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अर्णब गोस्वामी चैट लीक:‘मैच फिक्सिंग’ के मामले को कौन फिक्स करेगा?

असली मामला तो मीडिया में नैतिकता, कारोबार और उसमें भ्रष्टाचार से जुड़ा है

माधवन नारायणन
नजरिया
Published:
रिपब्लिक टीवी के फाउंडर अर्नब गोस्वामी
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रिपब्लिक टीवी के फाउंडर अर्नब गोस्वामी
(फोटो: क्विंट हिंदी)

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एक पुराने सोवियत युग का मजाक है जो याद आता है जब भारत में तथाकथित ‘अर्णबगेट’ मामले पर गरमा-गरम बहस हो रही है जिसमें रिपब्लिक टीवी के एडिटर-इन-चीफ और को-फाउंडर अर्णब गोस्वामी ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (BARC) के सीईओ पार्थो दासगुप्ता के साथ आपसी हित के मामलों पर, सरकार के साथ पत्रकारों की नजदीकी और टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट (TRP) के खतरनाक बिजनेस पर लंबा व्हाट्सऐप चैट कर रहे हैं.

तथाकथि TRP-मनी-फॉर रेटिंग्स स्कैम, जिसका खुलासा मुंबई पुलिस ने किया है, जिसके चैट के ट्रांस्क्रिपट भी जारी किए हैं, अब ये मामला पूरी तरह से राजनीतिक रूप लेता जा रहा है-और इसे प्रमाणिक मानकर इसकी जांच किए जाने की जरूरत है.

ये चुटकुला कुछ इस तरह का है कि “रूसी जासूसी एजेंसी केजीबी को सरकार के स्वामित्व वाली एक फैक्टरी में चोरी के बारे में सूचना मिली. जासूसों को एक संदिग्ध कर्मचारी एक पहिए की ठेला गाड़ी बाहर ले जाता दिखा और उन्होंने इसके ऊपर-नीचे देखने का फैसला किया और इसके बीच में कोई खोखली जगह तो नहीं है इसके लिए थपथपा कर देखा. उन्हें कुछ भी नहीं मिला और उन्होंने मॉस्को में ये खबर दे दी कि सूचना गलत थी. जब कर्मचारी घर लौटा तो उसने अपने साथी से कहा “कॉमरेड, मैंने एक पहिए की ठेला गाड़ी चुरा ली.”

‘अर्णबगेट’ स्कैंडल: दांव पर क्या है?

अर्णब चैट ट्रांस्क्रिप्ट में, अप्रमाणिक कहानी में केजीबी की ही तरह, हम अहम बात को छोड़ कर छोटी-छोटी बात पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं.

कांग्रेस के नेतृत्व में राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने चैट के उन हिस्सों की आलोचना करने में देरी नहीं की जिसमें गोस्वामी ये बताने की कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें बालाकोट एयर स्ट्राइक के बारे में पहले से पता था और इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ समझौता किया गया है.

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लेकिन असली सौदा शायद सरकार के अधिकारियों की ओर से सेना के राज उजागर करने और सूचनाएं देने के आरोपों में नहीं बल्कि मीडिया नैतिकता, व्यावसायिकता और व्यावसायिक भ्रष्टाचार की कोशिश के ‘स्पष्ट उल्लंघन’ का है.

एक पहिए के ठेले की तरह, ये एक स्पष्ट विषय है जो दलगत राजनीति की बयानबाजी में हाशिए पर जा सकता है.

अगर गोस्वामी बालाकोट एयर स्ट्राइक के पहले कहते हैं कि पाकिस्तान के इलाके में “कुछ बड़ा” होने वाला है, तो ये आभास, अटकलबाजी या हमेशा कई तरह से दुश्मन देश को धमकी देने वाली सरकार की ओर से व्यापक संकेत हो सकता है. अर्णब के सोशल मीडिया समर्थक पहले से ही ये बात कह रहे हैं.

हालांकि, अंत में जो दांव पर है वो है ‘मीडिया रेटिंग कहलाने वाले खेल में मैच फिक्सिंग’ का ‘सबूत’.

ये तथ्य कि दासगुप्ता और गोस्वामी के बीच 500 पेज का व्हाट्सऐप ट्रांस्क्रिप्ट होना सोवियत रूस के एक पहिए वाला ठेला होने के जैसा ही स्पष्ट है. एक क्रिकेट मैच की कल्पना कीजिए जिसमें स्कोरर या अंपायर खेल के बीच में एक टीम के कप्तान के साथ लंबी बातचीत कर रहे हैं और दूसरे को नजरअंदाज कर रहे हैं और अंपायर कैप्टन से एक या दो पक्षपात की बात कर रहा है जो स्टंप कैमरा में रिकॉर्ड हो गया है. आपको स्थित समझ आ गई होगी.

