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रवीश का रिव्यू: कैसी है केजरीवाल पर बनी फिल्म An Insignificant Man

लोकपाल आंदोलन के गर्भ से आम आदमी पार्टी का बनना सबको 1970 के दौर की याद दिला रहा था

रवीश कुमार
नजरिया
Updated:
लोकपाल आंदोलन के गर्भ से आम आदमी पार्टी का बनना सबको 1970 के दौर की याद दिला रहा था
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लोकपाल आंदोलन के गर्भ से आम आदमी पार्टी का बनना सबको 1970 के दौर की याद दिला रहा था
(फोटो: Harsh Sahani/The Quint)

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किसी आंदोलन को टीवी पर लाइव देखना और उसके बाद उस आंदोलन पर लाइव जैसा फिल्म देखना अपने आप में significant experience है. An Insignificant Man सामान्य फिल्म नहीं है. 21वीं सदी के भारत के लिए लोकपाल को लेकर शुरू हुआ आंदोलन राजनीतिक रूप से चार्ज मीडिया सोसायटी बनने का पहला अनुभव था.

यह फिल्म रियल टाइम में हिस्ट्री को रिवाइंड कर देखने का मौका देती है. लोकपाल आंदोलन के गर्भ से आम आम आदमी पार्टी का बनना सबको 1970 के दौर की याद दिला रहा था. उस दौर के माहौल में जज्बात हावी थे, इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है कि जज्बात हावी नहीं है.

आम आदमी पार्टी की विचारधारा

खुशबू और विनय को मैंने उस दौरान अपने कैमरे के साथ कई जगहों पर देखा था. वो तब भी निर्विकार (DISPASSIONATE) भाव से अपने सब्जेक्ट को कवर कर रहे थे और फिल्म भी ऐसी ही बनी.

आम आदमी पार्टी ने पीएसी की बैठकों को छोड़कर दोनों को वहां अपने कैमरे से साथ शूट करने की इजाजत दी, जिसकी कल्पना आप किसी और पार्टी में नहीं कर सकते थे. तब पारदर्शिता उनकी विचारधारा के मूल में थी. लेकिन अब वही पार्टी शायद ही किसी अनजान फिल्मकार को अपने भीतर कैमरे के साथ झांकने का मौका देगी. फिर भी आम आदमी पार्टी राजनीति के इतिहास को यह दस्तावेज देने के लिए अपने आप पर गर्व कर सकती है.

खुद को याद कर सकती है कि राजनीति बदलने के क्रम में राजनीति के कटुयथार्थ ने उसे भी बदलने के लिए कितना मजबूर कर दिया.

यह फिल्म आम आदमी पार्टी के बनने और पहली बार सरकार बनाने की घटना को भीतर से देखती है. विनय ने बताया कि 400 घंटे के फुटेज हो गए थे, इनमें से डेढ़ घंटे की फिल्म के लिए सीक्वेंस का चुनाव करना आसान नहीं था. दुनिया के किसी भी फिल्म आर्काइव को इनके फुटेज को अरबो डॉलर देकर खरीद लेना चाहिए, क्योंकि पूरी दुनिया में इस तरह के फुटेज का एक जगह मिलना मुश्किल है. यह फिल्म मीडिया सोसायटी के भीतर एक राजनीतिक घटनाक्रम को करीब से देखती है.

टीवी चैनल का आंदोलन

कैसे टीवी चैनल एक आंदोलन को गढ़ रहे हैं, फिर उस पर टूट पड़ते हैं और फिर अपने तमाम सर्वे के गलत साबित होने पर जोकर की तरह नजर भी आते हैं. आप देख सकते हैं कि कैसे जमे जमाए सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपने संगठन और चुनावी अनुभव पर इतना गुमान होता है कि वो एक insignificant man की चुनौती का मजाक उड़ाते हैं. मगर रिजल्ट आने के बाद हंसी के पात्र की तरह नजर आते हैं.

इन सबके बीच कैसे वह पार्टी अपना मीडिया गढ़ रही है. उसे पता है कि वह मीडिया सोसायटी में ढल चुकी दिल्ली के बीच उतर रही है इसलिए उसके स्लोगन, उसके पोस्टर सब कुछ कैमरे के हिसाब से होते हैं.

आप इस फिल्म को देखते हुए अपने आप पर और उस समय के वक्त पर खूब हंसते हैं. यह फिल्म हंसाती बहुत है. शायद उस जज्बाती दौर को देखने और समझने का यह सबसे बेहतर तरीका है.
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लाइव नेता बनते अरविंद केजरीवाल

आम आदमी पार्टी के भीतर के अंतर्विरोध को भी यह फिल्म शानदार तरीके से पकड़ती है. आप अरविंद केजरीवाल को लाइव नेता बनते हुए देख रहे हैं. उनके सिद्धांत उन्हें ही विपक्ष की तरह घेर लेते हैं. वो अपनी उम्र के तमाम नेताओं के बीच खुद के नेता होने की दावेदारी कभी नहीं छोड़ते. वो लगातार खुद को नेता के स्पेस में रखते हैं.

फिल्म के कई क्लोजअप अरविंद केजरीवाल को करीब से देखने का मौका देते हैं. जमे जमाए राजनीतिक दलों के सामने जीत जाने का संकल्प झलकता है, मगर पारदर्शिता या मिलकर फैसले लेने का उनका सिद्धांत प्रैक्टिस में उनके हाथ से छुटना शुरू होता है. योगेंद्र यादव को भी आदर्श और प्रैक्टिस में फंसा देखकर आपको हंसी आएगी.

राजनीति अच्छे लोगों का बहुत क्रूर इम्तहान लेती है. आप दोनों को यह क्रूर इम्तहान देते हुए देख सकते हैं, कौन पास हुआ या कौन फेल हुआ, यह आप पर छोड़ता हूं, वरना फिल्म का मजा समाप्त हो जाएगा.

यह फिल्म उस समय के इतिहास के कई हिस्से को छोड़ती भी है. मसलन आप इसे देखते हुए बिल्कुल नहीं जान पाते हैं कि रामदेव नाम के किसी शख्स का इस आंदोलन से कोई नाता था. आप बिल्कुल नहीं जान पाते हैं कि किरण बेदी नाम की कोई शख्स कभी इनके साथ थीं. आप बिल्कुल नहीं जान पाते हैं कि गांधी और जेपी पार्टी टू बनकर इधर से उधर हो रहे अन्ना हजारे रालेगण सिद्धी से दिल्ली आए थे भारत को दूसरी आजादी दिलाने. ठीक जैसे मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आते हैं.

एन इनसिग्निफिकेंट मैन इतिहास को करीब से देखने वाली फिल्म है, मगर इतिहास नहीं है. फिल्म की एडिटिंग इस कमाल से की गई है कि आप देखते हुए आज की घटनाओं से अलग नहीं हो पाते हैं. जैसे योगेंद्र यादव को शुरू से ही देखकर लगता है कि वे अंत में अरविंद से अलग होने वाले हैं. योगेंद्र को अलग से नोटिस करती है. कुमार विश्वास मीठी यादों की तरह हैं. राजनीति न तो इतनी सरल होती है, न ही उस पर बनी फिल्म कभी सरल और संपूर्ण हो सकती है. आप देखिए, आपको मजा आएगा.

(रवीश कुमार सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट हैं. ब्‍लॉग में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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Published: 16 Nov 2017,07:53 PM IST

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