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भारत के महानतम क्रांतिकारी भगत सिंह (Bhagat Singh) का जन्म 28 सितंबर, 1907 को हुआ था. सीमाओं से परे हर कोई भगत सिंह का सम्मान करता है क्योंकि उन्होंने हमेशा मानवीय गरिमा और साम्प्रदायिक विभाजन से इतर अधिकारों की वकालत की. उन्होंने हर उस शख्स की आलोचना की जो इन बुनियादी मूल्यों को अपनाने में असफल रहा और ये भगत सिंह के विस्तृत लेखन संग्रह से भी स्पष्ट है.
मैंने इन कड़े शब्दों से इसलिए शुरुआत की क्योंकि हम में से कई लोग उन्हें सिर्फ एक शहीद और राष्ट्रवादी के तौर पर देखते हैं. यह उन लोगों के लिए एक सुविधाजनक विकल्प है जो केवल राजनीतिक फायदे के लिए उनकी राष्ट्रवादी छवि का इस्तेमाल करना चाहते हैं. यह मेरे लिए उस युवा क्रांतिकारी विचारक के लिए अधूरा सम्मान है. उनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के साथ-साथ प्रगतिशील मूल्यों के लिए प्रतिबद्ध था. भगत सिंह का चुनिंदा स्मरण उनकी क्रांतिकारी बौद्धिक विरासत के साथ घोर अन्याय है. यह उनके परिवार के क्रांतिकारी आचरण के साथ भी अन्याय है, जो भगत सिंह को विरासत में मिला और जिसे उन्होंने आगे बढ़ाया.
भगत सिंह की 114वीं जयंती के मौके पर मैं उनके जेल में बिताए दिनों की याद दिलाना चाहूंगा जहां बहुत पढ़ने और सोचने की आदत ने उन्हें एक परिपक्व राजनीतिक चिंतक बनने में मदद की. 23 मार्च, 1931 को शहीद होने से पहले भगत सिंह ने लाहौर जेल में लगभग 2 साल बिताए. भगत सिंह किशोरावस्था से ही एक उत्साही पाठक थे और जेल की सजा के दौरान उन्होंने अपनी पढ़ने की उत्सुकता को और ज्यादा बढ़ाया.
उनकी जेल डायरी से उनकी राजनीतिक सोच के विकास की झलक साफ दिखाई पड़ती है. इससे उनके पढ़ने की आदतों के बारे में पता चलता है. वह बाकी लेखकों के बीच कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, बर्ट्रेंड रसेल, थॉमस पाइन, अप्टन सिंक्लेयर, वी. आई. लेनिन, विलियम वर्ड्सवर्थ, अल्फ्रेड टेनीसन, रबिन्द्र नाथ टैगोर, निकोलाई बुखारिन और लियोन ट्रॉट्स्की जैसे लेखकों को पढ़ना पसंद करते थे.
दूसरे युवाओं की तरह उनका जीवन सामान्य और स्थिर नहीं था. वह कॉलेज के दिनों से ही अंग्रेजी खुफिया एजेंसी और पुलिस के निशाने पर थे. इसके बावजूद, उन्होंने हर वो किताब हासिल की, जो वो पढ़ना चाहते थे. जेल की सजा के दौरान भी वह जयदेव गुप्ता जैसे अपने दोस्तों से ज्यादातर किताबें ही मंगवाते थे. जो लाहौर की द्वारकादास पुस्तकालय या रामकृष्ण एन्ड संस से किताबें लाकर भगत सिंह को देते थे.
भगत सिंह ने अपने सबसे प्रभावशाली आलेखों में से एक 'मैं नास्तिक क्यों हूँ' जेल में ही लिखी थी. इसमें उन्होंने अंध विश्वास का मजबूती से खंडन करने के साथ ही जोशीले तर्क भी दिए थे.
धर्म के बारे में अपने विचारों से पहले, भगत सिंह अपने पूर्वजों की धार्मिक मान्यताओं का सामना करते हैं. वह बताते हैं कि अपने राजनीतिक कामों की वैज्ञानिक समझ के अभाव में खुद को आध्यात्मिक बनाए रखने, व्यक्तिगत प्रलोभनों से बचने, अवसाद पर काबू पाने, अपनी भौतिक सुखों का त्याग करने और यहां तक कि जिंदगी के लिए भी, उनके पूर्वजों को तर्कहीन धार्मिक विश्वासों और अध्यात्मवाद की जरूरत थी.
इसके लिए, व्यक्ति को प्रेरणा के मजबूत श्रोतों की जरूरत पड़ती है. शुरुआती क्रांतिकारियों के मामले में यह आवश्यकता अध्यात्मवाद और धर्म ने पूरी की थी.
भगत सिंह इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि, धर्म शोषण करने वालों के हाथों का एक औजार है, जो अपने हितों के लिए बड़ी आबादी को लगातार भगवान का डर दिखाते हैं. उन्होंने आगे लिखा, 'धर्म और पंथ, अत्याचारी और शोषक संस्थाओं, इंसान या वर्ग की सामग्री हैं. वह बर्ट्रैंड रसल की इस बात से सहमत थे कि धर्म एक रोग है और यह मानव जाति के लिए एक कष्ट का स्त्रोत है.
उन्होंने अपनी जेल डायरी में होरेस ग्रीली के कथन का उल्लेख अच्छे से किया किया है, 'नैतिकता और धर्म उन लोगों के लिए केवल शब्द हैं, जो किसी तरह से जिंदगी जीने के लिए गटर में रहते हैं या फिर सर्द रातों में ठंड से बचने के लिए सिकुड़कर बैरल (लकड़ी के डिब्बों) के पीछे छिप जाते हैं.'
भगत सिंह ने अपनी नास्तिकता को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया था, जब उन्होंने कहा कि मेरी नास्तिकता नई नहीं है. मैंने भगवान में भरोसा करना तब ही छोड़ दिया था, जब मैं पूरी तरह से युवा भी नहीं था और जिसके अस्तित्व के बारे में मेरे दोस्तों को पता तक नहीं था.
वैसे भी, भगत सिंह का ये लेख केवल भगवान को लेकर नहीं था, बल्कि उन्होंने आलोचनात्मक और स्वतंत्र विचारों के बारे में भी बात की, जिसे उन्होंने किसी नेता पर आंख मूंदकर विश्वास को तर्कहीन और जारी नहीं रखने लायक कहा. उनका इशारा इस मामले में महात्मा गांधी की ओर था.
उन्होंने कहा कि आप किसी प्रचलित आस्था, किसी नायक, किसी महान आदमी, जिसे आम तौर पर आलोचाना से परे माना जाता है, उसका विरोध करेंगे तो आपको अलग-अलग नामों से संबोधित किया जाएगा. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि माना जाता है कि वो गलत नहीं हो सकता. यह हमारे क्रांतिकारी आदर्श के विचार हैं, जो आज भी हमें काफी कुछ सिखा सकते हैं. मेरे लिए ऐसे क्रांतिकारी विचारक मरे नहीं हैं, अगर हम उनके आदर्शों का पालन करें तो वे फिर से जिंदा हो सकते हैं.
भगत सिंह ने अपना तर्क जारी रखा: 'ऐसा मानसिक रूप से स्थिर हो जाने के कारण होता है. आलोचना और स्वंतत्र विचार किसी भी क्रांतिकारी के 2 अनिवार्य गुण हैं.' उनके हिसाब से किसी व्यक्ति या विचारधारा का आंख मूंदकर पालन गलत है, संदेहास्पद है. उन्होंने कहा, 'यह मानसिकता प्रगति की तरफ नहीं ले जाती है. बल्कि ये निश्चित रूप से यह प्रतिक्रियात्मक है.
भगत सिंह ने इस मौलिक निबंध में प्रगति के अपने विचार को बिल्कुल साफ किया है. ये मुख्य तौर पर सवाल करने वाले दृष्टिकोण पर निर्भर था न कि अंधों की तरह किसी बात को बस स्वीकार कर लेने पर निर्भर था. उन्होंने तर्क दिया था कि "कोई भी व्यक्ति जो प्रगति के लिए खड़ा है, उसे पुरानी आस्था की हर वस्तु की आलोचना, अविश्वास और चुनौती देनी होगी...अगर किसी को काफी तर्क-वितर्क के बाद किसी सिद्धांत या दर्शन में विश्वास करने के लिए प्रेरित किया जाता है, तो उसकी आस्था का स्वागत किया जाता है."
वो इस बात से वाकिफ थे कि इन सबके बावजूद किसी को गलत समझा जा सकता है. लेकिन इसके लिए उनके पास एक जवाब भी था - वो कहते हैं, "उनके तर्क को गलत समझा जा सकता है, वो गलत हो सकता है, गुमराह और कभी-कभी भ्रामक हो सकता है. लेकिन वो सुधार के लिए उत्तरदायी है क्योंकि तर्क उसके जीवन को राह दिखा रहा है ... सिर्फ भक्ति और अंध भक्ति खतरनाक है; ये दिमाग को सुस्त कर देता है, और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है."
जेल में, भगत सिंह ने गदर क्रांतिकारी, लाला राम सरन दास की एक काव्य रचना द ड्रीमलैंड का परिचय भी लिखा था. मैं यहां इसकी विस्तार से चर्चा नहीं करूंगा बल्कि केवल भगत सिंह की अंतिम पंक्तियों का इस्तेमाल करूंगा, जो कि मैं नास्तिक क्यों हूं की भावना के साथ समाप्त होती है. वो कहते हैं-
हमारे लिए उनके जेल लेखनी और समकालीन प्रासंगिकता के खास मुद्दों पर उनके पत्रकारीय स्तंभों में और भी बहुत कुछ प्रासंगिक है. हालांकि, ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि हम उनकी बौद्धिक विरासत के साथ क्या करने का फैसला करते हैं, हम इसे पढ़ते हैं या सोचते हैं या इसे आसानी से अनदेखा करते हैं, जो कि हम में से अधिकांश लोगों ने इतने सालों में किया है.
ये जेल लेखन उनके लिखे गए अंतिम दस्तावेजों में से कुछ हैं, इसलिए उन्हें एक स्वतंत्र भारत की उनकी अपनी दृष्टि के रूप में देखा जा सकता है, जिसे वे खुद नहीं देख सकते थे. उनके जन्मदिन पर उन्हें हमारी सबसे अच्छी श्रद्धांजलि इस दृष्टिकोण पर वापस जाना होगा.
(एस इरफान हबीब एक इतिहासकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @irfhabib है. ये एक ओपिनियन पीस है. ये लेखक के खुद के विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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