मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019बिरसा के नाम गौरव दिवस और बिरसा की विरासत, उनके लोग बेबस

बिरसा के नाम गौरव दिवस और बिरसा की विरासत, उनके लोग बेबस

सरकार के दावे बड़े-बड़े हैं लेकिन बिरसा मुंडा की परपोती आज भी खुद किसानी करती हैं और हटिया में सब्जी बेचती हैं.

उत्तम मुखर्जी
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>बिरसा मुंडा को नमन करते पीएम मोदी</p></div>
i

बिरसा मुंडा को नमन करते पीएम मोदी

(फोटो:इज़हार हसन)

advertisement

15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की जयंती पर प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) ने झारखण्ड के कोल्हान को 19 एकलव्य स्कूलों की सौगात दी.उन्होंने वर्चुअली रांची में बिरसा मुंडा स्मृति उद्यान का भी उद्घाटन किया. इसके अलावा भोपाल में पीएम ने बिरसा की जयंती को हर साल 'जनजाति गौरव दिवस' के रूप में मनाने का एलान किया. झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी बिरसा की जन्मस्थली उलिहातू पहुंचे. कई योजनाएं शुरू कीं. केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा भी पहुंचे. सभी बिरसा के वंशजों से मिले. ये सब देखकर भ्रम होता है कि बिरसा, उनकी विरासत और उनके लोगों की बड़ी चिंता हो रही है. हालांकि जमीन पर सच्चाई कुछ और ही है.

15 नवंबर को भोपाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कथन

(फोटो:क्विंट हिंदी)

अखबारों में छपि बिरसा मुंडा की परपोती जॉनी मुंडा की सब्जी बेचती हुई तस्वीर बता रही है कि सरकारों ने उनके नाम पर बस छलावा ही किया है. उनकी परपोती आज भी खुद किसानी करती हैं और बगल के हटिया में सब्जी बेचती हैं.

सब्जी बेच रही बिरसा मुंडा की परपोती

(साभार: पंजाब केसरी)

बिरसा की जन्मस्थली आज भी अभाव, बेरोजगारी और लाचारी का दंश झेल रही है. देश के बाकी हिस्सों में भी आदिवासियों से वो छीना जा रहा है, जो उनका था, और सत्ता से उन्हें कुछ मिल भी नहीं रहा. उलिहातू के युवा रोजगार के लिए हरियाणा, केरल और तमिलनाडू जैसे राज्यों में पलायन कर रहे हैं. ये बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू की तस्वीर है.

बिरसा मुंडा के गांव उलिहातू की हालिया तस्वीर 

(साभार- एमके सोना)

121 साल बाद बिरसा मुंडा का सपना कितना पूरा हुआ?

''सवेरे आठ बजे बिरसा मुंडा खून की उलटी कर, अचेत हो गया. बिरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बंदी. तीसरी फरवरी को बिरसा पकड़ा गया था, किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बिरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था. क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बिरसा जानता था उसे सजा नहीं होगी,’ डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी. वो बंद हो चुकी थी. बिरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था.''


ये पंक्तियां हैं मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी की. अपने उपन्यास 'जंगल के दावेदार' में इन पंक्तियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा है कि चाहे राजनीति हो या मीडिया ट्राइबल सिर्फ प्रोडक्ट बना दिए गए हैं.

नेता चुनावी फसल काट लेते हैं और मीडिया में खबरें खूब बिकती हैं. चाहे झारखंड के बिरसा की जन्मस्थली उलिहातू हो, सिद्धो-कान्हो का उलगुलान स्थल संथाल परगना का भोगनाडीह, छत्तीसगढ़ के जंगल हों या श्री चैतन्य की ओडिशा स्थित लीलाभूमि, आदिवासियों की दशा और रहनुमाओं की दिशा में कोई बदलाव नहीं दिखता है. ये सारे इलाके साल 2021 में सुर्खियों में हैं. सारे इलाके आज कॉर्पोरेट मानचित्र में चस्पां हो चुके हैं.

महाश्वेता देवी अक्सर पलामू आती रहीं. एकबार मुलाकात के दौरान उन्होंने चुटकी ली थी. अगर आदिवासी-राग बहुत अलापा जा रहा है तो ट्राइबल दहशत में आ जाते हैं. वे सहम जाते हैं. शायद शासन-प्रशासन उन पर बड़े हमले की तैयारी में है.

आदिवासियों का अंतहीन संघर्ष

आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा है. 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के गदर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे. सन 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘उलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-जमीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे. यह क्रम आज भी जारी है.

1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी जमींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-जमीन की लड़ाई छेड़ी थी. बिरसा ने सूदखोर महाजनों के खिलाफ भी जंग का ऐलान किया.

ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, कर्ज के बदले उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. यह मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.

विकास के कथित भंवरजाल के नाम पर आज आदिवासी अस्मिता को अधिक खतरा है. साहित्यकार रमणिका गुप्ता के अनुसार पहले राजा-नवाब थे तो जरूर, वे उन्हें लूटते भी थे, पर वे उनकी संस्कृति और व्यवस्था में दखल नहीं देते थे. आज लूटते भी हैं. उनकी संस्कृति को मटियामेट भी कर देते हैं .

अंग्रेज भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे. बाद में रेलों के विस्तार के लिए, जब उन्होंने पुराने मानभूम और दामिन-ई-कोह (वर्तमान में संथाल परगना) के इलाकों के जंगल काटने शुरू कर दिए. इससे बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित होने लगे. हावड़ा-दानापुर की रेल लाइन भी विकास के लिए नहीं बल्कि आसानी से सेना भेजकर आदिवासियों के दमन के लिए बिछाई गई.

कोयला और आदिवासियों का विस्थापन

'महारानी राज तुन्दू जाना ; अबुआ राज एते आना'..बिरसा ने यह सपना देखा था. महारानी विक्टोरिया का राज जानेवाला है, अब अपना राज आएगा...हालांकि यह खवाब उनके जन्म के 121 साल बीतने व झारखण्ड अलग राज्य बनने के 21 साल बाद भी हकीकत में नहीं बदला. राज बदला, ताज बदला लेकिन बिरसा की जन्मस्थली उलिहातू से लेकर बाकी देश में संकट में है आदिवासी. बिरहोर और उरांव जैसे आदिवासी तेजी से लुप्त होते जा रहे हैं.

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT
देश के बड़े शहरों को बिजली से रौशन होना है. बिजली के लिए कोयले की जरूरत है. बिजली के लिए देश को 2024 तक एक बिलियन टन कोयले की जरूरत होगी. कोयले का यह रिज़र्व बिरसा के झारखण्ड, सिद्धो-कान्हो के संथाल परगना, छत्तीसगढ़ के दण्डकारण्य और श्री चैतन्य की लीलाभूमि ओडिशा में बिखरा पड़ा है. कोयले के इस विशाल भंडार के दोहन के लिए आदिवासियों का फिर एक बड़ा विस्थापन ज़रूरी है.

दुनिया के कोल रिजर्व का सात प्रतिशत हिस्सा भारत में है. इसमें सर्वाधिक कोयला ट्राइबल स्टेट झारखण्ड में 80,716 मिलियन टन है. आदिवासी बहुल ओडिशा में 75,073 व छत्तीसगढ़ में 52,533 मिलियन टन कोयले का भंडार है. छत्तीसगढ़ ने 127.09 , झारखण्ड ने 113.014 और ओडिशा ने 112.93 करोड़ टन कोयला पिछले साल देश को दिया है.

(ग्राफिक्स-क्विंट हिंदी)

निशाने पर आदिवासी, तेजी से घट रही आबादी 

देश के विकास में सर्वाधिक योगदान आदिवासियों का रहा है. कोयला हो या लौह अयस्क ट्राइबल बेल्ट से ही देश को नसीब होता है. हालांकि देश की आबादी जब तेजी से बढ़ रही है, विस्थापन का दर्द झेल रहे आदिवासी तेजी से घट रहे हैं.

जब आबादी घटाने के लिए गैर आदिवासियों को परिवार कल्याण का सहारा लेना पड़ रहा है उस समय अभाव और अपुष्टि से कई ट्राइबल समुदाय अंतिम सांसें गिन रहे हैं. बिरहोर, उरांव समेत कई समुदाय विलुप्त होने के कगार पर हैं. छत्तीसगढ़ में ऐसे ही एक समुदाय को बचाने के लिए सरकार ने वर्षों पहले नसबंदी पर रोक लगा रखी है. इस समुदाय के लोगों को नसबंदी कराने मध्य प्रदेश जाना पड़ता है.

