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अमेरिका ने दो बार लड़खड़ाने के बाद आखिरकार अपने "हार्ले डेविडसन फोबिया" (यानी प्याले में उठा ऐसा आर्थिक तूफान, जिसकी वजह थी बेहद कम इंपोर्ट वाली मशहूर अमेरिकी बाइक पर लागू वो ऊंची इंपोर्ट ड्यूटी, जिससे अमेरिकी राष्ट्रपति काफी डरते हैं) पर काबू पा लिया, जिसके बाद ही पिछले हफ्ते नई दिल्ली में भारत/अमेरिका के विदेश/रक्षा सचिवों की मुलाकात संभव हो सकी.
विश्लेषकों ने COMCASA (कम्युनिकेशंस कम्पैटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट) के पूरा होने पर खुशी जाहिर की है. ये एक ऐसा टेक्नॉलजी प्लेटफॉर्म है, जिसकी मदद से भारत और अमेरिका के हथियारों के बीच लगातार तालमेल रखा जा सकेगा, वो भी रियल टाइम में. दोनों देशों के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के बीच “2+2” हॉटलाइन भी स्थापित की जाएगी.
लेकिन दो ऐसे परेशान करने वाले घाव हैं, जो अब तक खुले पड़े हैं और नासूर बनते जा रहे हैं. रूस से S-400 एंटी-एयरक्राफ्ट मिसाइल सिस्टम खरीदने से जुड़ी अमेरिकी पाबंदी में अब तक छूट नहीं दी गई है. अमेरिका ने भारत पर ये दबाव भी बढ़ा दिया है कि वो ईरान से तेल का इंपोर्ट तेजी से घटाते हुए 4 नवंबर तक पूरी तरह बंद कर दे. अमेरिका की तरफ से घोषित इस डेडलाइन में अब 60 दिन भी नहीं बचे हैं. भारत के लिए अमेरिका की इन दोनों मांगों को स्वीकार करना लगभग असंभव है.
इन हालात में क्या अमेरिका और भारत कुछ ऐसा कर सकते हैं, जिससे दोनों देश ट्रंप के इन तौर तरीकों से होने वाले नुकसान से खुद को बचा सकें? हां, ये बिलकुल मुमकिन है. लेकिन इसके लिए दोनों ही देशों को इतिहास के वो “2+2” यानी चार सबक अपने दिल-दिमाग में अच्छी तरह बिठा लेने होंगे, जो किसी भी कूटनीतिक ढांचे से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं.
जनवरी 1962 में राष्ट्रपति कैनेडी ने प्रधानमंत्री नेहरू को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने गोवा को आजाद कराने के लिए पुर्तगाल के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल करने के भारत के कदम पर हैरानी और एतराज जाहिर किया था. लेकिन नेहरू के इस कदम की आलोचना करते हुए भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने उपनिवेशवाद के खिलाफ उनके लगातार संघर्ष की तारीफ की थी.
उन्होंने लिखा था, "कई और लोगों की तरह ही मैं भी एक ऐसे समुदाय में पला-बढ़ा, जिसके लोगों ने मुश्किल से एक पीढ़ी पहले औपनिवेशिक गुलामी से छुटकारा पाया है. और मेरी इस राय से ज्यादातर इतिहासकार भी इत्तेफाक रखते हैं कि मेरे पूर्वजों ने जिस औपनिवेशिक गुलामी का सामना किया, वो भारत की गुलामी के मुकाबले ज्यादा नुकसानदेह, दमनकारी और क्रूर थी. क्लाइव का राज, क्रॉमवेल के मुकाबले ज्यादा बर्दाश्त करने लायक था.”
जॉन एफ कैनेडी ने जिस तरह ओलिवर क्रॉमवेल और रॉबर्ट क्लाइव की तुलना की, उस पर विवाद हो सकता है, लेकिन उन्होंने ऐसा करके भारत और अमेरिका की इस बुनियादी समानता की तरफ ध्यान खींचने का काम किया कि दोनों ही देशों का जन्म ब्रिटिश राज की घुटनभरी कोख से हुआ है. भारत और अमेरिका में चाहे कितने भी आपसी मतभेद हों, लेकिन एक ही औपनिवेशिक साम्राज्य के गर्भ से निकलने के कारण दोनों के बीच सहोदर जैसे संबंध तो हमेशा बने रहेंगे.
