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क्या इस साल 70 लाख नई नौकरियां पैदा करने का दावा हवाबाजी है? 

क्या इस साल औपचारिक सेक्टर में 70 लाख नौकरियां पैदा हो पाएंगी?

अविरल विर्क
नजरिया
Published:
 2018 में 70 लाख नौकरियां पैदा करने का दावा लेकिन रोजगार के मोर्चे पर हालात ठीक नहीं 
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2018 में 70 लाख नौकरियां पैदा करने का दावा लेकिन रोजगार के मोर्चे पर हालात ठीक नहीं 
(फोटो: The Quint/Ankita Das)

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इस महीने बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हाल में आई एक रिपोर्ट का हवाला देकर रोजगार के मोर्चे पर मोदी सरकार को घेर रहे आलोचकों को जवाब देने की कोशिश की. आईआईएम बेंगलुरु के प्रतिष्ठित प्रोफेसर पुलक घोष और एसबीआई के ग्रुप चीफ एडवाइजर सौम्य कांति घोष की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल औपचारिक सेक्टर में 70 लाख नौकरियां पैदा हो जाएंगी.

दोनों ने अपने इस नतीजे के समर्थन में हर तिमाही होने वाले सरकार के रोजगार सर्वे की जगह दूसरे आंकड़ों का सहारा लिया. दोनों ने तीन स्त्रोतों से आंकड़े लेकर अपनी बात साबित करने की कोशिश की. ये स्रोत हैं ईपीएएफओ, ईएसआईसी और नेशनल पेंशन स्कीम (एनपीएस).

इसके अलावा एक चौथा स्त्रोत जीपीएफ भी है, जिसमें दो करोड़ लोग योगदान करते हैं लेकिन पेरोल वाले रोजगार की गिनती करते समय इस आंकड़े का सहारा नहीं लिया गया. पे रोल जॉब उसे कहते हैं जब कर्मचारी ईपीएफओ, ईएसआईसी या एनपीएस में योगदान करता हो.

वित्त वर्ष 2018-19 का बजट पेश करने के लिए संसद जाने से पहले वित्त मंत्री अरुण जेटली (फोटो: PTI)

‘घोष एंड घोष’ के दावे में दम नहीं

15 जनवरी 2018 को जारी हुई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि नवंबर, 2017 में ईपीएफओ में 18 से 25 साल के 36.8 लाख नए सदस्य थे. माना गया कि ये नए कर्मचारी हैं जिन्हें संगठित क्षेत्र में नौकरियां मिली हैं.

नवंबर 2017 में हासिल पूरे साल के इन आंकड़ों के जरिये यह कहा गया कि अगलाे साल यानी 2018 में 70 लाख नौकरियां पैदा होगीं. लेकिन ‘घोष एंड घोष’ की इस रिपोर्ट के आधार पर नई नौकरियों में इजाफे का जो दावा किया जा रहा है, उसे लोग मानने को तैयार नहीं हैं. कहा जा रहा है कि ईपीएफओ के नए खातों में इजाफे का मतलब नई नौकरियों में इजाफा नहीं है. इस रिपोर्ट में उन वजहों का जिक्र नहीं किया गया है जिनकी वजह से भी ईपीएफओ खातों में इजाफा हो सकता है. आखिर वे और कौन सी वजहें हैं जिनसे ईपीएफओ खातों में इजाफा हो सकता है. आइए जानते हैं.

1. अनौपचारिक नौकरी औपचारिक नौकरी में तब्दील होने पर ईपीएफओ खातों की संख्या बढ़ सकती है. ईपीएफओ रजिस्ट्रेशन के साथ ही नौकरी औपचारिक हो जाती है. 20 से कम कर्मचारियों वाली कंपनी को ईपीएफओ में रजिस्ट्रेशन की जरूरत नहीं होती. इसलिए अगर 2016 से 2018 के बीच किसी कंपनी के कर्मचारियों की संख्या 18 से 20 हुई और फिर इसका ईपीएफओ में रजिस्ट्रेशन हुआ तो कर्मचारियों तो दो ही बढ़े. लेकिन ईपीएफओ में रजिस्ट्रेशन होने की वजह से कर्मचारियों की संख्या में 20 की बढ़ोतरी मान ली गई.

2. जनवरी से नवंबर 2017 के बीच ईपीएफओ के एक करोड़ खाते जुड़े. ईपीएफओ डिफॉल्टर कंपनियों को माफी देने से 2017 की पहली छमाही में ही 20 लाख ईपीएफओ सब्सक्राइवर बढ़ गए. डिफॉल्टर कंपनियों को कर्मचारियों को ईपीएफओ का मेंबर बनाने के लिए इन्सेंटिव दिए गए. इससे पहले से काम कर रहे कर्मचारी सब्सक्राइवर बन गए. ‘घोष एंड घोष’ की रिपोर्ट में यही बढ़ी हुई संख्या रोजगार में बढ़ोतरी के तौर पर दिखाई जा रही है.

