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मजाक की तरह चल रहा है देश का एविएशन बिजनेस 

एविएशन सेक्टर मजाक की तरह चल रहा है इसलिए दिवालिया कंपनियों की संख्या बढ़ती जा रही है

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
जेट के विमानों के ग्राउंडेड होने के बाद एविएशन सेक्टर के कारोबार मॉडल पर चर्चा गर्म
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जेट के विमानों के ग्राउंडेड होने के बाद एविएशन सेक्टर के कारोबार मॉडल पर चर्चा गर्म
फोटो : रॉयटर्स 

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बंद हो चुकी जेट एयरवेज पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है, लेकिन मैं इस बहाने से देश के ट्रांसपोर्ट बिजनेस के अर्थशास्त्र पर बात करना चाहता हूं, जिस पर शायद ही कभी चर्चा होती है. कुछ ही लोग जानते हैं कि देश में न सिर्फ ट्रांसपोर्ट इकनॉमिस्टों की कमी है बल्कि एविएशन इकनॉमिस्ट तो एक भी नहीं है. इसलिए ट्रांसपोर्ट सेक्टर को रेलवे मैन, रोड इंजीनियरों, ट्रक मालिकों, शिपिंग कंपनियों, बंदरगाह के मैनेजरों और एविएशन रेगुलेटर डीजीसीए की राय से चलाया जा रहा है.

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यह मजाक नहीं तो क्या है? ट्रांसपोर्ट बिजनेस में बहुत पूंजी लगती है. इसलिए इसमें सबसे बड़ी बात पूंजी का सही इस्तेमाल है. हालांकि भारत में हम पूंजी को या तो अछूत मानते हैं या यह समझते हैं कि यह मुफ्त में मिलती है.

इसी वजह से ट्रांसपोर्ट सेक्टर को लेकर बहुत कम प्रोफेशनल रिसर्च हुई है, जबकि इसमें निवेश और बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करने के काफी मौके हैं. खैर, इसकी परवाह किसे है. इसलिए इंडस्ट्री को ऐसे लोग चला रहे हैं, जिनकी मिनिस्ट्री के साथ सही ‘सेटिंग’ है. कुल मिलाकर, काफी कन्फ्यूजन है.

जब सब कुछ सेटिंग पर टिका हो तो क्या चिंता ?

अब तो एविएशन सेक्टर में दिवालिया कंपनियों की संख्या भी बढ़ रही है. पिछले 25 साल में दो बड़ी और कई छोटी एयरलाइंस फेल हो चुकी हैं. इससे पता चलता है कि इस बिजनेस को लेकर कितनी कम समझ है. इस इंडस्ट्री में जितनी पूंजी और जैसी स्किल की जरूरत होती है, उसे देखते हुए किसी अर्थशास्त्री के मन में पहला सवाल यह उठना चाहिए कि एक रूट पर कितनी उड़ानें चलाई जा सकती हैं? दो, तीन, चार, पांच, छह या इससे अधिक? इस पर गौर करिए कि मैं रूट की बात कर रहा हूं, न कि इंडस्ट्री की.

भारत में हम अक्सर इन दोनों को मिला देते हैं. हम देश में सभी बड़े रूट्स पर कंपनियों को फ्री एंट्री देते हैं क्योंकि हमारा ध्यान बिजनेस को टिकाऊ बनाने पर नहीं होता. जब सब कुछ सेटिंग पर निर्भर हो, तो इसकी चिंता कौन करे.

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क्रॉस सब्सिडी का उलझा सवाल

दूसरी बात क्रॉस-सब्सिडी (किसी एक वर्ग को सब्सिडी देने के लिए दूसरे पर बोझ बढ़ाना) के नेचर से जुड़ी है, जो ट्रांसपोर्टेशन इंडस्ट्री के लिए काफी अहमियत रखती है. इंडस्ट्री में मुनाफे वाले रूट्स से घाटे वाले रूट्स को सब्सिडी दी जाती है, लेकिन भारत में यह सब्सिडी इंट्रा-फर्म यानी कंपनी के अंदर तक सीमित नहीं है. यह सब्सिडी यहां सभी कंपनियों को दी जाती है.

कैटेगरी ए, बी और सी मेथड के जरिये एयर इंडिया की कीमत पर निजी एयरलाइंस को परोक्ष सब्सिडी मिल रही है. लेकिन एयर इंडिया तो टैक्सपेयर्स के पैसों से चल रही है. इसका मतलब यह है कि टैक्सपेयर असल में निजी एयरलाइंस को सब्सिडी दे रहे हैं. बेवकूफाना नीतियां बनाने में हम कितने माहिर हैं, यह उसकी एक और मिसाल है. अच्छा तो यह होता कि सरकार निजी एयरलाइंस को सीधे यह सब्सिडी दे देती. इससे कम से कम पारदर्शिता तो रहती.

कोई अर्थशास्त्री तीसरा सवाल यह करेगा कि एविएशन बिजनेस को फायदेमंद बनाए रखने के लिए लगाई गई पूंजी पर कितना रिटर्न जरूरी है. ऊपर जिन दो सवालों का जिक्र किया गया है, इससे उनका भी जवाब मिल जाएगा. ग्लोबल लेवल पर 10 साल की अवधि में इंडस्ट्री को सिर्फ एक पर्सेंट का रिटर्न मिलता है. इसलिए इस बिजनेस को नापसंद किया जाता है.

कंपनियों की संख्या सीमित करनी होगी

इसलिए आखिर में हमें एविएशन कंपनियों की संख्या सीमित करने के बारे में सोचना होगा. इससे क्रॉस-सब्सिडी की समस्या खत्म हो जाएगी. कंपनियों की संख्या जितनी अधिक होगी, इंट्रा-फर्म क्रॉस-सब्सिडी की जरूरत भी उतनी ही ज्यादा होगी. तब कंपनियां रामसी रूल के एक वेरिएंट पर फोकस करेंगी, जो कहता है कि नेटवर्क कंपनियों को मुनाफे के बजाय अधिक से अधिक आमदनी हासिल करने का जतन करना चाहिए.

यह लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है, जब इस बिजनेस पर सरकार का एकाधिकार हो. हालांकि, निजी क्षेत्र में एकाधिकार होने पर कंपनियां अधिकतम मुनाफा बनाने की कोशिश करती हैं. पर सरकारी कंपनी को इसका उल्टा करना होगा.

कहने का मतलब यह है कि अगर हम सरकारी एकाधिकार से बचना चाहते हैं तो एविएशन सेक्टर में कंपनियों की संख्या सीमित करने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है.

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