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बिहार की राजनीति में दो ध्रुव आज भी आरजेडी और बीजेपी ही हैं. नीतीश कुमार नेतृत्व की शर्त पर इधर या उधर जुड़कर राजनीति के दो पलड़ों को अपने हक में बैलेंस कर रहे हैं या यूं कहें कि झुका रहे हैं. बाढ़, कोरोना, बेरोजगारी, बीमारी, अपराध...कोई मोर्चा नहीं है जहां नीतीश सरकार को लोग कोस न रहे हों. नीतीश कुमार की सियासत का वजन पहले से कम नहीं हुआ है. बिहार इकलौता ऐसा राज्य है जहां गठबंधन की सियासत में जीना हर राजनीतिक दल ने सीख लिया है.
बिहार की सियासत में बीजेपी आज तक अपने दम पर सत्ता की तस्वीर बनाने का दमखम पैदा नहीं कर सकी है. 2015 का विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण है. तब बीजेपी 24.42 प्रतिशत वोटों के साथ 53 सीटें ही जीत सकी थी. मगर, सच यह भी है कि जैसे ही बीजेपी के साथ जेडीयू की ताकत जुड़ जाती है तो निर्णायक नतीजे निकल आते हैं. इसका उदाहरण 2019 का आमचुनाव है जिसमें बिहार में लोकसभा की 40 में से 39 सीटों पर एनडीए का कब्जा हो गया था. एनडीए को 53.3 प्रतिशत वोट मिले, जबकि अकेले बीजेपी को 23.6 प्रतिशत.
बीजेपी और आरजेडी दोनों के पास मोटे तौर पर निश्चित वोट बैंक हैं. कांग्रेस के कमजोर हो जाने के बाद सवर्ण वोट बैंक पर बीजेपी का एकाधिकार-सा हो चुका है. ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ के कुल वोट 17.2 प्रतिशत हैं. और, अगर 7.1 फीसदी वैश्य वोटर जोड़ दिए जाएं, तो यह 24.3 फीसदी हो जाता है. लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में (क्रमश: 24.42% और 23.6%) यह वोट बैंक स्थिर नजर आता है.
आरजेडी के पास एम-वाय समीकरण है. 14.4 प्रतिशत यादव और 14.7 प्रतिशत मुस्लिम मिलकर 29.1 फीसदी वोट का आधार बनाते हैं. लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आरजेडी को मिले वोट क्रमश: 15.4% और 18.5 फीसदी वोट बताते हैं कि आरजेडी के आधार वोट में भी सेंध लग चुकी है और अब वे आधार वोट बैंक को पक्का मानकर नहीं चल सकते. खासकर नीतीश कुमार के मुस्लिम वोट बैंक में असर ने आरजेडी के लिए इस आधार वोट बैंक को कमजोर बनाया है. यही कारण है कि आरजेडी की कोशिश दलितों और अति पिछड़ा वर्ग को अपने साथ जोड़ने की है. उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश साहनी को जोड़ने का मकसद यही है. ये लोग जेडीयू के वोट बैंक में सेंधमारी कर विरोधी खेमे को नुकसान और आरजेडी को फायदा पहुंचा सकते हैं. मांझी के महागठबंधन से अलग होने को इसी आलोक में देखना चाहिए.
नीतीश कुमार का जो वोट बैंक है वह आम तौर पर पिछड़ा-अति पिछड़ा जरूर है. मगर, यह आबादी महज 21.1 प्रतिशत है और जाहिर है कि यह वोट बैंक भी छोटे-बड़े हिस्सों में बंटता है. इसके अलावा नीतीश कुमार के जेडीयू को उस गठबंधन में साथ होने का फायदा मिलता है जिसके साथ वे होते हैं. सवर्ण वोट और मुस्लिम वोट भी नीतीश कुमार को मिलता रहा है. यही कारण है कि वे मोटे तौर पर 15 साल से लगातार सत्ता में हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में नीतीश कुमार के लिए दो चुनौतियां हैं-एक, जबरदस्त एंटी इनकंबेंसी और दूसरा मुसलमानों से बढ़ी दूरी. इसके बावजूद नीतीश कुमार खुद का रुतबा बड़ा भाई वाला ही रखना चाहते हैं. मगर, एनडीए के भीतर बीजेपी भी अपनी ताकत बढ़ाने में जुटी है. वह लोकजनशक्ति जैसी पार्टी का इस्तेमाल इसी मकसद से कर रही है. हाल के दिनों में चिराग पासवान ने जिस तरीके से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की आलोचना जारी रखी है उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
जेडीयू नेता नीरज कुमार बताते हैं कि यह बात साफ है कि लोकजनशक्ति पार्टी चुनाव से पहले और चुनाव के बाद जेडीयू को ही परेशान करने वाली है. एलजेपी को अधिक सीट देने का मतलब है जेडीयू की ताकत को कमजोर करना. इसलिए बकौल नीरज कुमार जेडीयू का दावा आधी सीटों पर है. अपने हिस्से की सीटों में से बीजेपी चाहे एलजेपी को जितना दे.
