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मंदिरों में यौन शोषण की देवदासी प्रथा पर कानूनी रोक लग गई है, लेकिन धर्म के नाम पर मठों और आश्रमों में महिलाओं की देह के साथ खिलवाड़ जारी है.
यह लिस्ट अंतहीन है. आश्रमों और मठों में यौन शोषण और यौन उत्पीड़न की खबरें इतनी आम हैं कि लोगों ने उस पर चौंकना बंद कर दिया है. यह कहना भी मुश्किल है कि यौन उत्पीड़न की कितनी घटनाएं इन आश्रमों के दरवाजों से बाहर आ पाती हैं और कितनी घटनाएं अंदर ही दफन हो जाती हैं.
ऊपर दर्ज तमाम घटनाओं में कुछ बातें समान हैं.
हो सकता है कि उन्हें पता हो कि सेवा में यौन शोषण शामिल है. यह भी मुमकिन है कि यह बात उन्हें पता न हो. लेकिन जोर-जबर्दस्ती आश्रम में लाए जाने का कोई मामला है भी तो परिवार के स्तर पर है. बाबा आम तौर पर आध्यात्मिक अनुभव दिलाने के नाम पर महिलाओं से सहमति ले लेते हैं और फिर उनके साथ यौन संबंध बनाते हैं. साथ ही बाबाओं का पुलिस, प्रशासन और राजनीति में इतना दबदबा होता है कि पीड़िता मुंह बंद रखने को मजबूर हो जाती है.
इसके अलावा, भारतीय समाज में यौन उत्पीड़न की शिकार महिला लांछन के साथ जीने को मजबूर हो जाती है. इसलिए भी कई घटनाएं सामने नहीं आतीं. बाबाओं के भक्त तो अक्सर यह मानने को भी तैयार नहीं होते कि बाबा ऐसी हरकत कर सकते हैं.
भारतीय धर्मग्रंथ भी ऐसी घटनाओं से भरे पड़े हैं, जब ऋषियों ने लड़कियों से यौन संबंध बनाए और बच्चे पैदा किए. ऐसा एक भी वाकया नहीं है, जब किसी कन्या या उसके परिवार के लोगों ने किसी ऋषि का इसलिए विरोध किया कि उसने कन्या के साथ यौन संबंध स्थापित किए. ऐसे यौन संबंधों को ऋषियों का धार्मिक अधिकार और लड़कियों का धार्मिक कर्तव्य माना जाता था. इन घटनाओं का जिक्र कुछ इस अंदाज में है, मानो ऋषि ने किसी लड़की के साथ यौन संबंध स्थापित करके उस पर उपकार किया हो. आज भी इसका असर बाकी है.
मंदिरों में होने वाला यौन शोषण आम तौर पर सहमति से होने वाला कृत्य है. यह सहमति हमारी संस्कृति और परंपराओं से बनती है.
इस तरह की घटनाओं में किसी भी पक्ष को शिकायत नहीं होती और यह सालों-साल तक चलता रह सकता है.
यहां गोपनीयता बरतने में हर पक्ष का हित है. पुजारी अपनी नैतिकता का बाहरी आवरण बनाए रखता है और परिवार भी लोकलाज बचाए रखता है.
दक्षिण और मध्य भारत की कई जातियों को यह धार्मिक शिक्षा दी जाती है कि उन्हें अपनी बेटियां मंदिरों को सेवा के लिए दे देनी चाहिए. इसे उनका धार्मिक कर्तव्य बताया जाता है. ये आम तौर पर सामाजिक पायदान में नीचे की जातियां होती हैं.
कर्नाटक की एक जाति में अगर लड़कियों के बालों में लट बन गई, जो साफ-सफाई न रखने का परिणाम है, तो इसे इस बात का संकेत माना जाता कि उस लड़की को देवदासी बनाकर मंदिर को सौंप देना चाहिए. कुछ साल के बाद ऐसी ज्यादातर लड़कियां यौन बाजार में पहुंच जाती हैं.
कोई कह सकता है कि अगर परिवार चाहता है कि उनकी बेटी मंदिर की सेवा करे, और जैसा चाहे वैसी सेवा करे तो इसमें किसी को दिक्कत क्यों होनी चाहिए? इसमें तीन दिक्कतें हैं.
किसी लड़की को वेश्यावृत्ति में धकेलना कानूनी जुर्म है और इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि ऐसा उस लड़की या उसके परिवार की सहमति से हो रहा है. यह भी देखना होगा कि सहमति क्यों दी जा रही है. मिसाल के तौर पर, नशे में ली गई सहमति की कोई कानूनी मान्यता नहीं होती. अपनी मासूम लड़कियों को आश्रम में पहुंचा आने वाले लोग भी एक तरह के नशे के शिकार होते हैं. यह आस्था और विश्वास का नशा है. इसलिए अगर कोई पति दबाव डालकर अपनी पत्नी को सेवा के लिए मंदिर को सौंपता है और अगर उसे पता है कि उसकी पत्नी का बलात्कार, सेवाओं में शामिल है, तो उस पति के खिलाफ कानून की संबद्ध धाराएं लगेंगी.
साथ ही, सहमति किसी गैरकानूनी काम को कानूनी बनाने का आधार नहीं हो सकती. इसी तरह कोई बाबा भी यह कहकर कानून से नहीं बच सकता कि महिला तो अपनी मर्जी से यौन संबंध बनाने आई है. अगर वह महिला विवाहिता है तो उस महिला का पति बाबा पर व्यभिचार का मुकदमा कर सकता है, जिसमें तीन साल की सजा का प्रावधान है.
समस्या तब आती है] जब महिला वयस्क है और यौन संबंध में उसकी सहमति है. ऐसे मामले में बाबा पर कोई कानूनी केस नहीं बनता. ऐसे मामले धर्म, नैतिकता और आस्था के दायरे में हैं.
जब तक आस्था यह सिखाती रहेगी कि बहू-बेटियों को आश्रमों को सौंप देना चाहिए, या उन्हें बाबाओं के हवाले कर देना पुण्य का काम है, या कि बाबाओं के आशीर्वाद से बच्चा या बेटा होता है, या कि बाबाओं से यौन संबंध बनाना ईश्वरीय अनुभव है, तब तक शोषण का यह तरीका बेखटके चलता रहेगा.
छिटपुट मामलों में जब बाबा या महिला] किसी एक पक्ष से सहमति टूटती है, तभी विवाद कानून के दायरे में आ पाता है.
इस लेख की शुरुआत में जिन घटनाओं का जिक्र है, उनके बारे में हम सिर्फ इसलिए जानते हैं कि इन मामलों में पीड़ित पक्ष की सहमति टूटी है. ऐसा आम तौर पर नहीं होता.
(ये आर्टिकल गीता यादव ने लिखा है. लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं.इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 22 Jun 2018,09:06 PM IST