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मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की हार तय थी, क्योंकि दोनों राज्यों में वह 15 साल से सत्ता में थी. इसलिए सत्ता विरोधी लहर से उसका बचना मुश्किल था. राजस्थान में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की खराब मैनेजमेंट स्किल और पार्टी की अंदरूनी कलह के चलते भी बीजेपी की हार तय थी. वैसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने इस कलह को दूर करने की भरसक कोशिश की थी. अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता, तो राजस्थान में बीजेपी की कहीं बड़े अंतर से हार होती.
इन नतीजों का एक असर यह हुआ है कि अब कांग्रेस 2019 लोकसभा चुनाव में 120 से अधिक सीटें जीतने की उम्मीद कर रही है, जो अभी की तुलना में तीन गुना अधिक है. दूसरा असर यह है कि इन राज्यों में कांग्रेस नेताओं के बीच मुख्यमंत्री बनने के लिए खींचतान शुरू होगी. तीसरा, मुख्यमंत्री जो भी बने, उस पर लोकसभा चुनाव के लिए फंड जुटाने का दबाव बनेगा.
चौथी बात यह है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पुलिस पर नियंत्रण का संघर्ष भी शुरू होगा. इन दोनों राज्यों की पुलिस को पिछले 15 साल से काम के अलग तरीके की आदत पड़ चुकी है. पुलिस पर कंट्रोल इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसका 2019 लोकसभा चुनाव में बड़ा रोल होगा. पांचवां, इन राज्यों और केंद्र सरकार के बीच अचानक टकराव बढ़ेगा, जिससे आर्थिक फैसले लेने की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है.
हार का छठा और महत्वपूर्ण पर अस्थायी असर यह होगा कि अयोध्या में राम मंदिर बनवाने का दबाव बढ़ जाएगा, क्योंकि इससे यूपी में बीजेपी की जीत और 2019 में उसके कोर वोट बैंक में सेंध रुक सकती है.
उधर, गैर-हिंदीभाषी राज्यों में इन मुद्दों की हमेशा ही कम अपील रही है. बीजेपी को समझना होगा कि देश के सिर्फ सात राज्य हिंदी भाषी हैं. 22 राज्य इससे बाहर हैं. इसलिए ‘हम सब हिंदू हैं’ वाला तरीका काम नहीं करेगा.
अब मोदी और शाह पर आते हैं. सत्ता विरोधी लहर को लेकर दोनों कुछ नहीं कर सकते थे, लेकिन पिछले साल गुजरात और कर्नाटक के बाद उन्होंने अपना तौर-तरीका बदला था.
हालांकि इन नतीजों को देखकर लगता है कि इसमें बहुत बदलाव नहीं आया है. दोनों ने पहली गलती प्रत्याशियों के चुनाव को लेकर की, जो कांग्रेस हमेशा से करती आई है. इस मामले में मोदी-शाह ने सबसे बड़ी गलती 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में की थी, लेकिन 2017 में यूपी में ऐतिहासिक जीत के बाद उन्हें शायद लगा कि एक हार मायने नहीं रखती. उन्हें याद रखना होगा कि खास तौर पर विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों की बड़ी अहमियत होती है.
बेशक इस जीत से कांग्रेस के हौसले बढ़े हैं, लेकिन उसके लिए दिल्ली दूर है. बीजेपी 2019 में अभी भी सबसे बड़ी पार्टी होगी, भले ही वह बहुमत से काफी पीछे रह जाए. बीजेपी के लिए असल मुद्दा यह है कि क्या उसे मोदी-शाह की जोड़ी के साथ बने रहना चाहिए या नई लीडरशिप की तलाश करनी चाहिए. अब तक इन दोनों का कद वाजपेयी-आडवाणी जितना बड़ा नहीं हुआ है.
अगर 2019 में पार्टी की सीटें 100 से अधिक कम होती हैं, तो उन्हें ढूंढने से दोस्त नहीं मिलेंगे. आने वाला वक्त दिलचस्प होगा, खासतौर पर राजनीतिक तौर पर. बदकिस्मती की बात यह है कि दिलचस्प सियासत का दौर अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होता.
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Published: 12 Dec 2018,06:32 PM IST