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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने 2015 में 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' (Beti Bachao, Beti Padhao) योजना शुरू की थी, जिसे एनडीए सरकार की प्रमुख नीतियों में से एक माना जाता है. इस योजना का मुख्य उद्देश्य शिक्षा के माध्यम के लड़के और लड़कियों के बीच के भेदभाव को कम करना है.
भारत में लैंगिक असमानता की अधिकांश पैमानों- जन्म दर, स्वास्थ्य, आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी पर व्यापक रही है - 2015 में भारत ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में 140 देशों में से 105वें पायदान पर था.
लेकिन 7 साल बाद इसपर फिर से विचार करने का समय है कि हम 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' योजना की 'सफलता' को कैसे मापते हैं.
'बेटी पढ़ाओ' योजना का प्रभाव नामांकन के स्केल पर ज्यादा दिखा है. इस मोर्चे पर डेटा अच्छी तरह से काम करता है - क्योंकि स्कूलों में दशक भर के ग्राफ के साथ लड़कियों के नामांकन में वृद्धि हुई है. यह हायर सेकेंड्री के साथ-साथ सभी उम्र में देखा गया है.
साथ ही उन बच्चों के प्रतिशत में भी लगातार गिरावट दर्ज की गयी है, जो स्कूल नहीं जाते थे, विशेषकर लड़कियों में. स्कूल न जाने वाली लड़कियों और लड़कों के बीच का अंतर भी लगातार कम हो रहा है.
अब तक 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' मुख्य रूप से लड़कियों के मुद्दों पर देश के ध्यान को आकर्षित करने के लिए एक जागरूकता अभियान रहा है, जिसमें 446 करोड़ रुपये के बजट का 79% अकेले प्रचार और इसकी वकालत पर खर्च किया गया है.
इस योजना के अगले चरण के लिए फोकस में बदलाव को दिसंबर, 2021 में लोकसभा में पेश की गई संसदीय समिति की एक रिपोर्ट में संक्षेप में सामने लाया गया है, जिसके मुताबिक- इस स्कीम के जरिए एजुकेशन और शिक्षा के क्षेत्र में सही बदलाव लाना है.
भारत ने लगभग- सार्वभौमिक प्राथमिक नामांकन (यूनिवर्सल प्राइमरी एनरोलमेंट) की शानदार उपलब्धि हासिल की है, और किसी भी आगे की पहल का केंद्र गुणवत्ता को होना चाहिए- यानी सिर्फ छात्रों के नामांकन रुपी 'इनपुट' नहीं, बल्कि उनके द्वारा सीखने की प्रक्रिया रुपी 'आउटपुट' सुनिश्चित करना.
फिर भी जैसा कि ASER 2018 से पता चलता है, सीखने का स्तर नामांकन के आंकड़ों की तरह प्रभावशाली नहीं है- आठवीं क्लास के प्रत्येक आठ छात्रों में से 1 स्टूडेंट दूसरी क्लास की पाठ्य पुस्तक को पढ़ने में असमर्थ है जबकि 2 में से 1 डिवीजन जैसे मैथ्स के प्रॉब्लम को हल करने में असमर्थ है.
अंकगणितीय क्षमताओं से परे, जागरूकता और पहुंच में कमी दूसरे असमानताओं के कारण बनते हैं. 48.7% लड़कों की तुलना में केवल 36% लड़कियां भारत के नक्शे पर अपने राज्य को बता पाने में सक्षम हैं.
जब बात सीखने की आती है तो लड़कियां और महिलाएं पहले से ही निम्नलिखित मोर्चे पर पीछे हैं:
टेक्नोलॉजी तक कम पहुंच - 55.6% पुरुषों की तुलना में 33.9% ग्रामीण महिलाओं ने इंटरनेट यूज करने का संकेत दिया
घरेलू जिम्मेदारियों का बोझ - जहां पुरुष प्रतिदिन 55 मिनट का अवैतनिक कार्य करते हैं वहीं महिलाओं के लिए यह आंकड़ा प्रति दिन 366 मिनट है.
बाहर न निकल पाना- 45% महिलाओं को स्थानीय बाजार में जाने के लिए परिवार के किसी सदस्य से अनुमति की आवश्यकता होती है.
ऐसे में 'शिक्षा के माध्यम से लड़कियों को सशक्त बनाने' के उद्देश्य से आगे बढ़कर टेक्नोलॉजी तक पहुंच प्रदान करने से लेकर उनकी गतिशीलता के साधनों को मजबूत करने तक- हर तरीकों की बाधाओं को दूर करने के लिए प्रयास महत्वपूर्ण है.
COVID-19 महामारी के प्रभाव और दुनिया के इतिहास में सबसे लंबे समय तक स्कूलों के बंद होने के प्रभाव को अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं जा सका है - लेकिन लड़कियों और महिलाओं की पहुंच और अनुभवों के सभी पिछले सबूतों से यही संकेत मिलता है कि लड़कों की तुलना में असंगत प्रभाव की उम्मीद की जा सकती है.
योजना को अकादमिक चारदीवारी से भी आगे जाने की जरूरत है - पीछे छूटे लोगों को ट्रैक करने, उनका अनुसरण करने और उन्हें वापस शामिल करने के लिए.
जरूरत है लड़कियों की 'शुरुआती क्षमताओं' को पहचानने की और यह सुनिश्चित करने की लड़कियों को भी लड़कों के जैसे ही शुरुआत मिले, जो 'पीछे छूट गई हैं. उन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है, स्टडी से ये बात पता चलती है कि सीखने की क्षमता और उनका परफॉमेंस सबसे बड़ा इंडिकेटर्स है कि छात्र हायर ग्रेड में जाने लायक है या नहीं.
जब भारत के वर्क फोर्स में महिलाओं की भागीदारी लगातार कम रही है, भारत में 20 प्रतिशत से भी कम महिला आबादी रोजगार में हैं, लड़कियों को भविष्य की आकांक्षाओं को दिखाने की जरूरत है, ताकि वर्तमान में वे अपनी क्षमताओं का निर्माण कर सकें.
(मेधा उनियाल, प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन, गर्ल्स एंड वूमेन प्रोग्राम्स की को-फाउंडर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार उनके अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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Published: 25 Jan 2022,09:19 AM IST