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संडे व्यू: देश के बड़े अखबारों में आज छपे बेस्ट आर्टिकल 

देश और दुनिया के महत्वपूर्ण मुद्दों पर देश के जाने माने लोगों की राय...

द क्विंट
नजरिया
Published:
अखबारों के बेस्ट लेखकों के ओपिनियन लेख    (फोटोः istock)
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अखबारों के बेस्ट लेखकों के ओपिनियन लेख   (फोटोः istock)
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1. नोटों पर सर्जिकल अटैक की नाकामी

अमर उजाला में पी. चिदंबरम ने सीमा पार और पुराने नोटों, दोनों पर सर्जिकल स्ट्राइक की सार्थकता पर सवाल उठाए हैं. वह लिखते हैं- दुर्भाग्य से, सीमा पार कार्रवाई और कुछ भी हो, सर्जिकल स्ट्राइक नहीं होती. सर्जिकल स्ट्राइक से यथास्थिति नहीं बदलती. भारतीय सेना यह जानती है, इसके बावजूद कुछ वजहों से उसने मौजूदा केंद्र सरकार का समर्थन किया.

रक्षा मंत्री ने शहरों में जाकर गरजना शुरू किया कि सर्जिकल स्ट्राइक के जरिये पाकिस्तान को सबक सिखाया गया और इससे अब सीमा पार से घुसपैठ पर रोक लगेगी. लेकिन इसके बाद भी सैन्य ठिकानों पर आतंकी हमले हुए और वे सफल भी रहे. चिदंबरम ने आंकड़े देकर बताया है कि हालात बदतर हुए हैं.

चिदंबरम कहते हैं कि पुराने नोटों को बंद करते हुए यह ऐलान किया गया कि नकली नोट, आतंकवाद की फंडिंग, काला धन और भ्रष्टाचार पर यह सर्जिकल स्ट्राइक है. लेकिन क्या नकदी पर सर्जिकल स्ट्राइक से काला धन खत्म हो गया.

हाल में जो तड़क-भड़क वाली शादियां हुईं उसमें क्या यह मान लिया जाए कि ये मामूली बजट में हुईं. हाल में लोगों के पास से 2000 की गड्डियां बरामद हुई हैं. क्या आतंकवाद की फंडिंग खत्म हो गई. 22 नवंबर को बांदीपोरा में मारे गए दो आतंकियों के पास से नए 2000 के नोट मिले हैं. क्या भ्रष्टाचार मिट गया? देश के कई राज्यों में 2000 के नोटों में घूस लेने के मामले में कई गिरफ्तारियां हुई हैं. क्या सरकार को फायदा हुआ. इसे बताने के लिए रिजर्व बैंक का हालिया बयान काफी था.

2. अम्मा के गवर्नेंस मॉडल पर सवाल

इस सप्ताह कई बड़े स्तंभकारों ने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के निधन पर उनके सकारात्मक पहलुओं को याद करते हुए भावभीनी श्रद्धांजलि दी है और अम्मा की सब्सिडी कार्यक्रमों की तारीफ की है. लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन एस अंकलसरैया ने उनके नेतृत्व को अधिनायकवादी करार दिया है और उनके शासन को भ्रष्टाचारी और लोगों के लिए मुफ्त सामान लुटाने वाला कहा है.

अंकलसरैया ने सवाल किया है कि क्या लोग खुद पर लुटाई जाने वाली मुफ्त स्कीमों की वजह से नेताओं को वोट देते हैं. वह कहते हैं कि ऐसा नहीं है. तमिलनाडु और कहीं भी जनता अब सत्ताधारी पार्टी को उसके खराब गवर्नेंस की वजह से हराती है. उन्होंने बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा और यूपी यानी बीमारुउ राज्यों का उदाहरण देते हुए कहा है कि जिन राज्यों में जीडीपी दर अच्छी रही और प्रशासन स्वच्छ रहा वहां सत्ताधारी पार्टी बार-बार जीती. इसलिए यह कहना कि लोकलुभावन और सब्सिडी वाले कार्यक्रमों की वजह से चुनाव जीते जाते हैं गलत है.

अंकलसरैया लिखते हैं- राजनीति व्यापार बन गई है. सरकारें सत्ता में रहते हुए भारी धन उगाहती हैं और फिर वोटरों को मुफ्त चीजें बांट कर खरीद लेती हैं. छोटी पार्टियों और वोटों को खरीदकर गठबंधन बनाए जाते हैं. फिर ये चुनाव जिताने की गारंटी नहीं है. अच्छे प्रशासन और भ्रष्टाचार रहित सरकार ही चुनाव जिताने की गारंटी हैं.

