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बिहार चुनाव 2020 के मामले में एग्जिट पोल फेल हो गए, पर मैं एक बात साफ कर देना चाहता हूं. बल्कि, एक सच्चाई की तरफ ध्यान दिलाना चाहता हूं. भले ही बिहार के सारे एग्जिट पोल फेल हो गए हों, लेकिन आसमान तब भी टूटने वाला नहीं है. और यह नाकामी ऐसा कोई राष्ट्रीय संकट नहीं है जिस पर इतनी हाय-तौबा मचाई जाए.
और अगर एग्जिट पोल्स का कोई मकसद नहीं और वे फेक होते हैं जैसा कि बहुत से लोगों का दावा है, तो सवाल यह है कि एग्जिट पोल देखने के लिए लोग टीवी से चिपके क्यों बैठे रहते हैं. मीडिया उन्हें इतना स्पेस और एयर टाइम क्यों देता है?
मैंने पिछले तीन दशकों में ढेरों एग्जिट पोल किए हैं पर इस पहेली को बूझना मेरे लिए भी बहुत मुश्किल है.
जब से नतीजे आए हैं, मुझे बधाई भरे संदेश मिल रहे हैं. लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव बाद के अनुमान लगभग सटीक थे. मार्जिन ऑफ एरर के रेंज में थे. लेकिन कहा जा रहा है कि मैं ‘फेक पोल्स्टर’ हूं जो कभी ‘सही नतीजे तक नहीं पहुंचता’, साथ ही दूसरे आरोप भी लगाए जा रहे हैं.
मैं खुले दिलो-दिमाग से सब स्वीकार कर रहा हूं लेकिन थोड़ा चकराया हुआ भी हूं. एक से काम के लिए परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं कैसे मिल सकती हैं. हो सकता है कि ओपिनियन पोल्स या मेरे, या संस्थान के बारे में किसी पूर्वाग्रह के कारण यह विचार पनपे हों या आलोचकों में जानकारी की कमी हो.
चलिए, इसे एक उदाहरण से समझें.
मेरे कहने का मतलब यह है कि एग्जिट पोल फेल होते हैं, या सफल रहते हैं, इस बात को तय करने के लिए एक से मानदंड इस्तेमाल किए जाने चाहिए. इसके लिए अलग-अलग तरह के लोग, अलग-अलग तरह के मानदंडों का इस्तेमाल नहीं कर सकते.
तो क्या अलग-अलग डॉक्टर अलग-अलग मरीजों का तापमान नापने के लिए अलग-अलग इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल करते हैं?
यह समझना जरूरी है कि एग्जिट पोल/पोस्ट पोल के खरेपन को आंकने का तरीका क्या है. बिहार के अनुमानों को देखते हुए, अगर एग्जिट पोल को सिर्फ सीटों के पूर्वानुमान के आधार पर आंका जाएगा तो यह कहना एकदम सही है कि कई पोल्स फेल हुए हैं. चूंकि उनका सीटों का पूर्वानुमान गलत रहा, हालांकि कुछ अनुमान सही भी साबित हुए. लेकिन, अगर एग्जिट पोल/पोस्ट पोल की सटीकता को उनके वोट शेयर के अनुमान के आधार पर आंका जाएगा तो कुछ पोल्स एकदम सही रहे हैं. उसके आस-पास रहे हैं और मार्जिन ऑफ एरर की रेंज के भीतर भी. यूं अधिकतर ने सीट शेयर का अनुमान गलत लगाया, इसके बावजूद कि उनका वोटों का अनुमान सही रहा.
तो, हमारे पास दो किस्म के एग्जिट पोल/पोस्ट पोल हैं- बिहार में भी. कुछ ने वोट शेयर के अनुमान सही लगाए, पर सीट शेयर के गलत.
अब मैं यह पाठकों को तय करने देना चाहता हूं कि कौन सा पोल सही है- जिसने वोट शेयर का सही अनुमान लगाया, या जिसका सीटों का अनुमान सही था. दुर्भाग्यवश, कई दोनों मोर्चों पर फेल हुए- न तो उनका वोट शेयर का अनुमान सही साबित हुआ, न ही सीटों का. यहां मैं पाठकों को बताना चाहता हूं कि इस बार वोट शेयर और सीटों का गलत अनुमान लगाने वालों का इतिहास दागदार नहीं है. पिछले कई चुनावों में उनके अनुमान एकदम सटीक रहे हैं.
