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भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी रोना विल्सन ने बुधवार 10 फरवरी को बॉम्बे हाई कोर्ट में अर्जी लगाई है और मांग की है कि उनके कंप्यूटर में डॉक्यूमेंट्स को कथित रूप से प्लांट करने के मामले की जांच की जाए. इन्हीं डॉक्यूमेंट्स के आधार पर उनके और दूसरे एक्टिविस्ट्स के खिलाफ केस बनाया गया है.
विल्सन ने अपनी नई याचिका में हाई कोर्ट से कहा कि वह उन पर मुकदमा चलाने के आदेश को रद्द करे. तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने यूएपीए के तहत उनके खिलाफ मुकदमा चलाने को मंजूरी दी थी. इसके अलावा उन्होंने ‘इस अवधि के दौरान पीड़ा, उत्पीड़न, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन, मानहानि, प्रतिष्ठा को नुकसान, जेल में बंद करने, अमानवीय व्यवहार के लिए’ हर्जाना देने की मांग की है.
इन सबके साथ, विल्सन ने चार्ज शीट की सभी कार्यवाहियों पर स्टे देने और जेल से उन्हें तुरंत रिहा करने की भी मांग की है.
दो सौ साल पहले हुई भीमा कोरेगांव की लड़ाई में जीत का जश्न मनाने के लिए दलित लोग हर साल 1 जनवरी को जमा होते हैं.2018 में भी ऐसा ही हुआ. इसके बाद वहां हमला, और फिर हिंसा हुई. इस मामले की शुरुआत जांच पुणे पुलिस को सौंपी गई.
कुछ दिनों बाद एफआईआर फाइल की गई और दावा किया गया कि 31 दिसंबर 2017 में हुए एलगार परिषद में हिंसा की योजना बनाई गई थी. इसके मौके पर सुधीर धावले मौजूद थे. फिर जांच के बाद पुणे पुलिस ने दावा किया उसे ‘गुप्त स्रोतों’ से ‘गुप्त सूचना’ मिली है कि एकैडमिक और एक्टिविस्ट विल्सन और वकील-एक्टिविस्ट सुरेंद्र गाडलिंग भी इस षडयंत्र में शामिल थे.
पुलिस ने विल्सन और दूसरे आरोपियों के घरों में मार्च में छापा मारने के लिए दो बार वॉरंट मांगा. उसका कहना था कि उन लोगों ने किसी ‘षडयंत्र’ के बारे में एक दूसरे को चिट्ठी पत्री लिखी है, और पुलिस को इसकी ‘गुप्त सूचना’ मिली है. पर पुलिस की मांग को दोनों बार ठुकरा दिया गया.
विल्सन उन पांच लोगों में शामिल थे जिन्हें जून 2018 में माओवादी षडयंत्रों के दावे के साथ गिरफ्तार किया गया था.
इन दावों के साथ कई आरोपियों के खिलाफ 15 नवंबर 2018 को चार्जशीट फाइल की गई. चूंकि चार्जशीट गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) एक्ट, यानी यूएपीए के तहत अपराधों के आरोपों से संबंधित थी, इसलिए इसके लिए सरकार से मंजूरी लेनी जरूरी थी. इसके लिए सरकार ने एक दिन पहले ही मंजूरी दे दी थी.
विल्सन का कहना है कि चार्जशीट के आरोप ‘पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक सबूतों पर आधारित हैं जोकि याचिकाकर्ता सुरेंद्र गाडलिंग और दूसरे कुछ आरोपियों के डिवाइस में कथित रूप से पाए गए.’
याचिका कहती है कि जब पुलिस ने उनके घर पर छापा मारा, तब कंप्यूटर ‘शट डाउन’ मोड में था. पुलिस के साथ आए एक व्यक्ति, जिसने खुद के साइबर फॉरेंसिक एक्सपर्ट होने का दावा किया था, ने कंप्यूटर को खोला और 10 मिनट तक उसे चलाया. इस बात की पुष्टि 5 नवंबर 2018 की एफएसएल रिपोर्ट में की गई है जो अदालत में सौंपी गई थी.
14 नवंबर 2018 को विल्सन और दूसरे आरोपियों पर मुकदमा चलाने को मंजूरी दी गई. यह मंजूरी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त एक स्वतंत्र रिव्यू बॉडी की एक रिपोर्ट पर आधारित थी. इस रिपोर्ट में कहा गया था कि उनके खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं जिसमें उनके इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज़ से कथित रूप से जब्त किए गए सबूत भी शामिल हैं.
