मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019गणतंत्र दिवस के दिन अयोध्या के करीब मस्जिद की नींव रखने का मतलब

गणतंत्र दिवस के दिन अयोध्या के करीब मस्जिद की नींव रखने का मतलब

धन्नीपुर में मस्जिद की नींव का कार्यक्रम खबरों में नहीं रहा, और यही देश की राजनैतिक सच्चाई का आइना है

नीलांजन मुखोपाध्याय
नजरिया
Published:
प्रतीकात्मक फोटो
i
प्रतीकात्मक फोटो
फोटो : द क्विंट

advertisement

अयोध्या के पास के एक गांव में मस्जिद निर्माण की शुरुआत गणतंत्र दिवस के दिन हुई और वहां यह समारोह राम मंदिर निर्माण के अभियान से बहुत अलग था. जहां राम मंदिर की नींव एक भव्य समारोह में रखी गई थी, वहीं मस्जिद की नींव से जुड़ा कार्यक्रम एकदम सादगी भरा था.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर मुसलमान समुदाय के प्रतिनिधियों को मस्जिद बनाने के लिए यह जगह दी गई है. यहां 26 जनवरी को मस्जिद की नींव रखने के अलावा लोगों ने पौधे लगाए और तिरंगा फहराया. कार्यक्रम बहुत सादा इसलिए भी था क्योंकि यहां कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं हुआ, और न ही कोई वीआईपी पधारा.

बेशक, यह भी सच है कि इस्लाम में शिलान्यास या भूमि पूजन जैसे कोई रिवाज नहीं. लेकिन खास यह है कि इस कार्यक्रम के लिए विशेष तौर से गणतंत्र दिवस को चुना गया और इसी से यह फैसला बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.

पर कोई मीडिया कवरेज या भव्य समारोह नहीं

मस्जिद की नींव रखने के लिए उस दिन को चुना गया जिस दिन भारतीय संविधान लागू किया गया था. इसी से पता चलता है कि इस काम की बागडोर जिन लोगों ने संभाली है, उनके समुदाय से उस संविधान का कितना गहरा रिश्ता है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की ‘पवित्र किताब’ कहते हैं. ऐसी सोच उन लोगों की भी होनी चाहिए जिन्होंने हाल फिलहाल में संविधान का जय गान करना सीखा है.

यह कार्यक्रम खबरों में नहीं रहा, और यही देश की राजनैतिक सच्चाई का आइना है. ऐसा आइना जिसमें राम मंदिर में ‘हारे हुए’ मुसलमानों पर जीत की छवि दिखती है.

जैसा कि पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था, इतिहास विजेता ही लिखा करते हैं.

यही वजह है कि अगस्त 2020 में भूमि पूजन या राम मंदिर के लिए दरवाजे-दरवाजे ‘निधि समर्पण’ अभियान को इतना कवरेज मिलता है. फिर 15 जनवरी को जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ‘व्यक्तिगत’ क्षमता से मंदिर निर्माण के लिए दान दिया तो इस आयोजन को जैसे जोरदार धक्का लगा.

हां, उस मस्जिद परिसर के लिए ऐसी कोई पहल नहीं हुई जिसमें एक मल्टी स्पेशिएलिटी अस्पताल, एक कम्यूनिटी किचन और लाइब्रेरी होगी.

अब यह भी बताना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने मस्जिद और दूसरे निर्माण के लिए जो इंडो-इस्लामिक कल्चर फाउंडेशन बनाई है, उसे दिए जाने वाले चंदे को टैक्स छूट की इजाजत अब तक नहीं मिली है.

पर श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के योगदान इनकम टैक्स एक्ट की धाराओं के तहत छूट के पात्र हैं.

नई मस्जिद, यानी बहुसंख्यक घमंड का विनम्र जवाब

आपको शायद पता न हो लेकिन अयोध्या की ‘धार्मिक सरहद’ के बाहर धन्नीपुर गांव में मस्जिद परिसर सभी धर्म के लोगों के लिए खुला होगा, लेकिन दिसंबर 1992 से पहले जहां बाबरी मस्जिद मौजूद थी, वहां बनने वाले मंदिर परिसर में सिर्फ घोषित हिंदू जा सकेंगे.

