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किसी मैच या सीरीज से पहले आम समझ के हिसाब से टीम चुनी जाती है. भविष्य की किसी सीरीज के लिए अलग-अलग कॉम्बिनेशन को आजमाने का कोई मतलब नहीं होता. आपकी टीम जल्द होने जा रहे मैच के लिए होनी चाहिए, न कि आगे की किसी प्रतियोगिता के लिए, भले ही उसमें बहुत कुछ दांव पर लगा हो.
यह बात न सिर्फ स्पोर्ट्स मैनेजरों के लिए सही है, बल्कि राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है. पॉलिटिक्स में भी आप आगामी चुनाव की तैयारी करते हैं, न कि कई इलेक्शंस के बाद होने वाले इलेक्शन के लिए.
यूपी चुनाव का चौंकाने वाला नतीजा आए महीना भर से अधिक समय गुजर चुका है और तब से बीजेपी विरोधी मोर्चा बनाने को लेकर बातें हो रही हैं. इसके केंद्र में अब तक बीएसपी की मायावती और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव जैसे क्षत्रप रहे हैं, जिन्हें यूपी में जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा था. कई गैर-बीजेपी नेताओं ने इसे हवा दी है, जिनमें बिहार पर राज करने वाले नीतीश कुमार और महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर हो चुके शरद पवार जैसे नाम शामिल हैं.
अब तक बीजेपी-विरोधी मोर्चे की बातचीत बिहार के ‘महागठबंधन मॉडल’ को अगले लोकसभा चुनाव के लिए दोहराने की जरूरत पर केंद्रित रही है. अगले संसदीय चुनाव अप्रैल-मई 2019 में होने हैं. बीजेपी-विरोधी मोर्चे को लेकर मायावती और अखिलेश यादव तत्परता दिखा रहे हैं, जो अभी तक यूपी में अपनी हार से शर्मसार हैं. इससे संकेत मिलता है कि वे अभी तक हार से मानसिक तौर पर उबर नहीं पाए हैं और इसलिए दूसरी चुनौतियों पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं. दोनों नेता अपनी खोई हुई जमीन वापस हासिल करना चाहते हैं. उनकी सोच के बजाय विपक्ष को तात्कालिक राजनीतिक मकसद पर ध्यान देना चाहिए. उनकी भलाई इसी में है.
एलायंस के दो रास्ते हैं. एक तो यह कि विपक्षी दल सिर्फ एक-दूसरे के साथ लगातार मिलकर काम करने का वादा करते रहें, जबकि दूसरा यह कि वे आम सहमति वाले मुद्दों पर तुरंत सहयोग शुरू करें और बाकी बातों को आगे के लिए छोड़ दें.
अगले लोकसभा चुनाव के लिए क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों का महागठबंधन बनाने की कोशिश के बजाय उनके लिए बेहतर होगा कि वे जुलाई में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव को लेकर बातचीत शुरू करें. यूपी और उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में शानदार जीत के बावजूद राष्ट्रपति चुनाव के लिए इलेक्टोरल कॉलेज में बीजेपी के पास बहुमत नहीं है. इसलिए विपक्षी दलों के पास मिलकर बीजेपी को डराने का यह अच्छा मौका है.
भुवनेश्वर में मोदी और अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी की राष्ट्र्रीय कार्यकारिणी की बैठक में क्षेत्रीय दलों के खिलाफ बिगूल फूंका गया. इस रुख के चलते बीजेपी के लिए बीजू जनता दल जैसी पार्टियों का सहयोग राष्ट्रपति चुनाव के लिए जुटाना मुश्किल हो सकता है, जिसकी वह उम्मीद कर रही थी. ओडिशा में पंचायत चुनाव और मोदी के रोडशो के बाद बीजू जनता दल के लिए बीजेपी चैलेंजर बनकर सामने आई है. शिवसेना जैसे सहयोगी दलों ने तो पहले से ही बीजेपी नेताओं की नींद हराम कर रखी है.
