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नरेंद्र मोदी के सभी समर्थकों और भगवा रंग से दूर रहकर प्रधानमंत्री के आर्थिक एजेंडे का स्वागत करने वालों के लिए भी पीएम का अब तक का कार्यकाल निराशाजनक रहा है. उन्होंने जनता के असहज मूड को महसूस किया है. अब पीएम मोदी ने ‘नाकाम’ नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई का संदेश स्पष्ट रूप से दे दिया है.
अधिकारियों को अनुशासित करने के अलावा, उनसे उस सख्ती की भी उम्मीद है, जो उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में दिखाई थी. नतीजतन, वह अपने पूर्ववर्तियों- केशुभाई पटेल और खामोश भीड़ में खलबली पैदा करने वाले विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगड़िया जैसों से किनारा करने में सक्षम रहे.
मुसीबत खड़ी करने वाले योगी आदित्यनाथ के खिलाफ इसी तरह प्रभावी कार्रवाई की गई. लगता है कि उन्होंने ‘सभी भारतीय हिंदू हैं’, ऐसा कहने से परहेज करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत को राजी किया है.
लेकिन हाल ही में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गुंडागर्दी करते हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) कार्यकर्ताओं द्वारा एक वरिष्ठ पत्रकार को सेमिनार में बोलने से रोकना और कुलपति के कार्यालय में बंधक बनाना, यह बतात है कि नरेंद्र मोदी का काम अभी अधूरा है.
एबीवीपी के कार्यकर्ताओं का पत्रकार के खिलाफ आरोप था कि वह ‘राष्ट्र विरोधी’ हैं. इस तरह का लेबल दलित छात्र रोहित वेमुला को भी बदनाम करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, जिसने हाल ही में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में आत्महत्या कर ली.
शायद, उन्हें ऐसा लगता है कि इस तरह की घटनाओं पर प्रतिक्रिया देना उनकी गरिमा के खिलाफ है, जो व्यापक परिप्रेक्ष्य में गौण दिखाई दे सकती हैं, क्योंकि या तो वे खामोशा रहना पसंद करते हैं या फिर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और दूसरों लोगों के लिए इन सब बातों को छोड़ देते हैं.
हालांकि, न्यूयॉर्क टाइम्स में एक बार इसे ‘खतरनाक चुप्पी’ भी कहा गया. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने राम मंदिर के निर्माण के लिए अभियान शुरू कर दिया है और आरएसएस प्रमुख द्वारा मीडिया को हिदायत दी गई है कि उनके लेखन के परिणाम के रूप में ‘सुनिश्चित हो कि समाज में कोई बुरे प्रचार न हों’.
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि एक जनमत सर्वेक्षण में बीजेपी की तुलना में मोदी की रेटिंग को अधिक दिखाया गया है. राष्ट्रीय स्तर पर इसमें थोड़ा संशय है कि देशभर में लोगों का विश्वास उसके विकास कार्यक्रम जारी है, भले ही यह अभी तक अपने शुरुआती रूप में भी नहीं पहुंचा है.
लेकिन क्या बीजेपी इससे सावधान है? पहला, पार्टी की लोकप्रियता घटने को स्वीकृति और दूसरा, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी जैसे राज्यों में दुष्परिणाम की आशंका, जहां इस साल विधानसभा चुनाव होंगे. केवल असम में बीजेपी के अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद है, लेकिन अभी भी यह करीबी मामला ही है.
उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी को अगले साल मुश्किल समय का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि तथाकथित गोमांस खाने वाले की हत्या और रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद मुसलमानों और दलितों के बड़े वर्ग में क्षोभ है.
अमित शाह का यह कहना सही है कि एक समय में राजनीतिक ध्रुवीकरण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ बाकियों को खड़ा कर दिया था. अब मोदी बनाम अन्य हैं. लेकिन इसमें एक मामूली अंतर है - मध्यम वर्ग आज काफी बड़ा है और इंदिरा गांधी के समय की तुलना में राजनीतिक रूप से अधिक सक्रिय है. मोदी की स्वीकृति समाज के इस वर्ग से आती है, जो 2014 में उनकी जीत के लिए काफी हद तक जिम्मेदार था.
लेकिन एक समूह ऐसा भी है, जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, शिवसेना और अन्य हिंदूवादी संगठनों की आक्रामक हरकतों का विरोध नहीं करेंगा. यह भी संभव है कि वे वर्तमान में मोदी के पक्ष में इसलिए हैं, क्योंकि उनके पास अखिल भारतीय स्तर पर कोई विकल्प नहीं है.
लेकिन यह राज्यों के मामलों में नहीं है. यही वजह है कि विधानसभा चुनाव में बीजेपी की राह आसान नहीं है. पार्टी को एक राष्ट्रव्यापी धार देने के लिए, प्रधानमंत्री को बहुत सख्त होना पड़ेगा.
जहां तक भगवा कट्टरपंथियों की बात है, अगर ‘राष्ट्र विरोधी नागरिकों’ के खिलाफ अतिवादी पागलपन और शेखी जारी रही, तो महज 8 फीसदी विकास दर ‘लापता’ अच्छे दिन लाने में कोई मदद नहीं करेगी.
(अमूल्य गांगुली एक राजनीतिक विश्लेषक हैं. ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं. उनसे amulyaganguli@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)
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Published: 31 Jan 2016,06:34 PM IST