अमेरिका के लोगों ने ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध करने के लिए चाय को समुद्र में फेंका, तो भारत ने समुद्र से नमक बनाकर अंग्रेजी राज को खारिज करने की पहल की. टाइम मैगजीन ने 1930 में गांधी को 'मैन ऑफ द इयर' घोषित करते समय उनके दांडी मार्च की तारीफ करते हुए लिखा था कि इस मार्च का मकसद "नमक पर लगाए गए ब्रिटिश टैक्स का उसी तरह विरोध करना था, जैसे कभी न्यू इंग्लैंड (यानी उत्तर पूर्वी अमेरिका) के लोगों ने चाय पर लागू ब्रिटिश टैक्स का किया था."
दोनों आंदोलनों की इस तुलना पर खुद गांधी का भी ध्यान गया था. इसके कुछ ही वक्त बाद ब्रिटिश वॉयसराय लॉर्ड इरविन के साथ चाय पीते समय गांधी ने नमक सत्याग्रह के दौरान कानून तोड़कर बनाए गए नमक की एक थैली अपने पास से निकाली और एक चुटकी नमक चाय के अपने कप में डालते हुए वॉयसराय से कहा, "ये इसलिए ताकि हमें मशहूर बॉस्टन टी पार्टी याद रहे."
(बॉस्टन टी पार्टी, अमेरिका में 1773 में हुए उस आंदोलन को कहा जाता है, जिसमें अमेरिकी लोगों ने अंग्रेजों के बनाए टी एक्ट के खिलाफ बगावत करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के जहाजों में लदी चाय बॉस्टन के समुद्र में फेंक दी थी. अमेरिकी क्रांति की शुरुआत इसी आंदोलन से मानी जाती है.)
भारत और अमेरिका के सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन में ही नहीं, राष्ट्र निर्माण के शुरुआती अनुभवों में भी काफी समानताएं हैं. ब्रिटिश राज के खत्म होने के बाद दोनों के सामने एक जैसी चुनौती थी: अलग-अलग बिखरे और कई बार विषमताओं से भरे राज्यों को मिलाकर एक संघीय गणराज्य का निर्माण कैसे किया जाए. दोनों ही देशों में एक मजबूत तबका ऐसा था, जो संघ में शामिल होने का विरोध कर रहा था, क्योंकि उसे लगता था कि एक विशाल संघीय ढांचे का हिस्सा बनने पर उनके अपने विशेष हितों की अनदेखी होगी.
बड़ी आबादी और विविधता के कारण भारत के लिए ये चुनौती ज्यादा कठिन थी. जैसा कि जोसेफ एलिस ने लिखा है, अमेरिका के राष्ट्रवादियों ने वहां के संघ विरोधियों को अपनी "चालाकी, दलीलों और आखिरकार वोटों के दम पर हरा दिया", लेकिन भारत में इन विरोधी ताकतों ने (जिनमें सबसे बड़ा हिस्सा मुस्लिमों का था) देश का बंटवारा करा दिया.
आजाद भारत को अपने जन्म के समय कुछ ऐसे बुद्धिमान और सिद्धांतवादी नेताओं का आशीर्वाद मिला, जिन्होंने साहस और दूरदर्शिता के साथ देश को दिशा दी और आगे बढ़ाया. भारत से करीब 150 साल पहले अमेरिका में भी ठीक ऐसा ही हुआ था. गांधी में कुछ हद तक एक अहिंसक जॉर्ज वॉशिंगटन की झलक देखी जा सकती है. वो इस देश के ऐसे दूरदर्शी राष्ट्रपिता थे, जिन्होंने न सिर्फ अंग्रेजों को यहां से भगाने के लिए, बल्कि उसके बाद देश में अमन और भाईचारा कायम करने के लिए भी बिना थके काम किया. (ये महज संयोग नहीं है कि दोनों ही नेताओं की तस्वीरें अपने-अपने देश की करेंसी पर प्रमुखता से नजर आती हैं).
