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तो आज सब कह रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल ने अपने ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को गुप्ती (चाकू का एक प्रकार) मार-मार कर खत्म कर दिया. जिस तरह आप की राज्यसभा सीटें बंटी हैं, उसको देखते हुए बहुत लोगों के लिए आज का दिन मर्सिया पढ़ने का है. ऐसे में अपनी पीठ ठोकना अच्छी बात नहीं है, लेकिन हम पत्रकारों को ऐसे दिन काम ही मिलते हैं, जब हम ये पक्के तौर पर कह सकें, आई टोल्ड यू सो!
अभी जब योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के दुःख भरे ट्वीट देखे, तो याद आया मेरा 6 साल पुराना संपादकीय स्टैंड.
जब ये लोग 2011 में पहली बार जंतर-मंतर पर बैठे थे. तभी से, एकदम शुरू से अपने चैनल पर मैंने अपना स्टैंड जाहिर कर रखा था कि ये आंदोलन नहीं चलेगा, क्योंकि इसमें छल-प्रपंच की भरमार है. ये सत्ता की राजनीति में तब्दील होगा और केजरीवाल, जिन पर जमाना फिदा है, मुझे भरोसेमंद नहीं लगते.
जब सारे चैनल उस आंदोलन को लाइव कवर करने के लिए मर-मिट रहे थे, मैंने उस आंदोलन से जुड़ी गतिविधियों का कभी भी लाइव प्रसारण नहीं किया. जरूरी खबर होती, तो उसको उपयुक्त जगह दे दी जाती थी, बस. खूब आलोचना होती थी. मेरे अपने ही कुछ सहयोगी मेरे उस समय के स्टैंड को अजीबो-गरीब बताते. कुछ सामने और कई पीठ पीछे.
आंदोलन का हश्र ऐसा होगा, ये बात शायद इसलिए भी समझ में आ गई थी, क्योंकि हम सबने ऐसे कई आंदोलन देखे हैं. जेपी और वीपी आंदोलनों का उठना और गिरना देखा है. उन दोनों आंदोलनों ने फिर भी अपने कुछ मुकाम हासिल किए थे, लेकिन हमने कई शहरी-मध्यवर्गीय आंदोलनों की कुकुरमुत्ता खेती और उनका उजड़ना भी देखा है. इसलिए अपने को कभी कोई भ्रम नहीं हुआ कि ये मजमा क्रांति, बदलाव, शुचिता और आम आदमी को ताकत देने वाला है.
जब राष्ट्रीय स्तर पर आप को दोबारा आवाज देने का वक्त आया, तो कुमार विश्वास और आशुतोष जैसे लोग नजर नहीं आए और गुप्ता एंड गुप्ता का साइनबोर्ड चमका दिया गया. राज्यसभा में वो मनोनीत नहीं हुए, जिन्होंने आंदोलन किया. जिन्होंने एक सोच को मुखर ढंग से पेश किया. नोमिनेशन मिला, तो उनको, जिनकी विचारधारा के बारे में किसी को भी पता नहीं है. कम से कम अवाम को तो नहीं ही. मैं उन पर कमेंट नहीं कर रहा हूं, जिनको मनोनीत किया गया है. कमेंट पूरे तौर-तरीके पर है.
जो लोग दिल्ली में आप की सरकार बनने को सफलता मानते हैं, वो ये कह सकते हैं कि मेरा पूर्वानुमान तो गलत निकला. कुर्सी है, तामझाम है, मजे हैं. लेकिन मेरा पूर्वानुमान ये था कि ये नाराज लोगों को बरगलाने का एक चालाक प्रोजेक्ट है, जो अंत में धोखे के साथ फ्लॉप होगा. देश के बड़े-बड़े सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों से जुड़े बड़े नाम इनके चक्कर में आए, मोहभंग हुआ और नजरें बचाकर निकल गए.
पिछले कुछ साल आप के लिए नाकामी और बदनामी के रहे हैं और आज के लैंडमार्क वाले दिन ये कहा जा सकता है कि ये एक दुकान है, जिसका बंद होना तय है.
अब जरा उनके बारे में सोचिए, जिनको आप में वैकल्पिक राजनीति की झलक दिखती थी. वो कितना ठगा हुआ महसूस करेंगे और आगे से छाछ भी फूंक-फूककर ही पिएंगे.
सोशल मीडिया से शुरू हुई राजनीति की ऐसी परिणति! आई टोल्ड यू सो कहने में भी थोड़ी टीस है.
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