1931 में झारखंड में ट्राइबल की आबादी 45 प्रतिशत के करीब थी जो 1951 में 35.8 प्रतिशत पर पहुंची. आदिवासी कल्याण का बहुत ढिंढोरा पीटा गया तो 1991 में आबादी घटकर 27.66 प्रतिशत, 2011 में 26.30 हो गई.

भारतीय जेलों में सड़ रहे आदिवासी

देश की सरकार बिरसा मुंडा की जयंती को जब जनजाति गौरव दिवस के रूप में मना रही है, उस समय भारतीय जेलों में बेवज़ह सड़ रहे आदिवासियों के आंकड़े चिंता में डाल देते हैं.

राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो NCRB डेटा के हिसाब से वर्तमान में भारतीय जेलों में 4,78,600 कैदी बन्द हैं. इनमें से 1,44,125 सज़ायाफ्ता कैदी हैं. 1,62,800 कैदी आदिवासी व दलित हैं. सिर्फ आदिवासियों की संख्या 53,336 है. झारखण्ड में 18,654 कैदियों में 5322 ट्राइबल हैं. अन्य दलितों को जोड़ा जाए तो संख्या 12 हजार पार कर जाएगी.

सरकार कहती हैं कि जल, जंगल, जमीन पर ट्राइबल का ही अधिकार रहेगा. वर्तमान झारखण्ड सरकार ने भी कैबिनेट में उनके हक-हकूक की हिफाजत के लिए कई फैसले लिए हैं लेकिन जेलों में बन्द आदिवासियों के आंकड़े चीख-चीख कर बताते हैं फॉरेस्ट एक्ट, कथित नक्सली गतिविधि और विस्थापन के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए ही उन्हें सलाखों के अंदर किया गया है.

ट्राइबलों पर जुल्म के मामले में MP नंबर वन, झारखण्ड में एकसाथ दस हजार पर राजद्रोह के मामले

पीएम मोदी ने मध्य प्रदेश की जमीन से आदिवासी गौरव दिवस और बिरसा की बात की है. क्या विडंबना है कि आदिवासियों के खिलाफ अत्याचारों और शोषण के मामले में मध्य प्रदेश की रिपोर्ट शर्मनाक है. प्रदेश बाल अपराध और आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में नंबर 1 है. प्रदेश में साल 2020 में आदिवासियों के उत्पीड़न के मामले 20% बढ़े हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट कहती है कि प्रदेश में अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत 2,401 केस दर्ज हुए हैं. बीते 3 साल से प्रदेश इन अपराधों में पहले पायदान पर ही है.

आदिवासियों के उत्थान के नाम पर झारखण्ड अलग राज्य का गठन हुआ है, लेकिन जब आदिवासियों ने परम्परागत पत्थलगढ़ी आंदोलन शुरू किया तो राज्य सरकार ने बिरसा मुंडा के जिले के दस हजार लोगों पर राजद्रोह का मामला दर्ज करा दिया. पूरी दुनिया में अपने ही लोगों को इतने बड़े पैमाने पर देशद्रोही बता देना शायद ही किसी देश ने देखा होगा.

आदिवासी परंपरा, जीवनशैली का अनादर

ट्राइबल के लिए धर्म से अधिक मानवीय मूल्य का महत्व अधिक है. यही वजह है सनातन, सरना, ईसाइयत के इर्द-गिर्द समाज को दिखाने की पूरी कोशिश होती है, लेकिन धर्म के इतर यह समुदाय ज़ुल्म और शोषण के खिलाफ़ मुखर प्रतिवाद करता है और मानव धर्म को सर्वोपरि मानता है. अब तो माओवाद के नाम पर भी ट्राइबल के अंदर स्पेस बनाने की होड़ मची हुई है. छल-प्रपंच से ये कोसों दूर रहते हैं सो आसानी से इन्हें ग़ुमराह भी लोग करते हैं.

छत्तीसगढ़ के बस्तर के जंगल के गांवों में 1.71 लाख लोगों की आबादी है. ट्राइबल ही यहां मेजोरिटी में थे, लेकिन अब वहां बाहरी लोग इतने बढ़ गए हैं कि आदिवासियों की संस्कृति, परम्परा , भाषा..सबकुछ बुरी तरह से प्रभावित हुई है. आखिर अपनी ही धरा पर ट्राइबल एलियन क्यों बना दिए गए?

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 15 Nov 2021,06:40 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT