मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019'मेरा भारत महान', 'शाइनिंग इंडिया' के बाद 'महान भारत': जुमलों से सच नहीं छिपता

'मेरा भारत महान', 'शाइनिंग इंडिया' के बाद 'महान भारत': जुमलों से सच नहीं छिपता

जिस देश में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई कम होने की बजाय बढ़ रही हो, वहां शेखी बघारने की गुंजाइश कम हो जाती है.

आरती जेरथ
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>यह हैरानी की बात है कि बीजेपी ऐसे नारों के साथ चुनावी युद्ध का बिगुल बजा रही है</p></div>
i

यह हैरानी की बात है कि बीजेपी ऐसे नारों के साथ चुनावी युद्ध का बिगुल बजा रही है

Image: Deeksha Malhotra/The Quint

advertisement

यह हैरानी की बात है कि बीजेपी(BJP) ऐसे नारों के साथ चुनावी युद्ध का बिगुल बजा रही है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी(PM modi) के पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों- राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भारी पड़ गए थे.

“हम सत्ता के लिए या मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जनादेश की मांग नहीं कर रहे. हम महान भारत के लिए संपूर्ण बहुमत चाहते हैं.” महाराष्ट्र में एक रैली के दौरान हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था.

अब अमित शाह के शब्दों को उलटा कर दें तो उनका “महान भारत” का नारा, कुछ-कुछ राजीव गांधी के स्लोगन “मेरा भारत महान” जैसा ही लगता है या वाजपेयी के “इंडिया शाइनिंग” सरीखा. कोई भी दो स्थितियां एक सी नहीं होतीं. और इतिहास हमेशा दोहराया भी नहीं जाता. लेकिन इन लोकप्रिय नारों के साथ जुड़े चुनावी हादसों को याद रखने जितनी स्मरण शक्ति तो अमित शाह के पास होगी ही.

राजनैतिक जुमलों के पीछे देश की असलियत नहीं छिप सकती

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के लिए 400 से अधिक के बहुमत के लिए “मेरा भारत महान” का नारा गढ़ा गया था. यह कंप्यूटर क्रांति के जरिए स्मार्ट टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करके, देश को आधुनिक और संपन्न बनाने का वादा था.

लेकिन बोफोर्स के बाद इसी नारे ने राजीव गांधी की लुटिया डुबो दी. देश भर में ऑटो रिक्शा के पीछे इस नारे की पैरोडी देखी जा सकती थी- मेरा भारत महान, सौ में से निन्यानवे प्रतिशत बेईमान.

इसी तरह “इंडिया शाइनिंग” को भी किसी राजनैतिक दल की सबसे बड़ी पीआर ट्रैजेडी के रूप में देखा जाता है. इसे एक एड कंपनी ने मार्केटिंग टैगलाइन के तौर पर तैयार किया था और यह माना गया था कि इससे आर्थिक आशावाद की भावना जगेगी.

लेकिन जैसा कि विज्ञापनों में हमेशा होता है, यह संदेश सच्चाई से कोसों दूर था. देश की सच्चाई यह है कि आबादी के एक बड़े वर्ग में आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी कायम है.

इसके बाद बीजेपी चुनाव हार गई. तब पार्टी के सीनियर नेता एल.के.आडवाणी ने माना था कि उनकी कैंपेन लाइन गैर मुनासिब थी. इसी के चलते उनके विरोधियों को यह मौका मिला कि वे “इंडिया शाइनिंग” के दावे पर सवाल उठाते.

सभी कामयाब नारे अपने दौर की सच्चाई को व्यक्त करते हैं, और जिन लोगों को लक्षित होते हैं, उनकी उम्मीदों से जुड़े होते हैं. लेकिन देश का राजनैतिक इतिहास बताता है कि लोग विजय की हुंकार से शायद ही कनेक्ट कर पाते हैं. ऐसा वे लोग भी नहीं कर पाते जो भारत या इंडिया की अपील पर राष्ट्रवादी भाव से भर जाते हैं.