एलजेपी को लोकसभा चुनाव में 7.9 प्रतिशत वोट मिले थे. चिराग पासवान का दावा है कि लोकसभा चुनाव में 6 सीटें और एक राज्यसभा की सीट के हिसाब से विधानसभा चुनाव में 42 सीटों पर उनकी पार्टी का स्पष्ट दावा है. मगर, इन दावों से इतर अगर बात करें तो अपने दम पर एलजेपी कितनी सीटें जीत पाएगी, ये खुद चिराग पासवान भी नहीं बता सकते. वास्तव में महत्वाकांक्षा से एलजेपी की राजनीति बेपटरी होने का ख़तरा पैदा हो गया है.
बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि केवल सवर्ण और वैश्य का साथ लेकर वह अकेले चुनाव में जीत हासिल नहीं कर सकती. कोई न कोई वोटबैंक उसे चाहिए जो उसकी ताकत को और मजबूत करे. दलित या अब कहें महादलित 14.2 फीसदी जरूर हैं लेकिन ये बंटे हुए हैं. इनमें पासवान जाति की ताकत 4.2 फीसदी की है जो बीजेपी के साथ गठबंधन में हैं. मगर, लोक जनशक्ति पार्टी की 42 सीटों पर चुनाव लड़ने की मांग मानने की स्थिति नहीं है. ऐसे में लोजपा का विकल्प एनडीए को देखना पड़ रहा है. संभव है कि लोजपा ठीक उसी तरीके से एनडीए से बाहर नज़र आए जैसे 2019 के आम चुनाव में राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा नज़र आए थे.
नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए की रणनीति लोजपा की जगह जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा को आकर्षित करने की है, जो अब पूरी होती दिख रही है. हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा को पिछले विधानसभा चुनाव में 2.2 फीसदी वोट मिले थे. यानी लोजपा से तकरीबन आधा. बीजेपी की राजनीति ऐसी रही है कि वह दलितों का एकमुश्त वोटबैंक अपने साथ नहीं जोड़ सकती. दलितों के किसी समूह को ही अपने साथ जोड़ सकती है. नीतीश कुमार के साथ जुड़कर उसका यह मकसद पूरा हो जाता है.
जेडीयू के लिए बीजेपी और आरजेडी में बड़ा फर्क ये है कि आरजेडी के साथ उसकी ताकत कमजोर हो जाती है जबकि बीजेपी के साथ उसकी ताकत बढ़ जाती है. बीजेपी के साथ नीतीश बड़े भाई की भूमिका में लगातार दिखते हैं लेकिन आरजेडी के साथ उनकी इस भूमिका पर लगातार खतरा बना रहता है. सच ये है कि जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ने और एनडीए की मदद से सरकार बनाने का फैसला किया, तो इसी खतरे की चर्चा प्रमुख वजह थी.
जेडीयू की ही तर्ज पर आरजेडी ने भी डेढ़ सौ सीटों पर खुद लड़ने का संकेत दे दिया है. इसका मतलब यह हुआ कि बाकी बची 93 सीटों पर कांग्रेस महागठबंधन के सहयोगी दलों के साथ साझेदारी कर ले. जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की महत्वाकांक्षा को सीमित रख पाना कांग्रेस के लिए एक मुश्किल काम रहा है. कोई ताज्जुब नहीं कि मांझी अलग हो गए.
आरजेडी ने कांग्रेस पर दबाव बढ़ा दिया है. कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में महज 6.6 फीसदी वोट मिले थे और यह भी महागठबंधन में होने की वजह से. कांग्रेस ने 41 सीटों पर चुनाव लड़कर 27 सीटें जीती थीं.
केंद्रीय राजनीति की तरह बिहार में भी मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस में है. मगर, ये दोनों ही पार्टियां वैचारिक नेतृत्व तो कर रही हैं लेकिन वास्तव में अपने-अपने गठबंधन में छोटे भाई की भूमिका में हैं. अपने-अपने कुनबे को घटाने-बढ़ाने और गठबंधन में अपनी स्थिति बेहतर करने की अंदरूनी सियासत तब तक चलने वाली है जब तक कि चुनाव की तारीख का एलान न हो जाए.
(प्रेम कुमार जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में लेखक के अपने विचार हैं. इन विचारों से क्विंट की सहमति जरूरी नहीं है.)
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