मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019अशोका यूनिवर्सिटी को विदेश नहीं, देश के JNU से सीखने की जरूरत

अशोका यूनिवर्सिटी को विदेश नहीं, देश के JNU से सीखने की जरूरत

प्रताप भानु का इस्तीफा उस सड़न की हल्की सी गंध है, जिसने अशोका जैसी यूनिवर्सिटी को अंदर से गलाना शुरू कर दिया है.

अमिताभ मट्टू
नजरिया
Updated:
16 मार्च को यूनिवर्सिटी से प्रताप भानु मेहता ने इस्तीफा दिया
i
16 मार्च को यूनिवर्सिटी से प्रताप भानु मेहता ने इस्तीफा दिया
(फोटो: अशोका यूनिवर्सिटी)

advertisement

जब हार्वर्ड के फिलॉसफर माइकल सैंडल ने अपनी विख्यात किताब ‘व्हॉट मनी कांट बाय ‘ लिखी थी, तब उनका मकसद इस सवाल का जवाब तलाशना था कि कैसे बाजार और उसकी संदिग्ध नैतिकता को जीवन के हर पहलू में दखल देने से रोका जाए.

भारत की अशोका यूनिवर्सिटी का हालिया मामला इस किताब के अगले संस्करण के लिए केस स्टडी बन सकता है. वैसे यह विडंबना ही है कि सैंडल खुद उन मशहूर एकैडमिक्स में से एक हैं जिन्होंने अशोका यूनिवर्सिटी के स्टार प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता के इस्तीफे पर नाखुशी जाहिर की है. इन लोगों ने एक इंटरनेशनल पेटीशन पर दस्तखत करते हुए उन परिस्थितियों की आलोचना की है, जिनकी वजह से मेहता को अपना पद छोड़ना पड़ा.

जैसा कि ‘व्हिसलब्लोअर’ का कहना है, सबूतों से साफ पता चलता है कि मेहता का इस्तीफा सिर्फ उस सड़न की हल्की सी गंध है, जिसने इस नई चमचमाती यूनिवर्सिटी को अंदर ही अंदर गलाना शुरू कर दिया है.

अशोका यूनिवर्सिटी की शोहरत

किसी प्राइवेट यूनिवर्सिटी को शुरू करना कभी आसान नहीं होता. यूएस के आइवी लीग्स और प्राइवेट लिबरल आर्ट्स कॉलेजों के अलावा ज्यादातर हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशंस- पश्चिम में भी- पब्लिक फंडेड हैं. बेशक हायर एजुकेशन को आम तौर पर जनहित में देखा जाता है, और किसी यूनिवर्सिटी में रिटर्न ऑन इनवेस्टमेंट (आरओआई) का कोई निश्चित समय नहीं होता. इसलिए भारत में कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग सभी प्राइवेट यूनिवर्सिटीज का वजूद खतरे में है या उन्हें रातों रात मुनाफा कमाने के फेर में चलाया जा रहा है.

लेकिन अशोका यूनिवर्सिटी का मामला अलग रहा है. उसकी स्थापना को दस साल भी नहीं हुए लेकिन उसकी शोहरत काफी शानदार तरीके से बढ़ी. वह देश की प्रमुख प्राइवेट लिबरल आर्ट्स यूनिवर्सिटी के रूप में उभरी. जहां के विद्यार्थी विचारक बनाए जाते हैं. बदलाव के अगुवा बनते हैं. जहां ऐसी समग्र शिक्षा दी जाती है, जो दुनिया में हर किसी से इक्कीस साबित हो सकती है.

बेशक, अशोका में ऊंचे वेतन के साथ दुनिया भर से पढ़ाने वाले पहुंचे. जो लोग अपने बच्चों को आईवी लीग भेजने के सपने देखा करते थे, उनके लिए अशोका का आकर्षण बहुत बड़ा था. यहां की फीस विदेशी यूनिर्विसिटी के मुकाबले बहुत कम थी (पर इतनी ज्यादा थी जो उस दौर में भी कल्पना से परे थी).