3. जयललिता का विनम्र पहलू

हिन्दुस्तान टाइम्स में करन थापर ने जयललिता के विनम्र पहलू को याद किया है. करन थापर ने उनके साथ अपने पहले इंटरव्यू को याद किया है, जब तीखे सवालों की वजह से अम्मा उनसे नाराज हो गई थीं. 2004 में बीबीसी के हार्ड टॉक कार्यक्रम के लिए किए गए इंटरव्यू में जब करन ने पूछा कि उनके मंत्री उन्हें दंडवत क्यों करते हैं तो जयललिता ने नाराजगी दिखाते हुए कहा कि यह भारतीय परंपरा है.

इंटरव्यू खत्म करते हुए जब करन ने हाथ बढ़ाते हुए यह कहा कि आपसे बात कर काफी खुशी हुई तो जयललिता ने दूर से हाथ जोड़ते हुए कहा कि उन्हें बिल्कुल खुशी नहीं हुई. लेकिन यही जयललिता एक कार्यक्रम में करन को ओडिशा के सीएम से बातचीत करते देख खुद चली आईं और उनसे खास तौर पर बातचीत की. उनके दिमाग में पहले के तीखे इंटरव्यू की छाप नहीं थी.

करन लिखते हैं- जब मैंने उन्हें पहले इंटरव्यू की याद दिलाते हुए कहा कि क्या वह इसे भूल चुकी हैं. तो उन्होंने हंसते हुए कहा कि क्या अब दूसरे इंटरव्यू की बारी नहीं है. जिस जिंदादिली और विनम्र अंदाज ने उन्होंने पुरानी कड़वी याद को झटक दिया, वह काबिलेतारीफ था. दरअसल कद्दावर नेता अपनी छाप छोड़ ही जाते हैं.

4. विरोध की वह अकेली आवाज

इस सप्ताह दक्षिण की एक और हस्ती श्रीनिवास अय्यर रामास्वामी यानी चो रामास्वामी का निधन हो गया. हिंदी दैनिक ‘अमर उजाला’ में वरिष्ठ तमिल लेख और पत्रकार जी शंकरन ने उन्हें याद करते हुए लिखा है- पचास वर्ष पहले तमिलनाडु जब द्रविड़ वैचारिकता की गिरफ्त में आ गया था, तब श्रीनिवास अय्यर रामास्वामी यानी चो रामास्वामी विरोध की अकेली आवाज थे. लेकिन उन्होंने हरसंभव कोशिश की कि उनकी आवाज को उसके तीखेपन में नहीं बल्कि व्यंग्य की पैनी और रचनात्मक शैली में सुना जाए.

द्रविड़ आंदोलन और कांग्रेस का एक भी नेता उनके व्यंग्य के निशाने से बच नहीं पाया. इससे उनकी पत्रिका तुगलक के पाठकों में यह विश्वास पनपा कि चो की मारक लेखनी से कोई बच नहीं सकता. चो रामास्वामी मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था और निजी क्षेत्र के समर्थक थे. चो ने उस दौर में दक्षिणपंथी अनुदारवाद का प्रतिनिधित्व किया जब यह धारा उतनी मजबूती से नहीं उभरी थी. इसके बावजूद उनकी छवि पर खास फर्क नहीं पड़ता था. असंख्य लोग व्यंग्यों के जरिये सामाजिक बदलाव लाने के उनके काम को प्रशंसा और सम्मान की दृष्टि से देखते थे.

5. नोटबंदी के खिलाफ बढ़ रहा है असंतोष

इंडियन एक्सप्रेस में वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह ने अपने स्तंभ फिफ्थ कॉलम में नोटबंदी की वजह से आम लोगों की दिक्कतों का जिक्र करते हुए कहा है कि पीएम नरेंद्र मोदी के इस फैसले के विरोध की सुगबुगाहटें शुरू हो गई हैं.

आम लोग लाइनों में खड़े हैं और करेंसी के अभाव में कई छोटे कारोबार खत्म हो गए हैं. दूसरी ओर देश के कई हिस्सों में बड़ी मात्रा में नए नोट पकड़े जा रहे हैं. इन घटनाओं के बाद लोगों को लग रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के शुद्धिकरण की इस योजना की कीमत आम लोग उठा रहे हैं.

नरेंद्र मोदी ने अपने फैसले के समर्थन में यज्ञ शब्द का इस्तेमाल किया लेकिन ऐसा लगता है कि वह यह नहीं देख पा रहे हैं कि इस यज्ञ की इस आग में भ्रष्ट अधिकारी और कारोबारी नहीं आम लोग जल रहे हैं. लगता है पीएम को जिन लोगों ने नोटबंदी की सलाह दी उन्हें इस तरह के नतीजों का अंदाजा नहीं होगा.