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3. जनवरी 2017 के बाद नया ईपीएफओ अकाउंट हासिल करने वाली कंपनी में पहले से यूएएन नंबर वाला किसी शख्स को नौकरी मिलती है तो उसे नया रजिस्टर्ड सबस्क्राइवर माना जाएगा. इसी तरह जब किसी कर्मचारी की नौकरी छूटती है तो उसकी ईपीएफओ मेंबरशिप अचानक खत्म नहीं हो जाती. लिहाजा मेंबरशिप रह जाने से लगता है कि नौकरी बरकरार है.लेकिन यह छूट चुकी होती है. इस रिपोर्ट से यह पता नहीं चलता कि कितने लोग बेरोजगार हुए.

4. जेटली ने जिस रिपोर्ट का हवाला दिया उसमें यह नहीं कहा गया कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद कंपनियों की ओर से कैश में वेतन पाने वाले कर्मचारियों को औपचारिक कर्मचारी बना कर पीएफ सब्सक्राइवर बनाया गया. इससे पीएफ सब्सक्राइवरों की संख्या बढ़ गई. इसे नया रोजगार सृजन कैसे माना जा सकता है? दूसरी ओर जीएसटी ने कई छोटे और मझोले कारोबारियों का कारोबार बंद करवा दी. इससे भी बड़ी तादाद में संभावित औपचारिक नौकरियों का नुकसान हुआ.

आंकड़ों की बाजीगरी और गलत निष्कर्ष

घोष एंड घोष की इस रिपोर्ट का प्रवीण चक्रवर्ती और जयराम रमेश ने द हिंदू में लेख लिख कर जवाब दिया. इसमें कहा गया कि आंकड़ों की बाजीगरी के जरिये इस रिपोर्ट ने यह निष्कर्ष दे दिया कि 2018 में 70 लाख नई नौकरियां पैदा होंगी.

नोटबंदी और जीएसटी के बाद के असर का जिक्र करते हुए चक्रवर्ती और रमेश लिखते हैं- वित्त वर्ष 2015 में ईपीएफओ में योगदान करने वाले सदस्यों की संख्या 7 फीसदी बढ़ गई. जबकि वित्त वर्ष 2016 में यह संख्या 8 फीसदी बढ़ी. लेकिन नोटबंदी के बाद वित्त वर्ष 2017 में दिसंबर तक ये संख्या 20 फीसदी बढ़ गई. इसके बाद सदस्य संख्या बढ़कर 23 फीसदी तक पहुंच गई.

इसका मतलब क्या यह है कि मोदी सरकार ने अपने पहले दो साल में पर्याप्त नौकरियां पैदा नहीं की और फिर अचानक चमत्कारिक ढंग से नोटबंदी और जीएसटी से नौकरियों की बहार आ गई. ईपीएफओ के आंकड़े देखने से तो यही लगता है. साफ है कि अपनी सुविधा से डाटा (जैसे कि ईपीएफओ डाटा) और समय का चुनाव (वित्त वर्ष 2017 और वित्त वर्ष 2018) कर नौकरियां पैदा करने के बारे में गलत निष्कर्ष निकाला जा रहा है.

पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने भी इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में कहा है कि घोष एंड घोष को वे आंकड़े दिए गए, जो पब्लिक डोमेन में नहीं हैं. उन्होंने कहा कि डाटा सार्वजनिक किए जाएं और फिर नोटबंदी और जीएसटी से पहले एनडीए सरकार के आंकड़ों और 2004 से 2014 के बीच यूपीए सरकार के आंकड़ों से तुलना की जाई. इसी से सचाई सामने आएगी. इसके बिना 70 लाख नई नौकरियां पैदा करने का दावा हवाबाजी ही माना जाएगा.

घोष एंड घोष की रिपोर्ट के बाद रोजगार के मौर्चे पर चौतरफा घिरी मोदी सरकार में नया जोश भर गया था. मोदी के कई मंत्रियों ने इस रिपोर्ट का हवाला देकर विपक्ष के उस आरोप का जवाब देने की कोशिश की थी कि सरकार के रोजगार के मौर्चे पर कुछ नहीं कर पाई. लेकिन दिक्कत ये है कि सरकार जिस रिपोर्ट को अपनी आड़ बना रही है, उसमें कई छेद दिख रहे हैं.

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