भारतीय मीडिया को अभिव्यक्ति की विशेष स्वतंत्रता नहीं है: ये एक समस्या क्यों है

केंद्र सरकार अब तक मीडिया पर नियंत्रण की असफल कोशिश करती रही है, इसका सबसे ताजा उदाहरण है एमेजॉन प्राइम की वेब सीरीज तांडव में हिंदू विरोधी सामग्री होने के आरोप में सूचना और प्रसारण विभाग की जांच. मीडिया कंटेंट पर सरकारी नियंत्रण खुद में संदिग्ध योग्यता है जहां मीडिया या कलाकार एक सरकार की आलोचना का अधिकार रखते हैं. हितों के टकराव को अलग रख दें तो ये तथ्य भी है कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया बड़े पैमाने पर दंतहीन है जिसके पास दंडात्मक अधिकार नहीं है.

कड़वी सच्चाई ये है कि भारतीय संविधान के तहत, मीडिया को संविधान द्वारा आम नागरिकों के लिए दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अलावा कोई विशेष स्वतंत्रता नहीं दी गई है.

लेकिन इन सबके परे ये मीडिया का व्यवसाय है जिसमें नैतिकता, नियम और कानून मायने रखते हैं. यहां, BARC घोटाला के खुलासों के प्रकाश में कानून का पालन कराने वाली एजेंसियों और सामाजिक व्यवहार दोनों के लिए एक साफ मामला बनता है. क्या विज्ञापनदाताओं को ऐसे चैनल का समर्थन करना चाहिए जो रेटिंग्स की फिक्सिंग में शामिल है? क्या सरकार को ऐसी संस्था पर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए? क्या ये उपभोक्ता कानूनों का विषय नहीं होना चाहिए जिसके तहत दर्शक और विज्ञापनदाता दोनों न्याय मांग सकते हैं?

मीडिया ‘मैच फिक्सिंग’ की कोशिश के उदाहरण

‘मैच फिक्सिंग’ की कोशिश का एक उदाहरण है जहां दासगुप्ता गोस्वामी को टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (TRAI) को ‘एएस’ के जरिए प्रभावित करने की बात कहते हैं.

एक समय पर वो गोस्वामी से कहते हैं: “क्या आप इस बात में मदद कर सकते हैं कि एएस BARC पर TRAI को शांत रहने के लिए कहे?”

मुंबई पुलिस के मुताबिक, सरकार को ये दिखाकर गुमराह करने का स्पष्ट प्रयास है कि TRAI की व्यूअरशिप की डिजिटल मेजरमेंट से सत्ताधारी पार्टी को राजनीतिक रूप से नुकसान होगा.

पुलवामा आतंकी हमला जिसके जवाब में बालाकोट एयर स्ट्राइक हुए, इस खबर ब्रेक कर TRP पाने की संदिग्ध चाहत को समझा जा सकता है, लेकिन निश्चित तौर पर, टॉप ऑडियंस मेजरमेंट एजेंसी के साथ मिलीभगत कर नियामकों को प्रभावित करने की उम्मीद एक न्यूज चैनल से नहीं की जा सकती है. न ही हम ऑडियंस ऑडिट कंपनी से नियामकों को फिक्स करने की उम्मीद कर सकते हैं.

सरकार को क्यों बयान देना चाहिए-चुप्पी हमेशा अच्छी नहीं होती

फिलहाल, हम गोस्वामी-दासगुप्ता चैट्स में विरोधियों और फिल्मी सितारों के बारे में गॉसिप का जिक्र करने से बचेंगे हालांकि कोई भी उनके बारे में कभी भी इंटरनेट पर पढ़ सकता है.

विक्रेताओं के लिए ये इस तथ्य को लेकर जागरूक होने का समय है कि अनैतिक या शर्मनाक तरीके से पक्षपात से भरे संगठन के साथ जुड़ाव उस ब्रांड का महत्व कम कर देते हैं जिसे वो प्रमोट करते हैं.

अगर सफोला के ब्रांड एंबेस्डर सौरव गांगुली को दिल का दौरा पड़ने के बाद मैरिको का अपने खाद्य तेल का विज्ञापन हटाना कोई संकेत है तो ब्रांड्स को लगातार अपनी स्वच्छता बनाए रखनी होती है. कॉरपोरेट ब्रांड, जैसे बैंक, सरकारी कंपनियां और बड़ी कंपनियां जिनका सामाजिक दांव अधिक होता है उन्हें भी खुद के अंदर झांकने की जरूरत है.

सरकार को अपनी तरफ से भी सफाई देनी चाहिए. अभी तक सरकार की ओर से कोई भी अहम बयान नहीं आया है यहां तक कि चैट ट्रांस्क्रिप्ट के कुछ शर्मनाक दावों से खुद को अलग करने के लिए भी नहीं.

सार्वजनिक जीवन में, चुप्पी को अक्सर सहमति माना जाता है, इनकार नहीं. BARC के खुलासे से प्रभावित मीडिया कंपनियों के लिए सामूहिक रूप से मामला उठाने का ये स्पष्ट मामला है-चाहे वो जनहित याचिका हो, क्षतिपूर्ति वाद या उद्योग संघों के माध्यम से हो. कम से कम, उन्हें ये तय करने के लिए एक पेशेवर फैसला लेने की आवश्यकता है कि आगे क्या करना है.

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