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हमारे देश में चीजें पहले खराब होती हैं, फिर स्थिति में सुधार शुरू होता है. सरकारी बैंकों को लेकर केंद्र के हालिया कदम से भी यह बात सच साबित होती है. साल 2013 से बैंकिंग सिस्टम बैड लोन से परेशान है. इसे दूर करने के लिए सरकार ने पब्लिक सेक्टर बैंकों के लिए 2.11 लाख करोड़ के वित्तीय पैकेज का ऐलान किया है. इस दिशा में यह पहला कदम है और इसकी तारीफ होनी चाहिए. हालांकि सिर्फ फंड देने से ही बात नहीं बनेगी. सरकार को अपने बैंकों के कामकाज में भी सुधार लाना होगा. उसने इसका वादा तो किया है, लेकिन वह क्या कदम उठाने जा रही है, इसकी जानकारी नहीं दी है.
देश में अभी 9.5 लाख करोड़ रुपये का बैड लोन है. इसमें बड़ा योगदान सरकारी बैंकों का है. वित्तीय पैकेज के ऐलान के बाद सरकारी बैंकों के शेयर प्राइस में तूफानी तेजी आई है, लेकिन इसके बावजूद उनकी मार्केट वैल्यू प्राइवेट बैंकों के मुकाबले आधी से कम है.
वहीं, देश के सबसे बड़े बैंक एसबीआई की मार्केट वैल्यू HDFC बैंक से आधी है और बैंक ऑफ बड़ौदा और पंजाब नेशनल बैंक का मार्केट कैप नॉन-बैंकिंग फाइनेंस कंपनी बजाज फाइनेंस से कम है.
यह बात सही है कि सरकारी बैंकों ने ना सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक-राजनीतिक बदलाव में भी भूमिका निभाई है. 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे यही सोच थी. हालांकि 1980 तक जब पांच और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना था, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की दिलचस्पी भी उसमें नहीं रह गई थी. पूर्व आरबीआई गवर्नर आईजी पटेल ने अपनी किताब में इसका दावा किया था.
सरकारी बैंकों को लेकर आज हमें यह सवाल करना चाहिए कि क्या इसकी जरूरत है? 2009 में वित्तीय क्षेत्र में सुधारों के लिए बनी रघुराम राजन समिति की रिपोर्ट में कहा गया था, ‘हममें से अधिकतर लोग बैंकों पर सरकार का मालिकाना हक नहीं चाहते.’
इसके दो दशक बाद किसी सरकारी बैंक में केंद्र की सबसे कम हिस्सेदारी 58 पर्सेंट है. केंद्र को इन बैंकों में अपना हिस्सा एक ट्रस्ट या सॉवरेन फंड (जैसे सिंगापुर सरकार का टेमासेक फंड है) को ट्रांसफर कर देना चाहिए. इससे सरकारी बैंकों को प्रोफेशनल बनाने में मदद मिलेगी और आज की तरह बैड लोन की समस्या खड़ी नहीं होगी.
बैड लोन में इंफ्रास्ट्रक्चर, पावर, टेलीकॉम, ट्रांसपोर्ट और स्टील सेक्टर का बड़ा योगदान है. यहां की मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को ब्यूरोक्रेसी, मार्केट और प्राइसिंग की पॉलिटिक्स से जूझना पड़ता है. लेबर और जमीन खरीदने के नियमों की वजह से भी उन्हें दिक्कत होती है. कंपनियों को कोर्ट की दखलंदाजी, आंदोलनों और सरकार की नीतियों से जुड़े जोखिम का भी सामना करना पड़ता है.
देश में ज्यादातर कंपनियों के साथ बिजनेस और पॉलिटिकल रिस्क जुड़ा है. किसी कंपनी से बिजनेस रिस्क को समझने और मैनेज करने की उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन कोई पॉलिटिकल रिस्क का अंदाजा कैसे लगाए.
साल 1950 और 1960 के दशक में सरकार ने लंबी अवधि के कर्ज देने के लिए 1948 में IFCI लिमिटेड, 1955 में ICICI, 1964 में IDBI और UTI की स्थापना की थी. इनमें से IFCI फेल हो गई और IDBI और ICICI को बैंक में बदल दिया गया. 1990 के दशक के आखिर में सरकार को स्पेशल इंस्टीट्यूशंस की जरूरत महसूस हुई. इसलिए 1997 में IDFC, 2006 में IIFCL और 2015 में NIIF की स्थापना हुई. IDFC आज बैंक बन चुका है और बाकी दोनों के कामकाज ने रफ्तार नहीं पकड़ी है. देश में लंबी अवधि के कर्ज की समस्या इतना सब कुछ होने के बाद भी दूर नहीं हुई है.
सरकार को तय करना होगा कि वह प्लेयर, अंपायर, दर्शक या चीयरलीडर क्या बनना चाहती है. इतना ही नहीं, उसे यह भी तय करना होगा कि वह इकोनॉमी के किस सेक्टर के लिए अपनी क्या भूमिका चाहती है? इसी के बिजनेस और पॉलिटिकल साइकिल का मैनेजमेंट बेहतर होगा, जिससे उसकी सफलता या असफलता तय होगी.
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