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विराट कोहली का ड्रीम रन अचंभित करने वाला है. मैदान में हर फॉर्मेट (टी-20, वनडे और टेस्ट) में उनकी बादशाहत है. मैदान के बाहर हाल ही संपन्न हुई परियों की कहानी जैसी शादी. शायद इसी को मिडास टच कहते हैं.
2014 से लेकर अब तक भारतीय जनता पार्टी की भी कहानी इससे मिलती-जुलती है. कुछ झटकों को छोड़ दिया जाए, तो बीजेपी ने हर चुनावी जंग में पहले से बहुत बेहतर किया. यही वजह है कि अभी देश के 19 राज्यों में बीजेपी और उसके सहयोगियों की सरकार है. पिछले कई दशकों में किसी एक पार्टी का राजनीति में इतना बड़ा दबदबा नहीं रहा है. इस बादशाहत को कहां-कहां से चुनौती मिल सकती है? हाल के चुनावी नतीजों में इसका जवाब है.
कारनेगी इनडाउमेंट के फेलो मिलान वैष्णव के 2015 के एक लेख के मुताबिक, 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरे देश में 189 सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी का सीधा मुकाबला था. इसमें 166 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार जीते. मतलब कि बीजेपी की सफलता दर 88 फीसदी रही. बाकी दूसरे मुकाबलों में बीजेपी की सफलता दर सिर्फ 49 फीसदी ही थी.
हाल ही में खत्म हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में भी दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे के आमने-सामने थीं, लेकिन नतीजे लोकसभा चुनाव के ट्रेंड से एकदम अलग रहे. यहां बीजेपी ने 182 में से 99 सीटें जीतीं. यहां सफलता दर रही 54 फीसदी.
लेकिन सीधे मुकाबले में अगर बीजेपी की सफलता दर 88 फीसदी से घटकर 60 फीसदी आ जाती है, तो पार्टी को 53 सीटों का नुकसान हो सकता है. मतलब यह है कि कांग्रेस में मामूली मजबूती भी बीजेपी के लिए खतरे की बड़ी घंटी है.
पिछले लोकसभा चुनाव में 5 राज्यों (गुजरात, राजस्थान, हिमाचल, उत्तराखंड और दिल्ली) में बीजेपी ने सारी सीटें जीतीं. मतलब 67 सीट में से 67 में जीत. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड की 134 सीटों में से बीजेपी और उसके सहयोगियों ने 122 सीटें जीती. कुछ मिलाकर इन राज्यों की 201 लोकसभा सीटों में बीजेपी के उम्मीदवार 189 पर विजयी हुए.
ऐसी बंपर जीत तो रिपीट होती नहीं है. और इन राज्यों में से दो ऐसे भी हैं, जहां कांग्रेस और बीजेपी के अलावा मजबूत क्षेत्रीय पार्टियां भी हैं. अगर इन राज्यों में रिकॉर्डतोड़ प्रदर्शन में थोड़ी भी कमी आती है, तो इसकी भरपाई कहां होगी?
2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को करीब 17 करोड़ वोट मिले थे, जो इसके पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में 10 करोड़ ज्यादा थे. दूसरी तरफ कांग्रेस को 10.7 करोड़ वोट मिले, जो 2009 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले 1.2 करोड़ कम थे.
दूसरी तरफ, जिस तरह से कुछ प्रभावशाली गुटों की बीजेपी से नाराजगी की खबरें सामने आ रही हैं, उससे पार्टी की जमापूंजी में कमी होने का डर है. इन प्रभावशाली समुदायों में एक बड़ा तबका मुसलमानों का है, जिनमें वोटरों की संख्या करीब 14 करोड़ है. इस बड़ी आबादी का करीब आधा हिस्सा सिर्फ चीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में है.
इसके अलावा मराठा, जिनकी आबादी महाराष्ट्र की कुल आबादी का एक-तिहाई है, वो बीजेपी से नाराजगी जाहिर कर चुके हैं. यही हाल हरियाणा में जाटों का भी है, जिनकी आबादी भी राज्य की कुल आबादी का करीब एक-तिहाई से थोड़ी ही कम है.
इसकी भरपाई कहां से होगी- गांवों से, जहां बेहाल किसानों की खबरें कई महीनों से आ रही हैं? युवाओं से, जो नौकरी के मौके गायब होने से नाराज हैं?
बीजेपी ने 2014 में साबित किया था कि चमत्कार हो सकता है. रिकॉर्डतोड़ पॉजिटिव वोट स्विंग और रिकॉर्डतोड़ वोटर का इजाफा वाकई ऐतिहासिक था. लेकिन चमत्कार बार-बार होते रहेंगे? बीजेपी के समर्थक तो यही कहेंगे, लेकिन विरोधियों को इस बात से सुकून हो सकता है कि इतिहास बार-बार दोहराए नहीं जाते हैं.
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