्रण लिया जाता देखा था.
कुछ मायनों में देखें, तो साल 2000 में सुरक्षा हालात मौजूदा दौर से भी ज्यादा बुरे थे. एक अंदाजे के मुताबिक, उन दिनों कश्मीर में करीब 2500 आतंकवादी सक्रिय थे.
उत्तरी कमान के पूर्व सेनाध्यक्ष लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुडा कहते हैं, “आज आतंकवाद बहुत मामूली मुद्दा है, क्योंकि मुट्ठी भर आतंकवादी ही घाटी में सक्रिय हैं और सेना इनसे अपने तरीके से खुद निपट सकती है.” अगर ऐसा है तो हमले का बारीकी से किया गया विश्लेषण ज्यादा उचित प्रतिक्रिया तय करने में मददगार होगा.
इस हालिया नरसंहार पर गुस्सा पूरी तरह स्वाभाविक है, लेकिन हमें अपने दिमाग पर नियंत्रण नहीं खोना चाहिए. ऐसे हमलों के पीछे विचार ऐसी प्रतिक्रिया पैदा करने का होता है, जो कश्मीर में स्थिति को और खराब कर दे. यह वैसा ही है, जैसा कि ISIS ने यूरोपियन यूनियन के शहरों में किया.
ISIS के सरगना जानते हैं कि उनका यूरोप या अमेरिका से कोई मुकाबला नहीं है, लेकिन उनकी कारगुजारियों से अगर मुसलमानों के खिलाफ प्रतिक्रिया पैदा होती है, तो यह उनकी जीत होगी.
दुख की बात है कि, कुछ लोग इस झांसे में आ भी गए हैं और कश्मीरियों से और कड़े तरीकों से निपटने की आवाज बुलंद कर रहे हैं, जिसमें प्रदर्शनकारियों से पैलेट गन की जगह गोली से निपटने की मांग शामिल है. इस हमले पर केंद्रित टीवी प्रोग्राम दिखाए जा रहे हैं, लेकिन मुझे डर है कि यह प्रोग्राम दिशा भटक कर गाली-गलौज का मुकाबला बन कर रह जाएंगे, जिसमें निशाने पर कश्मीरी होंगे.
आशंका यह भी है कि देश में दूसरी जगहों पर रह रहे कश्मीरियों से बदला लिया जा सकता है. अगर इनमें से कोई भी बात होती है तो जिन्होंने निहत्थे तीर्थयात्रियों पर गोली चलाई है, यह उनकी बड़ी जीत होगी.
इस हमले का सबसे सही जवाब उसका उलटा कदम हो सकता है, जो उग्रवादी चाहते हैं. हमें उन उपायों और नीतियों पर आगे बढ़ना चाहिए जो उग्रवादियों को अलग-थलग करते हों. यह तब तक मुमकिन नहीं होगा, जब तक हर कश्मीरी को अतिवादी, जेहादी या आतंकवादी समझा जाएगा.
अगर मोदी सरकार चीन पर मीडिया के रुख को नियंत्रित कर सकती है, तो यह इस पर भी नियंत्रण कर सकती है कि कश्मीरियों को किस तरह पेश किया जाए.
दूसरी बात, राजनीतिक साझीदारी अतिवादियों को अलग-थलग करने में काफी कारआमद है. जनरल हुडा सुझाव देते हैं, “घाटी के युवाओं में पनपते असंतोष को शांत करने के लिए बड़ी सोच और समझदारी भरी राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की जरूरत है.”
कश्मीर का गहरा अनुभव रखने वाले जनरल हुडा उस राजनीतिक शून्य से वाकिफ हैं, जो अतिवादियों के लिए रास्ता खोलता है.
यह मत मान लें कि राजनीतिक साझीदारी कोई रामबाण है. यह तो एक लंबे और कठिन सफर की शुरुआत भर है. लेकिन कोई कदम न उठाने और यह उम्मीद करने कि हालात खुद-ब-खुद बदल जाएंगे, सच्चाई से मुंह चुराने जैसा है.
इससे भी बुरी बात यह है कि कुछ लोगों के जुर्म के लिए सारे कश्मीरियों को कोसना, उन्हें और विकल्पहीनता की तरफ धकेलेगा और उनके दिल-ओ-दिमाग को कठोर बनाएगा. हमें पता है कि इससे किसको फायदा होता है.
एक परिपक्व और रणनीतिक प्रतिक्रिया, जिसका मकसद वाकई कश्मीरियों का भला करना हो और हिंसक अतिवादियों को अलग-थलग करना हो, ना सिर्फ समझदारी होगी, बल्कि यह 10 जुलाई के जघन्य अपराध में मारे गए लोगों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
(पूर्व में वर्ल्ड बैंक के साथ काम कर चुके लेखक, वर्तमान में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेशनल मीडिया पैनलिस्ट हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं. उनसे @salmansoz; atworksalman@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)
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Published: 12 Jul 2017,11:45 AM IST