हमें बताया गया था कि अशोका के संस्थापक ज्यादातर ऐसे लोग थे जिन्होंने अपने दम पर करोड़ों कमाए. अब वे समाज को वह सब लौटाना चाहते हैं, जो समाज ने उन्हें दिया है. यह परोपकार का कारण है इसीलिए भावी भारत को रचने की इस मुहिम में वे न तो नाम कमाना चाहते हैं, न दाम और न ही शोहरत.

अशोका का बिजनेस मॉडल बनाम नैतिकता की हद

टीवी कार्यक्रमों की टीआरपी रेटिंग्स की तर्ज पर विश्वविद्यालयों की रैंकिंग और बाजार के चतुर पैंतरों के साथ ऐसा लग रहा था कि अशोका के संस्थापक कामयाबी का परचम लहरा रहे हैं. इसे मशहूर अमेरिकी सिंगर-सॉन्गराइटर बॉब डिलन के शब्दों में कुछ यूं पेश किया गया कि अशोका में आप वह ‘हासिल कर सकते हैं, जो कहीं और नहीं’ (दैट कैन विन वॉट्स नेवर बीन विन).

लेकिन यह त्रासद था कि पब्लिक यूनिवर्सिटीज के शिक्षाविदों को धीरे-धीरे अशोका की नैतिकता की हदें नजर आने लगी थीं.

अशोका कोई जड्डू कृष्णामूति के ऋषि वैली जैसा हायर एजुकेशन इंस्टीट्यूशन नहीं था जोकि महान विचारक के सिद्धांतों के लिए पूरी तरह समर्पित हो. इसके संस्थापक दरअसल कारोबारी प्रवृत्ति के लोग थे जो उच्च शिक्षा के बारे में कुछ नहीं जानते थे, खास तौर से लिबरल आर्ट्स के बारे में. वे तो बस बैलेंस शीट और निजी क्षेत्र की एचआर प्रैक्टिसेज में पारंगत थे.

अशोका के शिक्षकों को अपनी नौकरी के पक्के होने का भ्रम था लेकिन वे अस्थायी कर्मचारी के तौर पर रखे गए थे जिनकी नौकरियां कभी भी छिन सकती हैं. यूनिवर्सिटी के संस्थापकों को पूरी आजादी थी, पर उनका इरादा एक बिजनेस मॉडल को तैयार करना था. इस बीच लोग संशय से भरे हुए थे कि अशोका से पढ़कर निकलने वाले कितने काबिल हैं. क्या दूसरी यूनिवर्सिटीज की तुलना में उसके स्टूडेंट्स असल दुनिया का मुकाबला कर पाएंगे. क्या एकदम हटकर सोच पाएंगे (सेंट स्टीफन्स या मिरांडा हाउस की फीस से दस गुना से भी ज्यादा चुकाने के बावजूद).

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

अशोका में इस्तीफे- जैसे नींद से जागना

प्रताप भानु मेहता का इस्तीफा मानो एक लंबी नींद के टूटने जैसा है. मानो ज्ञान की प्राप्ति हो गई हो. इस बात का इल्म हो गया हो कि अशोका शिक्षा की नींव पर कायम कंक्रीट का ऐसा परिसर है जोकि दिहाड़ी मजदूरी की परिपाटी पर आधारित है.

इस सिलसिले में मीडिया क्या कह रहा है, उसके ब्यौरे की जरूरत नहीं है. हां, इतना जरूर है कि वह मृगतृष्णा खत्म हो चुकी है.

अशोका को किसे अपना आदर्श बनाना चाहिए

सच तो यह है कि अशोका की रक्षा की जानी चाहिए, वह भी उसके अपने संस्थापकों से.