आर्सेनल कंसल्टिंग की रिपोर्ट इस पूरे मामले में इस बिंदु पर दखल देती है जिसका अनुरोध अमेरिकन बार एसोसिएशन की मदद से विल्सन के वकीलों ने किया था.
“यह कहा जाता है कि, याचिकाकर्ता को यह जानकारी मिली है कि उसके कंप्यूटर में पाए गए और चार्जशीट में रेफर किए गए संदिग्ध डॉक्यूमेंट्स को जब्त किए जाने से पहले, 22 महीनों के दौरान प्लांट किया गया है, जोकि उसकी जानकारी में नहीं था, और मुकदमा चलाने की मंजूरी झूठे और मनगढ़ंत सबूतों पर आधारित है, और इसे तुरंत रद्द किया जाए.”
विल्सन ने कहा है कि मुकदमे की मंजूरी देने के समय भी, इस बात पर सवाल खड़े किए जा रहे थे कि कानूनी तरीके से सबूतों को कब्जे में नहीं लिया गया था. चूंकि छापे वाले दिन उनके डिवाइस की ‘हैश वैल्यू’ लेकर उन्हें नहीं दी गई (जैसा कि कानून के तहत जरूरी है).
एफसीएल रिपोर्ट भी इस बारे में कुछ नहीं कहती कि क्या कंप्यूटर की हार्ड डिस्क के साथ कोई छेड़छाड़ की गई है, जबकि जांच अधिकारी ने खास तौर से इस बात पर सवाल किया था.
याचिकाकर्ता ने दलील दी है कि 17 अप्रैल 2018 के सभी छापों में कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया जिसका मतलब यह है कि अनुच्छेद 21 का पूरी तरह उल्लंघन किया गया.
विल्सन ने इस बात से इनकार किया है कि उन्होंने न तो कथित डॉक्यूमेंट्स को लिखा है और न ही उन्हें ये डॉक्यूमेंट्स भेजे गए हैं.उन्हें यह पता भी नहीं था कि उनके कंप्यूटर में ये मौजूद थे.आर्सेनल कंसल्टिंग की रिपोर्ट में कहा गया है कि डॉक्यूमेंट्स हिडन फोल्डर में थे और इन्हें नेटवायर नाम के मालवेयर के जरिए इसमें भेजा गया था.
याचिकाकर्ता का कहना है कि उनको और उनके सह-अभियुक्तों को इस मामले में मनगढंत और प्लांट किए गए दस्तावेजों के आधार पर जानबूझकर और बदनीयती से फंसाया गया है... उन्हें मनगढ़ंत और झूठे सबूतों के जरिए अपने राजनीतिक विचारों की वजह से निशाना बनाया जा रहा है. ऐसे मनगढंत आरोप जनता के खिलाफ हैं और जनता के हित में ही इनकी जांच की जानी चाहिए.”
याचिका में कहा गया है कि ट्रायल कोर्ट ने जांच एजेंसियों को आदेश दिया था कि विल्सन सहित सभी आरोपियों को उनके इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की क्लोन कॉपी 27 जून 2019 को या उससे पहले दे दी जाए लेकिन जांच एजेंसियों ने ऐसा नहीं किया.
आर्सेनल कंसल्टिंग के निष्कर्षों के आधार पर (जिसकी मदद से द कैरावान ने इस बाबत एक रिपोर्ट छापी थी कि विल्सन और दूसरों के डिवाइस के साथ छेड़छाड़ की आशंका है), विल्सन ने कहा है कि बॉम्बे हाई कोर्ट के लिए यह ‘न्यायसंगत और जरूरी’ है कि वह ‘याचिकाकर्ता के साथ हुई धोखाधड़ी’ की जांच करे, ‘जिसका मकसद उन्हें और उनके सह आरोपियों को अनिश्चित समय के लिए जेल में बंद रखना है.’
इस पूरे मामले का मकसद अभियुक्तों को फंसाना है जोकि उन संदिग्ध डॉक्यूमेंट्स पर आधारित हैं जिनका स्रोत ही संदेह के घेरे में है. विल्सन का कहना है कि पुणे पुलिस गढ़े हुए सबूतों के बारे में जानती थी. तभी उसने दो बार मांग की थी कि उसे ‘गुप्त सूचना’ के आधार पर आरोपियों के बीच पत्र व्यवहार का पता लगाने के लिए छापे मारने का वॉरंट दिया जाए (जिसे दोनों बार ठुकरा दिया गया था).
जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए विल्सन ने कहा है:
“यह पता लगाना आवश्यक है कि क्या जांच एजेंसी इस मामले में उलझी हुई या उसने लापरवाही बरती है और इसलिए दस्तावेजों को प्लांट करने के मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल बनाया जाए. इसमें शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की जरूरत है.”
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