और, दिसंबर 2020 में जैसा शोकेस किया गया था, मस्जिद के पूरा प्रॉजेक्ट का वास्तुशास्त्र आधुनिक शैली का होगा, परंपरागत मस्जिद जैसा नहीं होगा.

इसका ब्ल्यूप्रिंट एक एकैडमिक ने बनाया है, और उसमें न गुंबद होगा, न ही मीनारें. इसे बाबरी मस्जिद नाम भी नहीं दिया जाएगा. न ही किसी मुसलमान शासक, मुगल या किसी और के नाम पर इसका नाम होगा.

इसके एकदम उलट, राम मंदिर के डिजाइन को जुलाई 2020 में बदल दिया गया था. अब इसमें पहले की तरह तीन नहीं, पांच शिखर होंगे.

जिस राम जन्मभूमि अभियान को एल के आडवाणी ने करीब तीन दशक पहले शुरू किया था, वह सिर्फ अयोध्या में मंदिर बनाने तक सीमित नहीं था. इसके तमाम प्रयोजनों में से एक भारत के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय पर आधिपत्य का प्रतीक भी था. अब सिर्फ अयोध्या ही नहीं, इसे तरह तरह से प्रदर्शित किया जा रहा है.

बाबरी मस्जिद फैसले पर मुसलमानों की दुविधा- दुख जताना है, या छिपाना

9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने हिंदुओं को विवादित जमीन सौंपी और मुसलमानों को हताशा. लेकिन अदालत ने जब वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए 5 एकड़ की उपयुक्त जमीन देने का निर्देश दिया तो इस फैसले पर अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह से प्रतिक्रिया दी.

एक वर्ग चाहता था कि बोर्ड इस पेशकश को ठुकरा दे और दूसरे का मानना था कि किसी विनाश के दुख को गले लगाकर बैठने से कुछ हासिल नहीं होने वाला. इसके बजाय वर्तमान में जीने की जरूरत है. यही सोच कायम रही.

एक तरह से दोनों वर्गों अपनी-अपनी स्थिति सही कर रहे थे. इस फैसले की आलोचना करने वाले बहुसंख्यकों के दिल में कांटे की सी चुभन बनकर प्रासंगिक बने रहना चाहते थे, तो दूसरा वर्ग चाहता था कि इस नए मौके का फायदा उठाया जाए, भले ही वह मौका कितना भी छोटा हो.

कुल मिलाकर मुसलमान समुदाय में इस बात पर अलग-अलग राय थी कि सरकार से जमीन कबूल की जाए या नहीं (हालांकि यह मुफ्त दी जा रही थी लेकिन फाउंडेशन ने अपने नाम पर उस पांच एकड़ जमीन को रजिस्टर करने के लिए 9 लाख रुपए से ज्यादा की स्टांप ड्यूटी चुकाई है). यह उस पूरे समुदाय की दुविधा को दर्शाता है कि उसे अपनी पहचान कैसे साबित करनी है, उस दुख को कैसे जताना है. जताना भी है या नहीं, या छिपा जाना है.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

क्या नई मस्जिद से मुसलमानों को इज्जतदार जिंदगी मिलेगी

मोदी ने भूमि पूजन के बाद भाषण में कहा था कि मंदिर भारत की संस्कृति, शाश्वत आशा, राष्ट्रीय भावना का प्रतीक है और नागरिकों की सामूहिक इच्छा का प्रतिबिंब. उन्होंने कहा था कि यह मंदिर भावी पीढ़ियों के मन में उम्मीदों, भक्ति और दृढ़ संकल्प को प्रेरित करेगा.

इन दावों के बीच सवाल किया जा सकता है, मस्जिद और उसके दूसरे निर्माण क्या दर्शाते और प्रतीक प्रस्तुत करते हैं?