क्या इन सलाहकारों ने उन्हें बताया था कि भारत में इंटरनेट सर्विस विश्वस्तरीय नहीं है लिहाजा ऑनलाइन बैंकिंग लोगों के लिए मुश्किल साबित हो सकती है. मोदी जी करोड़ों भारतीयों को कैशलेस अर्थव्यवस्था के प्रति उत्साही के तौर पर देख रहे हैं लेकिन वह बैंकिंग सिस्टम में मौजूद खामियों को नहीं देख पाए.

तवलीन लिखती हैं कि मुझे यह पता नहीं चल पा रहा है कि मोदी जी के इस कदम से भारतीय अर्थव्यवस्था को कैसे फायदा हो रहा है. सवाल पूछेंगे तो मोदी समर्थक कहेंगे कि इस समय थोड़ी दिक्कत है लेकिन आगे चल कर देश को इससे फायदा होगा. सच्चाई तो यही है कि वर्षों की गंदी राजनीति और भ्रष्ट इनकम टैक्स अधिकारियों ने काले धन की कमाई करने वालों को बेहद दुस्साहसी बना दिया है. इसलिए देश में चाहे जो कदम उठा लें काले धन के कुबेर गिरफ्त से दूर ही रहेंगे.

6. उत्तराधिकार के सवाल सुलझाने में नाकाम

एशियन एज में अशोक मलिक ने भारतीय राजनीतिक दलों में उत्तराधिकारी तय करने की योजना के अभाव का जिक्र किया है. मलिक ने तमिलनाडु, यूपी और पंजाब की राजनीति का हवाला दिया है और लिखा है कि भारतीय दल उत्तराधिकारी तय करने की योजना में बहुत अच्छे साबित नहीं हुए है. लेकिन क्षेत्रीय दलों में यह समस्या कुछ ज्यादा ही है.

द्रमुक के वयोवृद्ध नेता करुणानिधि अभी तक विरासत का झगड़ा नहीं सुलझा पाए हैं. उनकी मुख्यमंत्री बनने की हसरत अभी तक खत्म नहीं हुई है. भले ही उन्होंने बेटे एम के स्टालिन को पार्टी की कमान सौंप दी हो लेकिन एक और भाई अलागिरी से उनका झगड़ा जारी है.

यूपी में मुलायम सिंह की पार्टी में संभावित उत्तराधिकारियों के बीच भारी खींचतान चल रही है. यहां अखिलेश यादव की छवि समाजवादी पार्टी की राजनीति के नकारात्मक पहलुओं से अलग करने की कोशिश हो रही है.

पंजाब में अब भी बुजुर्ग प्रकाश सिंह बादल कुर्सी से चिपके हुए हैं. वह उप मुख्यमंत्री और अपने बेटे सुखवीर सिंह बादल को बागडोर सौंपने का अवसर नहीं तलाश पाए हैं. यह विडंबना ही है कि अकाली दल ही एक ऐसी क्षेत्रीय पार्टी है जिसकी बुनियाद परिवारवाद पर नहीं रखी गई थी. लेकिन यह बादल परिवार की जागीर बन गई है. मलिक ने मायावती की पार्टी बीएसपी, शरद पवार की एनसीपी और ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल में उत्तराधिकारी की योजना के अभाव की ओर इशारा किया है.

7. एजुकेशन के सरकारी सिस्टम को मजबूती दें

हिन्दुस्तान टाइम्स में मार्क टुली ने सरकारी स्कूलों की खराब हालात का जिक्र किया है. वह लिखते हैं कि सरकारी स्कूलों में सरकार की ओर से झोंका जा रहा संसाधन बेकार जा रहा है क्योंकि ज्यादा से ज्यादा लोग अब इस सिस्टम से बाहर निकल रहे हैं. इन स्कूलों में टीचर बहाल किए जाते हैं. बिल्डिंगें बनाई जाती हैं और दूसरी सुविधाएं दी जाती हैं लेकिन मां-बाप अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं.

गैर सरकारी संगठन प्रथम की 2014 की रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइवेट स्कूलों में जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ कर 30 फीसदी से ऊपर पहुंच चुकी है. आखिर लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं. इसलिए नहीं कि सरकारी स्कूलों की कमी है. बल्कि इसलिए कि वे सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहते. साफ है कि सरकारी सिस्टम पर किया जा रहा खर्चा बेकार जा रहा है.

टुली लिखते हैं- मेरे ख्याल से सरकारी सिस्टम पर बर्बाद हो रहे संसाधन को रोकना होगा. लेकिन यह तभी होगा जब आप इस सिस्टम को बेहतर बनाएंगे. भारत में जिस तरह सरकारी स्कूल चलाए जा रहे हैं उनमें व्यापक बदलाव करने होंगे.

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