क्या सिर्फ एक गलती के लिए उनकी साख पर बट्टा लग जाना चाहिए और उनकी विश्वसनीयता और ईमानदारी ताक पर रख दी जानी चाहिए? मुझे लगता है कि हमें इतनी जल्दी कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए. नेताओं की तरह इन दिनों चुनाव विश्लेषकों को कोसना भी फैशन में है. नतीजों की घोषणा के एक दिन बाद, यानी 11 नवंबर को, जिन लोगों ने वास्तविक वोट शेयर के लगभग बराबर अनुमान लगाए थे, उनसे सबसे ज्यादा सवाल-जवाब किए जा रहे थे. सवाल पूछना गलत नहीं है- पाठकों और दर्शकों को सवाल पूछने का पूरा हक है लेकिन सवाल खुले दिमाग से पूछा जाना चाहिए, किसी पूर्वाग्रह का शिकार होकर नहीं.
लेकिन इस सफाई का यह मतलब नहीं कि हमें सोचने-विचारने, खुद का विश्लेषण करने की जरूरत नहीं. हमें संजीदगी से सोचना चाहिए कि हमने कैसे गलती की.
बिहार में ऐसा क्यों हुआ? जवाब साफ है- चूंकि यह काफी टाइट चुनाव थे. अंतिम वोट शेयर में ऐसा लग रहा था कि एनडीए और महागठबंधन के बीच टाई होने वाला है, एक को 37.2 परसेंट तो दूसरे को 37.2 परसेंट वोट मिले थे.
यह स्थिति किसी भी चुनाव विश्लेषक के लिए मुसीबत जैसी होती है. चाहे सैंपल साइज कोई भी हो. तिस पर, कई निर्वाचन क्षेत्रों में जीत का अंतर बहुत कम था. इससे वोटों को सीटों में रूपांतरित करना और भी परेशानी भरा हो गया. 23 सीटों पर नतीजे 2000 से भी कम वोट से तय हुए. इसके अलावा 23 सीटों पर जीत का अंतर 2000 से 4000 के बीच था. जब एग्जिट पोल/पोस्ट पोल में अनुमानित वोट शेयर पर आधारित स्विंग मॉडल की मदद से वोटों का अनुमान लगाया जाता हो तो ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों के लिए कोई भी मॉडल काम नहीं करता.
सवाल पूछे गए हैं कि चुनाव विश्लेषकों ने वोट शेयर सही बताया, पर उनका सीटों का अनुमान गलत कैसे रहा? हमारे ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट पोलिंग सिस्टम’ यानी एफपीटीपी प्रणाली में मामूली अंतर से जीत स्थिति को चुनौतीपूर्ण बनाती है. राजनीतिक दल यह सवाल किससे पूछेंगे कि क्यों एक से वोट शेयर वाली पार्टी को कम-ज्यादा सीटें मिलती हैं?
आखिर बिहार चुनावों में दो गठबंधनों को एक जैसे वोट मिले, लेकिन एक गठबंधन सरकार बना रहा है तो दूसरा विपक्ष में बैठने वाला है.
ऐसा क्यों है कि कर्नाटक में बीजेपी को कांग्रेस से ज्यादा विधानसभा सीटें मिली थीं, इसके बावजूद कि उसका सीट शेयर कांग्रेस के कम था. 2009 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को 18.6 परसेंट वोट के साथ 116 लोकसभा सीटें मिली थीं, जबकि 2014 के लोकसभा चुनावों में उससे थोड़ा ही अधिक वोट शेयर (19.6 परसेंट) के साथ कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटें मिली थीं? बीएसपी को भी यह पूछना चाहिए कि 20 परसेंट वोट के साथ भी उसे एक भी सीट क्यों नहीं मिली थी.
एग्जिट पोल इसीलिए उलट-पुलट जाते हैं, और इसके कई कारण हैं. हमें उन्हें मामला दर मामला समझना होगा, लेकिन हर नए चुनावों के साथ नई चुनौतियां उभर आती हैं. एक साल पहले क्या कोई जानता था, कि कोविड-19 डॉक्टरों के लिए नई चुनौती बन जाएगा. सोचने की बात है.
(संजय कुमार सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) में प्रोफेसर हैं. वह एक मशहूर चुनाव विश्लेषक और पॉलिटिकल कमेंटेटर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 13 Nov 2020,03:58 PM IST