अमेरिकी लेखक वॉल्टर लिपमैन ने भारत को, खास तौर पर उसकी रक्षात्मक और तटस्थ विदेश नीति के मद्देनजर एक "युवा अमेरिका" बताया था. उन्होंने ये भी लिखा था कि अगर "नेहरू को जेफरसन, (सरदार) पटेल को हैमिल्टन और (विदेश मंत्री गिरिराज) बाजपेयी को नए भारतीय गणराज्य का जॉन क्विंसी एडम्स कहा जाए, तो बहुत गलत नहीं होगा."
9 दिसंबर 1946 को जब भारत का संविधान बनाने के लिए देश की पहली संविधान सभा की बैठक बुलाई गई, तो सभा के अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा ने वहां मौजूद 200 से ज्यादा प्रतिनिधियों से कहा कि वो सबसे पहले अमेरिकी संविधान को ध्यान से पढ़ें. अमेरिकी संविधान का ड्राफ्ट 1787 में बना था, जिसे तब पेरिस में रह रहे थॉमस जेफरसन ने "देवताओं की सभा" में तैयार संविधान कहा था. सिन्हा का कहना था कि ये "किसी गणराज्य के लिए दुनिया का सबसे सटीक, व्यावहारिक और अमल करने लायक संविधान है." उन्होंने ये भी ध्यान दिलाया कि फ्रांस, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे गणराज्यों के संविधान भी अमेरिकी संविधान को आधार मानकर ही तैयार किए गए हैं.
सच में ऐस ही हुआ. भारतीय संविधान ने किसी भी दूसरे संविधान के मुकाबले नागरिक स्वतंत्रता पर ज्यादा जोर दिया. इसने बालिग मताधिकार के जरिये 21 साल और उससे ज्यादा उम्र के सभी पुरुषों और महिलाओं को वोट डालने का हक दिया, सेकुलर स्टेट यानी धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की, अभिव्यक्ति की आजादी दी और जातीय भेदभाव को खत्म करके करीब 6 करोड़ तथाकथित 'अछूतों' को नया जीवन दिया. हमारे संविधान ने अपने वक्त से काफी आगे की सोच को दर्शाते हुए "पुरुषों और महिलाओं को एक समान काम के लिए एक समान मेहनताना" दिए जाने की वकालत भी की.
दोनों संविधाओं में ऐसी कई और समानएं भी हैं. भारतीय संविधान के फंडामेंटल राइट्स (यानी मौलिक अधिकार)- जिसमें अस्पृश्यता खत्म करने की बात भी शामिल है. अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स की तरह ही हैं: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दोनों में दी गई है (हालांकि भारतीय संविधान में अलग से "द प्रेस" नहीं लिखा है), नागरिकों को शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने का अधिकार भी दोनों में दिया गया है.
संविधान-सम्मत न्यायिक प्रक्रिया की बात करने वाले अमेरिकी संविधान के पांचवें संशोधन की भाषा की झलक भी भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में भी देखी जा सकती है: दोनों ही प्रावधानों में किसी नागरिक को एक ही अपराध के लिए दो बार सजा दिए जाने पर रोक लगाई गई है और ये भी कहा गया है कि किसी संदिग्ध अपराधी को 'अपने ही खिलाफ गवाही देने' के लिए 'मजबूर' नहीं किया जा सकता. अमेरिकी संविधान की तरह ही भारतीय संविधान में भी कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे. राष्ट्रपति पद के लिए कम से कम 35 साल और सांसद के लिए कम से कम 25 साल की उम्र की सीमा भी दोनों ही देशों के संविधानों में एक जैसी है.
अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर के कार्यकाल में विदेश मंत्री रहे जॉन फॉस्टर डल्स कम्युनिज्म के कट्टर विरोधी थे, जो भारत की तटस्थता की नीति से इतना चिढ़ते थे कि एक बार उसे "अनैतिक" भी कह दिया था. वो कम्युनिज्म को पश्चिम ओर फैलने से हर हाल में रोकना चाहते थे और अपनी इस कोशिश में पाकिस्तान को एक अहम सहयोगी मानते थे.