क्या यह देश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के लिए सम्मान और पहचान के एक नए राष्ट्रीय संकल्प का प्रतिनिधि होगी?

या मस्जिद परिसर हाशिए पर पड़े उस समुदाय का प्रतीक होगा जिसका वजूद न के बराबर है, जिसे लगातार अनदेखा किया जाता है, जिसकी हर वक्त अवहेलना की जाती है.

बाबरी मस्जिद के 464 साल के जीवन काल में 136 साल विवादित रहे. फिर भी उसकी याद बनी रहेगी, इसके बावजूद कि मंदिर निर्माण के लिए जमीन सौंपने के बाद वह ‘मूल’ अयोध्या (2018 से पहले उस जिले का नाम फैजाबाद था और यह शहर सिर्फ म्यूनिसिपैलिटी था) की सीमा से ‘निर्वासित’ की जा चुकी है.

वैसे फाउंडेशन की योजना है कि मस्जिद को दो साल में बना दिया जाए.

क्या इस मस्जिद-म्यूजियम-अस्पताल परिसर को देखने लोग पहुंचेंगे या इसे वैसे ही नजरंदाज किया जाएगा, जैसे गणतंत्र दिवस के दिन किया गया, जब इसकी नींव रखी गई.

वैसे ‘नए भारत’ का काम इस ढांचे के बिना भी चल सकता था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को वही विकल्प दिया, जो पहले से तय था.

नई मस्जिद मुसलमान ही नहीं, दूसरी आस्था के लोगों का भी ध्यान खींचेगी

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को पांच एकड़ जमीन देने का निर्देश तो दिया ही था, साथ ही दो विकल्प भी रखे थे. केंद्र अयोध्या ऐक्ट 1993 के तहत अधिगृहीत भूमि में मस्जिद के लिए जगह दे सकता है या राज्य सरकार “अयोध्या में उपयुक्त प्रमुख स्थान” पर मस्जिद निर्माण के लिए जमीन दे सकती है.

अब संघ परिवार यह कह चुका था कि वह सालाना परिक्रमा मार्ग के दायरे में नई मस्जिद बनने की इजाजत नहीं देगा, तो दूसरा विकल्प ही चुना जाना था.

तो मस्जिद के लिए अयोध्या की सीमा से 25 किलोमीटर दूर धन्नीपुर गांव में जमीन दी गई.

राम मंदिर के आंदोलन में संघ परिवार ने दावा किया था कि शहर के बाहर बाबरी मस्जिद मुसलमानों के लिए कोई अहमियत नहीं रखती और मुसलमानों को हिंदुओं को यह जगह सौंपने में हिचक नहीं होनी चाहिए.

इससे अलग, मंदिर बनाने की दलील यह थी कि भगवान राम दुनिया भर में हिंदुओं के महाप्राण हैं. यह भी कहा गया था कि बाबरी मस्जिद तो ‘कहीं भी’ हो सकती है लेकिन राम मंदिर तो सिर्फ अयोध्या की खास जमीन पर ही बन सकता है.

विरोधाभास है, नई मस्जिद मुसलमानों का ही नहीं, दूसरी आस्था के लोगों का भी ध्यान खींचेगी. इसके बावजूद कि उसे बनाने के लिए अयोध्या के बाहर जमीन दी गई और इस तरह मुसलमानों के लिए वहां जाकर बकायदा नमाज पढ़ना मुश्किल किया गया.

जब बहुसंख्यक ही विजेता हैं तो उन्हें अब इस घटनाक्रम पर शांति बनाए रखनी चाहिए.

(लेखक दिल्ली में रहने वाले पत्रकार और लेखक हैं. उनकी हालिया किताब है, द आरएसएस: आइकन्स ऑफ द इंडियन राइट. वह @NilanjanUdwin पर ट्विट करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

पढ़ें ये भी: बजट 2021:किसान,टैक्स,हेल्थ पर कल क्या हेडलाइन संभव हैं?आज ही पढ़ें

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT