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बिहार: सवर्ण आरक्षण पर BJP और RJD दोनों बुरे फंसे

बीजेपी के लिए बिहार में क्यों मुश्किल हो सकता है 2019 चुनाव?

निहारिका
नजरिया
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सवर्ण आरक्षण पर दुविधा मे फंसे बिहार में राजनैतिक दल
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सवर्ण आरक्षण पर दुविधा मे फंसे बिहार में राजनैतिक दल
(फोटोः Altered By Quint Hindi)

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सवर्ण आरक्षण को लेकर बिहार में राजनैतिक दलों के बीच दुविधा की स्थिति पैदा हो गई है. राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) न तो खुलकर विरोध कर पा रही है और न ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) खुलेआम समर्थन. कारण है लोकसभा चुनावों की आमद.

संसद में इस मुद्दे पर हुई चर्चा के दौरान राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने इसका पुरजोर विरोध तो किया, लेकिन जमीन पर इस बारे में अलग-अलग तरह की बातें कर रही है.

सवर्ण आरक्षण पर आरजेडी के बदलते बयान

आरजेडी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने सवर्ण आरक्षण के विरोध को “चूक” बताया. उन्होंने कहा,

“हम सवर्ण आरक्षण के खिलाफ नहीं हैं. हमारे घोषणा पत्र में आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण की मांग की गई है, लेकिन पता नहीं कैसे पार्टी ने विरोध का स्टैंड ले लिया. हमसे इस बारे में चूक हुई और हम इस पर विचार करेंगे.”  

उधर, इस बारे में आरजेडी अध्यक्ष के बेटे और बिहार विधानसभा में नेता विपक्ष तेजस्वी यादव भी सवर्ण आरक्षण का विरोध सिर्फ “तरीके” पर कर रहे हैं. उन्होंने कहा,

“हम सवर्ण आरक्षण को लागू करने के तरीके का विरोध कर रहे हैं. बिना किसी जांच, आयोग या सर्वेक्षण के सरकार ने महज चंद घंटों में संविधान में संशोधन कर दिया गया.”

JDU का सशर्त समर्थन

हालांकि, मोदी सरकार के इस कदम का समर्थन बिहार में बीजेपी के सहयोगी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी सशर्त कर रहे हैं. राज्य के मुख्यमंत्री ने इस कदम का स्वागत तो किया, लेकिन लगे हाथों अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण बढ़ाने की मांग भी रख दी.

नीतीश कुमार ने कहा,

“आखिर कब तक आरक्षण एक सीमा में रहेगा? आबादी के हिसाब से सभी जातियों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए... संविधान संशोधन के जरिये आबादी के हिसाब से आरक्षण का लाभ देना चाहिए.”  

बीजेपी के स्थानीय नेताओं में भी संशय

वैसे, खुद बीजेपी में भी इस मुद्दे को लेकर ऊहापोह की स्थिति है. बीजेपी के स्थानीय नेताओं के मुताबिक, इस कदम से पार्टी का ऊंची जातियों का वोटबैंक तो एकजुट होगा, लेकिन उन्हें पिछड़ी जातियों के गुस्से का डर भी सता रहा है. इसीलिए वे भी इन्हें खुश करने में लगे हुए हैं.

इसीलिए राज्य के उप-मुख्यमंत्री और वरिष्ठ बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी ने राज्य में अगले पंचायती और स्थानीय निकायों के चुनाव में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण को 50 फीसदी तक ले जाने की घोषणा की, जो अब तक 37 फीसदी की सीमा में सिमटा हुआ है.

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राजनीतिक विश्लेषक क्या कहते हैं?

विश्लेषकों के मुताबिक, इस हां-ना की बयानबाजी के पीछे पार्टियों की अपनी-अपनी सोशल इंजिनियरिंग है. आने वाले लोकसभा चुनावों मे किसी भी दल के लिए सिर्फ अगड़े या पिछड़ों के वोट के सहारे जीत सुनिश्चित करना नामुमकिन होगा. इसीलिए वे अपने वोटबैंक को नाराज किए बिना दोनों के बीच संतुलन बनाने की कोशिश मे जुटे हुए हैं.

बिहार के एक राजनेता ने कहा, “राजनीति में धारणा अहम होती है. खुलकर समर्थन या विरोध करने से जो संदेश जाएगा, राजनीतिक दल उससे बचना चाहते हैं. इससे उनके वोटबैंक और प्रभाव पर असर होगा.”

बीजेपी के लिए 2019 में क्यों होगी मुश्किल?

खुद बीजेपी के नेता मानते हैं कि इस बार स्थिति कठिन होगी. पार्टी के ज्यादातर नेताओं के मुताबिक, 2014 में बिहार में 40 लोकसभा सीटों में से बीजेपी नीत एनडीए की 31 सीटों पर जीत में पिछड़ी जातियों ने अहम भूमिका निभाई थी. बीजेपी का वोट प्रतिशत 2009 के 14 फीसदी की तुलना में 2014 में 29.5 फीसदी हो गया था. करीब दो दर्जन सीटों पर राजग की जीत में पिछड़े मतों ने अहम भूमिका निभाई थी. यहां तक कि आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद की परंपरागत सारण सीट पर भी यादव मतदाताओं ने बीजेपी को वोट दिया था.

इसीलिए बीजेपी के स्थानीय नेता सवर्ण आरक्षण पर बयान भी फूंकफूंक कर दे रहे हैं. पार्टी के दिग्गजों के मुताबिक, बीजेपी को इस बार कम से कम 8-10 सीटों पर पिछड़े वोटों की जरूरत होगी. मिसाल के तौर मोतिहारी में केंद्रीय मंत्री राधामोहन सिंह को जीत के लिए बनिया मतदाताओं की जरूरत होगी. वहीं, आरा में आर के सिंह और बक्सर में अश्विनी चौबे को भी पिछड़े मतों की जरूरत होगी. इसके अलावा, सारण, मधुबनी, सासाराम, गया, सीतामढ़ी और झंझारपुर जैसी सीटों में भी पिछड़े और अति पिछड़े मतदाताओं की अहमियत पार्टी के लिए काफी ज्यादा होगी. इसीलिए पार्टी पंचायती चुनावों मे पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण बढ़ाने का ऐलान कर रही है. वहीं, सुशील मोदी ने हाल ही में अगली जनगणना जाति के आधार पर करवाने का ऐलान भी किया था.

जेडीयू को वोट बिखरने का डर

अगर जेडीयू के दावे वाली सीटों पर नजर दौड़ाएं, तो पार्टी सुप्रीमो नीतीश कुमार को कम से एक दर्जन लोकसभा क्षेत्रों में अपने सोशल इंजीनियरिंग का कमाल दिखाना होगा. इनमें मुंगेर, वाल्मिकीनगर, सुपौल, पूर्णिया, दरभंगा, जहानाबाद और बांका जैसी प्रतिष्ठित सीटें पर कुमार को अगड़े और पिछड़े, दोनों, वोटों की जरूरत होगी. पार्टी नेताओं के मुताबिक, इन सीटों पर बीजेपी के साथ आने से ऊंची जातियों से समर्थन मिलने की उम्मीद तो ज्यादा है, लेकिन नीतीश कुमार को अपने वोटबैंक, अति पिछड़े और महादलित मतदाताओं, के बिखरने का खतरा भी सता रहा है. इसीलिए कुमार दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण को बढाने की मांग कर रहे हैं.

सवर्ण आरक्षण पर बयान देने से क्यों बच रही है RJD

वहीं, महागठबंधन में भी स्थिति स्पष्ट नहीं हो पाई है. आरजेडी का सवर्ण आरक्षण के जबरदस्त विरोध के बावजूद महागठबंधन को कम से कम 10 सीटों पर जीत के लिए अगड़ों के समर्थन की जरूरत होगी.

इनमें आरजेडी के दिग्गज रघुवंश प्रसाद सिंह की वैशाली, जगदानंद सिंह की बक्सर और जेल में बंद बाहुबली नेता प्रभुनाथ सिंह की महाराजगंज की सीटें भी शामिल हैं. इसके अलावा, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, बेतिया, झंझारपुर, शिवहर, औरंगाबाद और पूर्णिया लोकसभा क्षेत्रों मे भी ऊंची जाति के मतदाताओं की भूमिका अहम होगी. इसीलिए सवर्ण आरक्षण के विरोध में पार्टी भी संभल-संभल कर बयान दे रही है.

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