दक्षिण एशिया की एक यात्रा के दौरान डल्स ने कराची में अपने गर्मजोशी भरे स्वागत की तारीफ करते हुए उसे "सच्ची दोस्ती का एहसास" बताया था, जबकि नेहरू के व्यवहार में उन्हें उदासीनता दिखाई देती थी. टर्की से भेजे गए तार में उन्होंने लिखा था, "पाकिस्तान एक ऐसा देश है, जिसमें कम्युनिज्म के खिलाफ अपनी भूमिका निभाने का नैतिक साहस है." पाकिस्तान को अपनी विदेश नीति का अहम हिस्सा मानने की ये अमेरिकी सोच 21वीं सदी तक जारी रही. इसमें बदलाव तभी आया जब ओसामा बिन लादेन को शरण देने और 9/11 के हमले की साजिश जैसे मामलों में अमेरिका को पाकिस्तान की गद्दारी का पता चला.
अमेरिका ने 1954 में जब PL-480 कार्यक्रम शुरू किया था, तो भारत ने 10 लाख टन अनाज इंपोर्ट किया था. दस साल बाद ये इंपोर्ट बढ़कर 55 लाख टन हो चुका था. इस बढ़ते इंपोर्ट में देश की बढ़ती आबादी का कुछ ही योगदान था. उस साल भारत में भयानक अकाल के कारण अनाज का उत्पादन 89 लाख टन से घटकर 72 लाख टन रह गया था. लेकिन जॉनसन ने किस्तों में अनाज भेजने की नीति अपनाई जो "शॉर्ट टेदर" यानी "छोटी रस्सी" की नीति के नाम से मशहूर है.
इस नीति के तहत अमेरिकी सरकार भारत को एक खेप में सिर्फ दो महीने की जरूरत का अनाज भेजती थी, जिसे बाद में घटाकर एक महीने कर दिया गया था. अमेरिका मानवता के नाम पर भारत की मदद तो कर रहा था, लेकिन साथ ही वो इसका इस्तेमाल भारत सरकार की नाकाम कृषि नीति में तब्दीली लाने का दबाव बनाने के लिए भी कर रहा था. भारत में अकाल अगले साल भी जारी रहा. लेकिन जॉ़नसन ने "शिप टू माउथ" पॉलिसी के तहत अनाज सप्लाई में और सख्ती बरतनी शुरू कर दी, जिससे भुखमरी रोकना मुश्किल हो गया.
कई भारतीयों के लिए ये ऐसी अपमानजनक बात थी, जिसने अमेरिका और भारत के रिश्तों में स्थाई दरार पैदा कर दी. एक ऐसी दरार जो आधी सदी गुजर जाने के बावजूद, आज भी आपसी रिश्तों पर असर डालती है.
हो सकता है, अमेरिका की कड़ी 'फूड एड पॉलिसी' एक सामान्य कूटनीतिक सख्ती से ज्यादा कुछ न हो, लेकिन उस दौर के कमजोर आत्मविश्वास वाले भारत को, जिसे खुद को पीड़ित बताने की आदत पड़ चुकी थी, लगा कि एक ताकतवर देश दबंगई दिखाते हुए उसके साथ क्रूरता भरी राजनीतिक कर रहा है.
चलते-चलते : अगर एक ही कोख से जन्मे भारत और अमेरिका, संकल्प कर लें कि इतिहास के ये “2+2” यानी 4 सबक कभी नहीं भूलेंगे, तो दोनों देश 21वीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक दोस्त बन सकते हैं. "ट्रंप-जैसे राष्ट्रपतियों" के कार्यकाल में होने वाले कुछ संभावित हादसों के बावजूद !
नोट : इस लेख के कई हिस्से मेरी किताब "SuperEconomies: America, India, China & The Future of the World (Penguin Allen Lane, 2015)" से लिए गए या संपादित हैं.
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