इलेक्टोरल कॉलेज में संसद सदस्य के वोट की वैल्यू 708 होती है. वहीं, यूपी में हर विधायक के वोट की वैल्यू 206, महाराष्ट्र में 176, अरुणाचल प्रदेश में 8 और सिक्किम में 7 है. राष्ट्रपति चुनाव की अधिसूचना आने के बाद आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के विधायकों की वोट की वैल्यू को चुनाव आयोग अधिसूचित करेगा. वहीं, तमिलनाडु में 234 विधायकों के पास कुल 41,184 इलेक्टोरल वोट हैं और यह बताना मुश्किल है कि एआईएडीएमके के विधायक मतदान करेंगे.
अगर विपक्षी दल राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार जल्द तय करते हैं, तो बीजेपी की मुश्किलें बढ़ जाएंगी. यह अपोजिशन को तय करना है कि वह इसके लिए कोई पॉलिटिकल कैंडिडेट चुनता है या एपीजे अब्दुल कलाम जैसे ऐसे शख्स को, जिसका किसी राजनीतिक दल से लेना-देना नहीं है.
कैंडिडेट ऐसा होना चाहिए, जिसके प्रोफेशनल और राष्ट्रभक्ति पर सवाल न खड़े किए जा सकें. वह प्रो-एनडीए या प्रो-अपोजिशन इमेज वाला नहीं होना चाहिए. इससे छोटी पार्टियों के लिए कैंडिडेट का विरोध करना मुश्किल हो जाएगा.
राष्ट्रपति चुनाव के बहाने विपक्ष यह मैसेज दे सकता है कि एक पार्टी के दबदबे को चुनौती दी जा सकती है. हालांकि, कांग्रेस राज के कई दशकों का सबक और पिछले तीन साल का एक्सपीरियंस देखकर यह नहीं लगता कि बीजेपी के खिलाफ देशव्यापी मोर्चा बनाया जा सकता है.
बिहार में भी जनता दल (यू) और आरजेडी अलायंस को लेकर भरोसे से ज्यादा आशंकाएं हैं. देश की जनता ने 1971 में इंदिरा गांधी के खिलाफ कांग्रेस (ओ), लोकदल, जनसंघ और सोशलिस्टों के ग्रैंड अलांयस को खारिज कर दिया था. इसके बाद जनता पार्टी स्थिर सरकार नहीं दे पाई और कांग्रेस विरोधी दो सरकारों के 1989-91 के बीच गिरने से यह संकेत मिला कि अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टियां सिर्फ एक पार्टी के विरोध की बुनियाद पर साथ नहीं रह सकतीं. अगर पहले कांग्रेस-विरोध नहीं चला था तो अब बीजेपी-विरोध के चलने की गारंटी क्या है? जनता यह सवाल जरूर करेगी.
मिसाल के लिए, यूपी में समाजवादी पार्टी, बीएसपी और कांग्रेस के वोटों को मिला दिया जाए, तो वोट पर्सेंटेज 50.2 रहता है, जो बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के 41.4 से ज्यादा है. उलटे, अगर एक दबदबे वाली ओबीसी और अनुसूचित जाति यानी यादव और जाटव के बीच अलायंस होता है तो बीजेपी को अपना नया सामाजिक जनाधार मजबूत करने में मदद मिलेगी.
यह फैसला विपक्षी दलों को करना है कि क्या उन्हें गठबंधन से पहले खास मुद्दों पर मिलकर काम करना है? इस मामले में जो भी होगा, उसका भविष्य की राजनीति पर जरूर असर पड़ेगा.
(नीलांजन मुखोपाध्याय लेखक और पत्रकार हैं. उन्हें ट्विटर पर @NilanjanUdwin पर फॉलो किया जा सकता है. इस आलेख में प्रकाशित विचार उनके अपने हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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