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बिहार विधानसभा चुनाव निर्धारित समय पर होंगे या आगे बढ़ा दिए जाएंगे, सब की निगाहें फिलहाल इस सवाल पर अटकी हुई हैं. कोरोना तेजी से बढ़ता जा रहा है. ऐसे में चुनाव की प्रशासनिक तैयारी भी तेजी से नहीं चल पा रही है. ऊपर से बाढ़ की मार. राजनीतिक पार्टियों का अपना गणित है और चुनाव आयोग की अपनी गति. इन सबके बीच अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जय श्रीराम से जय सियाराम और सियापति रामचंद्र की जय पर आ जाना. सबको पता है कि पूरे राम मंदिर आंदोलन में सीता जी का नाम न नारों में रहा और न भाषणों में. यह भी पता है कि सीता जी का ताल्लुक बिहार से है. आज भी बिहार के एक बड़े हिस्से में माना जाता है कि उनकी बेटी सीता को राम ने बहुत कष्ट दिये और इसलिए राम को लोकगीतों में कोसा जाता है.
मौजूदा बिहार विधानसभा का कार्यकाल नवंबर के आखिरी हफ्ते में खत्म हो जाएगा. अगर इस समय तक नयी विधानसभा का गठन करना है तो अगस्त के आखिरी हफ्ते या सितंबर के पहले हफ्ते में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो जानी चाहिए. चूंकि राज्य में कोरोना संक्रमण दिन-ब-दिन भयावह रूप लेता जा रहा है, इसलिए समय पर चुनाव होने को लेकर संशय की स्थिति बनना स्वाभाविक है. विपक्षी दल चुनावों को आगे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. इसके उलट चुनाव आयोग ने अब तक जो संकेत दिए हैं, उनसे चुनाव समय पर कराये जाने के संकेत मिल रहे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व जेडीयू इस पर गोल-मोल हैं और बीजेपी आपदा में अवसर तलाशने में माहिर होती जा रही है. आइये, इन चीजों को समझने के लिए पहले पिछले चुनावों के आंकड़ों पर नजर डालनी चाहिए.
इसकी वजह समझने की कुंजी शायद 15 साल पहले के बिहार की राजनीति में छिपी हुई है. नब्बे के दशक में जब बिहार में पिछड़े वर्ग के सशक्तिकरण की राजनीति का बोलबाला था, बड़े पैमाने पर जातीय हिंसा की घटनाएं हुईं. दलित-पिछड़ा और अगड़ी जातियों के बीच हिंसक संघर्ष का दौर. इस दौर में राजनीतिक रूप से जो जहां खड़ा था, आज भी उसका असर दिखाई देता है. 2005 में जब बीजेपी के साथ नीतीश कुमार की सरकार बनी तो उसने इन जातीय हिंसक घटनाओं की जांच के लिए बने जस्टिस अमीरदास आयोग को भंग कर दिया.
बाद में एक स्टिंग आपरेशन सामने आया जिसमें रणवीर सेना को मदद करने वालों के नाम सामने आए. इनमें से अधिकतर नाम बीजेपी नेताओं के थे. रणवीर सेना के प्रमुख रहे बरमेश्वर मुखिया की हत्या के बाद हुए उपद्रव से निपटने में नीतीश सरकार की भूमिका पर भी नजर डालिए. सब समझ में आने लगेगा. पटना की सड़कों पर खुला उपद्रव हुआ और पुलिस चुपचाप देखती रही. उस समय के डीजीपी ने कहा था कि वीडियो बनाए गये हैं . वीडियो से पहचान कर दोषियों पर कार्रवाई की जाएगी. इस सबके बावजूद नीतीश कुमार ओबीसी व ईबीसी (अति पिछड़ा) राजनीति का चेहरा बने रहते हैं.
लेकिन क्या अनुच्छेद 370 हटाने, सीएए और राम मंदिर के बाद भी बीजेपी नीतीश को उतना ही तवज्जो देती रहेगी? इस सवाल का जवाब बिहार की जातीय जकड़न में तलाशने की जरूरत है. हालांकि बिहार में 2010 के चुनाव से हर बार बिहार के जातीय जकड़न से मुक्त होने की घोषणा होती रही है, लेकिन जब भी यह नैरेटिव भरोसा हासिल करता दिखा है, कुछ न कुछ ऐसा हो गया कि लौट के बुद्धू घर को आए.
इस बार स्थितियां बदली हुई हैं. पिछले 15 सालों में इस बार नीतीश सबसे कम मजबूत नजर आ रहे हैं और पहली बार विपक्ष पूरी तरह दिशाहीन.
इन सबके बरक्श देखिये प्रधानमंत्री के जय सियाराम और सियावर रामचंद्र की जय के उद्घोष में तो उनका निशाना साफ नजर आने लगता है. साथ ही यह भी याद रखना चाहिए कि जनकपुर नेपाल में है और नेपाल के प्रधानमंत्री ने भगवान राम की नगरी अयोध्या के बीरगंज के पास स्थित होने का दावा किया है और सरयू तट वाली अयोध्या को नकली करार दिया है.
(राजेंद्र तिवारी वरिष्ठ पत्रकार हैं जो इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं. लेख में शामिल विचारों से क्विंट हिंदी का सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 07 Aug 2020,05:27 PM IST