और उसे आज के भारत के दो कामयाब संस्थानों को अपना आदर्श बनाने की जरूरत है. ये संस्थान हैं, दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) और रिसर्च इंस्टीट्यूट सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस). दोनों लिबरल आर्ट्स के ऐसे संस्थान हैं जोकि समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं. दोनों बहुत अलग हैं, लेकिन कई मामलों में एक जैसे भी हैं.

कम्युनिस्टों से इंदिरा गांधी के बौद्धिक विलास के परिणाम के तौर पर जेएनयू की स्थापना हुई थी और सीएसडीएस की बुनियाद रजनी कोठारी जैसे नई सोच के लोगों ने रखी थी. इनका एक ही उद्देश्य था, विकल्पों की तलाश करना. राजपुर रोड के दफ्तर में रोजाना दोपहर के भोजन के बाद ऐसे ही मसलों पर माथापच्ची हुआ करती थी.

जेएनयू का मॉडल

ये दोनों संस्थान बड़बोले नहीं, सिर्फ बड़ा सोचते हैं. जेएनयू तो विपस्सना का अभ्यास ही है. आपको खुद को जानने में मदद करता है. आप रूढ़ियों पर सवाल उठाते हैं, खुद से भी सवाल पूछते हैं- जब तक कि आप जिज्ञासु न बन जाएं. वहां कोई हॉस्टल्स, खाने, लाइब्रेरी या दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर की क्वालिटी की बात नहीं करता. शिक्षकों, विद्यार्थियों और स्टाफ कमरों की चारदीवारी में ही नहीं, अरावली के खुलेपन में भी विचारों का आदान प्रदान करते हैं- झिझक को छोड़कर. हेरारकी के घमंड को तोड़कर.

अशोका के शिक्षकों और संरक्षकों को यह बताना होगा कि वे विचारों की दुनिया में विचरते हैं, न कि इलीट ग्रुप को ‘सर्वोत्तम शिक्षा’ और स्टेट ऑफ आर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर देना उनका एकमात्र लक्ष्य है.

जेएनयू चलन बनाता है. उसने एक ऐसी बौद्धिक रीति तैयार की है जो सोबॉन या बार्कले का अनुसरण नहीं करता. इसके परिसर में विचारों के अंकुर फूटते हैं. वहां मार्गदर्शक भी हैं और समर्थकों-विरोधियों का जमावड़ा भी जो विविधता का पर्याय है. बदलाव को जन्म देता है (जिसने जेपी आंदोलन को प्रभावित किया और इमरजेंसी का जमकर विरोध किया)-जहां अभिजात्य की उदासीनता नहीं है.

अशोका और उसके मार्गदर्शकों को आत्मनिरीक्षण करना चाहिए

यूनिवर्सिटीज को ऐसे विद्वानों की जरूरत है जो शिक्षा के समग्र दर्शन पर विश्वास रखते हों. जहां तालीम की रोशनी सभी पर बराबर से पड़े, न सिर्फ हिमायत करने वालों पर, बल्कि विरोध करने वालों पर भी. चूंकि दोनों को साथ-साथ बढ़ना चाहिए.

आखिर में, अशोका और उसके मार्गदर्शकों को लगातार आत्मनिरीक्षण करना होगा, और इसी तरह उनका विकास होगा. इसी रास्ते पर वह मुक्ति पा सकता है और भरोसा कायम कर सकता है. चूंकि, किसी शिक्षण संस्थान को बनाना कोई प्रॉडक्ट, या इंटरनेट एप्लिकेशन बेचना नहीं है.

(अमिताभ मट्टू जेएनयू और यूनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न में प्रोफेसर हैं. हाल तक वह मिरांडा हाउस, दिल्ली यूनिवर्सिटी के चेयर थे. उनका ट्विटर हैंडिल @amitabhmattoo है. यह एक ओपनियन लेख है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 22 Mar 2021,07:50 AM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT