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कोविड 19 के बाद भारत में होने वाले पहले चुनाव के लिए बिहार में तैयारियां चल रही हैं, ऐसे में नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस में शामिल दो प्रमुख पार्टियां भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड जो कह रही हैं और जो नहीं कहा गया है उसे समझने के लिए इतिहास के कुछ हिस्से उपयोगी साधन साबित होंगे.
यहां हम एक ऐसे दौर की बात बताएंगे जिसे लोग करीब-करीब भूल चुके हैं, ये इस बात का संकेत देंगी कि क्यों बीजेपी और जेडीयू के बीच समझौते को अंतिम समय पर ही अंतिम रूप दिया गया और वो भी बीजेपी के ये वादा करने के लिए मजबूर होने के बाद कि समझौता अटूट है. इसके बाद ही ये पक्का हुआ कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समझौते के लिए तैयार हैं.
सत्ताधारी गठबंधन में गांठें हैं, ये निष्कर्ष निकालने के कई कारण हैं, सबसे स्पष्ट है चिराग पासवान का बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन का वादा करने के साथ नीतीश कुमार के सुशासन बाबू की छवि पर हमला करना.
हालांकि बीजेपी और नीतीश कुमार के बीच तनाव भरे संबंधों को याद करना ज्यादा अहम है, खास कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ खटास, जो कि उनके पीएम नरेंद्र मोदी के साथ संबंधों की खासियत है.
लगातार जेल में रहने के कारण लालू यादव की अनुपस्थिति और राम विलास पासवान की मौत इस चुनाव में अहम फैक्टर माने जा रहे हैं जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन अरुण जेटली की मौत को करीब-करीब भुला दिया गया है जो शायद बीजेपी में नीतीश कुमार के एकमात्र शुभचिंतक थे.
यहां तक कि मार्च 2000 में जब वो पहली बार नासमझी भरे फैसले के बाद सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे तब भी जेटली ने उनका समर्थन किया था. मोदी और नीतीश कुमार के बीच अतीत की व्यक्तिगत दुश्मनी बीजेपी-जेडीयू में एक निरंतरता के रूप में चलती है और मौजूदा संघर्ष पर प्रकाश डालती है.
लेकिन 1990 के शुरुआती सालो में, मोदी की सलाह से बनाई गई बीजेपी की रणनीति को याद करना उपयोगी है, जिसके कारण पार्टी गुजरात के सबसे बड़े क्षत्रप चिमनभाई पटेल को हटाकर राज्य में एक बड़ी शक्ति के तौर पर उभरी.
1989 की गर्मी और 1990 की ठंड के मौसम के बीच बीजेपी पटेल के करीब आई, समर्थन देकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया और इसके बाद अचानक समर्थन वापस ले लिया.
मोदी की आत्मकथा लिखने के क्रम में एक इंटरव्यू के दौरान मैंने उनसे महत्वपूर्ण वर्षों के राजनीतिक घटनाक्रम के बारे में पूछा जब बीजेपी राज्य में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत के तौर पर उभरी. इसी दौरान कांग्रेस पार्टी और जनता दल की पार्टियों का भी करीब-करीब सफाया होते देखा गया.
1989 के लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी ने गुजरात में जनता दल के साथ समझौता किया, उस दौरान गुजरात का नेतृत्व चिमनभाई पटेल कर रहे थे, जो 1970 के मध्य में कांग्रेस छोड़कर विपक्ष में आ गए थे. मोदी के विचारों से अलग बीजेपी में लोगों की प्रबल राय ये थी कि कोई बड़ा चेहरा नहीं होने के कारण पार्टी को चिमनभाई पटेल के साथ गठबंधन करना चाहिए और साथ ही पार्टी राजनीति के अपने ब्रांड की स्वीकार्यता को लेकर अनिश्चित थी.
2012 के इंटरव्यू के दौरान मोदी ने अपनी राय को लेकर विस्तार से बात की, उन्होंने कहा कि वो गठबंधन के पक्ष में नहीं थे, लेकिन “कोई उनकी बात से सहमत नहीं हुआ” क्योंकि वो अपने वरिष्ठ नेताओं को ये “नहीं समझा सके” कि अयोध्या आंदोलन के कारण बीजेपी के पक्ष में ‘अनुकूल’ स्थिति बन गई है.
26 सीटों के आधे-आधे बंटवारे की मोदी की बात भी नहीं मानी गई और पटेल को 14 सीटें दी गईं और बीजेपी 12 सीटों पर लड़ी, ये अंतर मामूली था, लेकिन जनता दल को बड़ी पार्टी के तौर पर मान्यता दी गई थी. हालांकि नतीजे आने के बाद मोदी ने सही आंकलन किया था.
तीन महीने बाद विधानसभा चुनावों में समझौते को लेकर पटेल के साथ बात करने के लिए मोदी को जिम्मेदारी दी गई. मोदी ने ज्यादा सीटों को लेकर कड़ी मेहनत की और चुनाव से कुछ समय पहले तक बातचीत चलती रही, जिसके कारण गठबंधन भी ठीक से नहीं हो सका. चुनाव में बीजेपी को 67 सीटें मिली जनता दल से सिर्फ 3 सीटें कम और अनुकूल संकेतों को समझने के लिए पार्टी में मोदी की स्थिति मजबूत हो गई.
सितंबर 1990 में एलके आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा के दौरान गुजरात की जिम्मेदारी भी उन्हें दे दी गई और जब बीजेपी ने केंद्र में वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस लिया तो गुजरात में भी पार्टी गठबंधन से अलग हो गई. पटेल को कांग्रेस का समर्थन मिल गया लेकिन बीजेपी और मोदी उभरती शक्तियां थीं. ये उनके मुख्यमंत्री बनने से एक दशक पहले की बात है, लेकिन गुजरात में जनता दल और पटेल की छाया से बीजेपी के बाहर आने के केंद्र में वही थे.
जिन सालों में नीतीश कुमार और मोदी आमने-सामने रहे, नीतीश एक उपदेशक के जैसे काम करते रहे और ताना मारा कि “ये भारत है, यहां किसी समय हमें टोपी लगानी पड़ेगी तो कभी तिलक भी लगाना पड़ेगा.” लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री ने गुजरात दंगों के बाद बहुलतावाद के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई और रामविलास पासवान की तरह वो एनडीए से अलग नहीं हुए.
नरेंद्र मोदी के बीजेपी के अगले पीएम पद का उम्मीदवार होने की संभावना महसूस करने के बाद ही नीतीश कुमार की समस्याएं बढ़ी. बिहार के मुख्यमंत्री का मानना था कि उनका राज्य गुजरात से बड़ा है और एनडीए का नेतृत्व करने के लिए वो ज्यादा स्वीकार्य चेहरा हैं इसलिए मोदी के बिहार में प्रचार करने पर उन्होंने अप्रत्यक्ष ‘पाबंदी’ लगा दी.
लगता है कि इन सभी और इसके बाद की घटनाओं को भुला दिया गया है. लेकिन क्या सच में ऐसा है?
जिस तरह से बीजेपी ने अपने पत्ते खेले हैं ऐसा लगता है कि वो पुरानी बातों को भूली नहीं है. कुछ हफ्तों में हमें पता चलेगा कि क्या नीतीश कुमार की अंतिम कोशिश उनकी अंतिम जीत भी तो नहीं है, या क्या बिहार में बीजेपी को वैधानिक स्वीकार्यता दिलाने के कारण उनका कद घट जाएगा जैसा कि चिमनभाई पटेल के साथ हुआ.
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