भारत में नारेबाजी का इतिहास- सफलता और असफलता

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रवाद एक शक्तिशाली भावना थी, जब देश ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को बाहर निकलने को छटपटा रहा था. यह वह दौर था, जब "इंकलाब ज़िंदाबाद", "भारत छोड़ो", "जय हिंद", और "दिल्ली चलो" जैसे नारे गूंजते थे और सार्वजनिक सभाओं में जान फूंकते थे.

आजादी के बाद विदेशी शासक के खिलाफ सामूहिक पहचान स्थापित करने की जरूरत खत्म हो गई. लेकिन उसकी जगह बदलते हालात में क्षेत्रीय, उपक्षेत्रीय और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को उजागर करने की कोशिश होने लगी.

इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया जोकि कांग्रेस के पुराने सिपहसालार के खिलाफ था, फिर इमरजेंसी के बाद के चुनावों में स्वतंत्रता और लोकतंत्र का आह्वान किया गया और जनता पार्टी सरकार के पतन के बाद इंदिरा की वापसी पर नारा दिया गया- ”अ गवर्नमेंट दैट वर्क्स”. ये सभी नारे अपने-अपने दौर की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक गतिशीलता को दर्शाते थे.

कहा जाता है कि नारे सघन इतिहास होते हैं. बीजेपी ने तुरत फुरत इसे समझा जोकि उसकी कामयाबी में नजर भी आया. “बारी बारी सबकी बारी”, “अब की बारी अटल बिहारी” ने 1998 में वाजपेयी सरकार को बनाने का मौका दिया. इस नारे में अपील थी कि पुराने से थक जाओ तो कुछ नए के साथ प्रयोग करो.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

मोदी सरकार को सच्चे और लोकलुभाऊ नारे तैयार करने चाहिए

“शाइनिंग इंडिया” से जुड़े हादसे ने मोदी के रणनीतिकारों को प्रेरित किया कि वे उन भावों पर दोबारा विचार करें, जिसने वाजपेयी को केंद्र की बागडोर थमाई थी. 2014 के लिए जीत का मंत्र बने, “अब की बार मोदी सरकार” और “अच्छे दिन”. ये नारे उस दौर का मूड दर्शाते थे जोकि यूपीए सरकार के दो कार्यकाल में उदासीनता से भरे थे, और बदलाव चाहते थे.

दिलचस्प है कि 2019 में भी वह भाव जारी रहा. "मोदी है तो मुमकिन है", "काम रुके ना देश झुके ना" जैसी कैचलाइंस में बेहतर कल के वादे के जरिए लोगों की उम्मीदों को टूटने नहीं दिया गया. इसने पार्टी के लिए अच्छा काम किया.

लोगों को छूने वाले नारे आम तौर पर मौजूदा सांस्कृतिक, सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक स्थितियों से निकलते हैं. जिस देश में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई कम होने की बजाय बढ़ रही हो, वहां शेखी बघारने की गुंजाइश कम हो जाती है.

“महान भारत” या “भारत महान” या फिर “शाइनिंग इंडिया” की अवधारणा उनके लिए खास मायने नहीं रखती, जो नौकरियों के लिए परेशान हों, महंगाई से जूझ रहे हों या सामाजिक भेदभाव का शिकार हों.

मोदी और शाह ने दिखाया है कि वे चतुर राजनेता हैं और उनकी पकड़ आम लोगों की नब्ज पर है. इसी से यह समझना मुश्किल हो जाता है कि शाह ने व्यावहारिकता के बजाय “महान भारत” की डींग क्यों हांकी? वे जानते हैं कि जीत की ललकार एक कमजोर विपक्ष को डरा सकता है. लेकिन क्या यह मतदाताओं के दिल और दिमाग को जीत सकती है?

(आरती जेरथ दिल्ली में रहने वाली एक सीनियर जर्नलिस्ट है. उनका ट्विटर हैंडिल @AratiJ है. यह एक ओपनियिन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT