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“मेरी किताब यह बताने का प्रयास नहीं करती कि इस व्यक्ति ने या इस विवाद ने सब कुछ बर्बाद कर दिया, क्योंकि अगर साफ तौर पर कहें, तो ग्रामीण दुर्दशा के लिए आज देश में हर कोई सामूहिक रूप से जिम्मेदार है.”
दिल्ली में 29 नवम्बर को किसानों के दो दिवसीय विरोध प्रदर्शन के दौरान फिरोज वरुण गांधी ने मुझसे यह बात कही है. भारतीय किसान भूखे, बेचैन और गुस्से में हैं. वे एक बार फिर व्यवस्था को झकझोरना चाहते हैं. वे अपने में बहुत ज्यादा बदलाव चाहते हैं. गांधी की नई किताब ‘ए रूरल मैनिफेस्टो’ भी यही चाहती है.
तेजी से चुनावी मुद्दा बनते जा रहे ग्रामीण दुर्दशा से भारत कैसे निपट सकता है, इस बारे में 823 पेज लम्बी यह किताब एक अकादमिक अध्ययन है. भारतीय किसान अब नहीं चाहते कि आगे भी उनके साथ उदासीनता का व्यवहार जारी रहे.
गांधी अपनी बात शुरू करते हैं एक किताब लिखने की जरूरत से, जिसे उनके संसदीय क्षेत्र सुल्तानपुर का शायद ही कोई व्यक्ति पढ़ना चाहे.
“मैं संसद का सदस्य हूं और मैंने बहुत पहले ही तय कर लिया था कि संसद से सैलरी नहीं लेनी है. मैंने इसे उन किसानों के परिवारों को दान कर दिया, जिन्होंने खुदकुशी की है. इसी तरह जब कई साल बीत गये, तब मुझे महसूस हुआ कि मैं जिन लोगों को मदद पहुंचा रहा हूं, उनकी तादाद बहुत कम है. उनके मुकाबले परेशान किसानों की संख्या बहुत बड़ी है, इसलिए मैंने महसूस किया कि क्यों न एक राजनीतिक आंदोलन की शुरुआत हो. कुछ ऐसा, जो व्यापक स्तर पर हो.
यूपी में जिला प्रशासन की मदद से हमने ऐसे किसानों की पहचान की है और उन इलाकों के लिए आम लोगों से चंदे इकट्ठा करना शुरू किया है. इलाहाबाद, बलरामपुर, बिजनौर, लखीमपुर-खीरी जिलों के करीब 4300 किसानों के साथ हम काम करते हैं. हमारा पूरा ध्यान इस खास अपराध की दर को कम करने पर है. ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक आदमी पैसे ले, अपने कर्ज को कम या खत्म करे, फिर अपनी बेटी की शादी पर इतना खर्च करने लगे कि एक बार फिर से कर्ज में डूब जाए.
इस आंदोलन ने मुझे यह भावना दी कि हम चीजों को तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचता देख सकें. लेकिन एक बार फिर प्रयास का यह स्तर बहुत छोटा है. मैंने महसूस किया कि सामाजिक बदलाव पर असर डालने के लिए हमें नीतिगत स्तर पर चीजों को बदलने की जरूरत है, क्योंकि यही एकमात्र तरीका है, जो व्यवस्थित तरीके से इस समस्या को हल कर सकता है.
तभी मैंने इस किताब पर काम करना शुरू किया. यह किताब मुझे पानी, श्रम, कपड़ा, ऊर्जा तक पहुंच, कृषि विपणन आदि पर बात करने के लिए 11 राज्यों के 60 जिलों तक ले गयी.”
देश जिस महत्वपूर्ण सामाजिक राजनीतिक अवस्था में खड़ा है, मुझे आश्चर्य होता है कि गांधी की किताब का मकसद किसानों के लिए उनके आसपास की स्थितियों को बदलने का है.
“आप अक्सर इस तथ्य को लेकर शहरी पूर्वाग्रह पाते हैं कि किसानों के ऋण माफ कर दिये गये हैं. अगर आप किसानों के माफ किए गये कुल ऋण को देखें और औद्योगिक सब्सिडी को, तो यह उद्योगों को सब्सिडी का महज 3.6 फीसदी है. महज 3.6 फीसदी! जबकि हम बात उन लोगों की कर रहे हैं जिनकी आबादी 70 फीसदी है. तो आखिर हम किस बारे में बात कर रहे हैं?
कृषि पर इन दिनों बातचीत ऐसे हो रही है मानो हम किसानों के पक्ष में सबकुछ कर रहे हैं जो कि ठीक उल्टा है.
एक किसान एक हेक्टेयर धान या गेहूं की खेती से 2500 से 2800 रुपये प्रति महीना कमाता है. एक खेतिहर मजदूर महीने में 5000 रुपया कमाता है. मतलब ये कि एक किसान अपने खेत में काम करने वाले मजदूर से बुरी स्थिति में है. ऐसा कब तक चलेगा?
केवल खेती पर मैं नहीं बोल रहा. मेरा अध्ययन एक अकादमिक समालोचना है कि कैसे आने वाले 100 साल तक हमारे गांव एक आर्थिक ईकाई के तौर पर सक्षम बने रह सकेंगे. क्योंकि अगर गांव सक्षम नहीं हुए, तो साफ कहूं, तो एक देश के रूप में भारत ढहने जा रहा है. आंतरिक प्रवास का बोझ शहर सहन नहीं कर सकते. हमें गैर कृषि आय पर नजर डालने की जरूरत है, हमें कपड़ा, हस्तशिल्प को देखने की जरूरत है. भारत में 300 से ज्यादा हस्तशिल्प समूह हैं. हम क्यों नहीं उनकी ओर बढ़ रहे हैं?
भारत में इस्पात के क्षेत्र में एक नौकरी पर 24 लाख रुपये खर्च होता है, टेक्सटाइल में एक लाख रुपये में 24 नौकरियां होती हैं. एक देश के रूप में, हम किस ओर देख रहे हैं? हमारे पास बेरोजगार लोगों की फौज है. हम क्या कर रहे हैं?”
भारत में ग्रामीण दुर्दशा कोई नयी सामाजिक-आर्थिक घटना नहीं है. गांधी विस्तृत ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसे बताते हैं जब वे ब्रिटिश राज और प्रारम्भिक नीति निर्माताओं से हुई भूल का जिक्र करते हैं. कई सबक हैं, हालांकि ये इतने आसान भी नहीं.
“जब बॉम्बे प्रेसिडेन्सी बनी थी, अंग्रेजों ने दक्षिण बॉम्बे प्रेसिडेन्सी में सिंचाई पर ध्यान दिया था. अब यह इलाका गुजरात और पश्चिम महाराष्ट्र में है. लेकिन उन्होंने विदर्भ में कुछ नहीं किया, क्योंकि तब यहां बड़े पैमाने पर जंगल था. अब सिंचाई पर इसके दुष्परिणामों को देखें. विदर्भ के किसान सिर्फ 4 प्रतिशत खेतों में सिंचाई करते हैं और वे पूरी तरह से गरीबी में डूबे हुए हैं. इसी इलाके में सबसे ज्यादा देश के किसान आत्महत्या करते हैं. समस्याएं हैं लेकिन समाधान बहुत मुश्किल नहीं है.”
जब मैं उन्हें ये टोकता हूं कि क्यों लगातार सरकारें इस विषय को भूलती रहीं, तो उनका जवाब होता है:
यह केवल सरकार की बात नहीं है. यह बीच के चैनलों से जुड़ी बात भी है. 1972 में तब कलकत्ता में एक ऐतिहासिक अध्ययन हुआ था, जिसमें कहा गया था कि संतरे के बाजार मूल्य का केवल 2 फीसदी ही किसानों तक पहुंचता है. ज्यादातर बाजार के माध्यम गटक जाते हैं.
हमारी मंडियों, कृषि समितियों, पर नजर डालें. कच्ची सड़कें, खुली जगह. आज भी स्टोरेज की सुविधा नहीं है. कोई सुरक्षा नहीं है. बड़ी मात्रा में खाद्यान्न सड़ जाते हैं. जब आप वहां जाते हैं तो महसूस होता है मानो कोई माफिया इसे चला रहा है. किसान उनकी दया पर हैं. किसान एक ट्रैक्टर ट्रॉली में सवार होकर 7 से 8 किमी दूर वहां जाते हैं. कई बार वे वहां 3 से 4 दिन रुकते हैं, ताकि अच्छे दाम मिलें और फिर तंग आकर किसी भी दाम पर अपनी उपज बेच देते हैं. अब भी, अगर हम कुछ नहीं करें और सिर्फ अपने देश में मंडियां तय कर दें, तो काफी हद तक किसानों की दुर्दशा कम हो जाएगी.
क्या सरकार जिस तरह से किसानों को डिजिटल इंडिया के दायरे में लाने की कोशिश में है, यह ठीक ठीक वैसा ही नहीं है? ई-मंडी और दूसरे ऐप जैसे समाधान क्या हैं?
संचार और सूचना क्रांति से किसानों को मदद मिलेगी. बहरहाल बात ये है कि कितने किसानों के पास स्मार्टफोन हैं? अगर उनके पास स्मार्टफोन हैं भी, तो वे सस्ते हैं, जिसमें बैटरी की पर्याप्त क्षमता नहीं है. बिजली की स्थिति अच्छी नहीं है इसलिए उनके फोन आधे समय भी चार्ज नहीं रहते.
एक ग्रुप, जो कर्नाटक में मांड्या से मोबाइल के जरिए सूचना फैलाने का बड़ा काम कर रहा था, उसके साथ मैंने बांडा में एक प्रॉजेक्ट लिया था. शुरू में मैंने बांडा के 4 गांवों को लिया और हमने उनके साथ सूचनाओं को साझा करना शुरू किया. हमने पाया कि वे लोग इसका विरोध करने लगे. उनका कहना था, “भैया, हम थोड़े ही फोन देखकर खेती करेंगे.” लेकिन, जब मैं तीन महीने बाद दोबारा गया, वे वास्तव में खुद को शिक्षित करने के लिए दिन में एक घंटे फोन देख रहे थे.
डिजिटल समाधान निश्चित रूप से असर दिखाएगा, लेकिन कृपया याद रखें कि भारत में हम रिकॉर्ड समय में मध्ययुग से उत्तर आधुनिक युग तक पहुंच गये हैं. इसलिए हम एक साथ दो अलग-अलग समय जोन में रह रहे हैं.
यह भारत की बंटी हुई सोच को बयां करती हैं. इससे ये भी पता चलता है कि हम किस तरह देश में दुग्ध व्यवसाय को देख रहे हैं. कई लोगों के लिए यह केवल आर्थिक मुद्दा है, जबकि कई लोग इसे धार्मिक तौर पर देखते हैं. वरुण गांधी की मां और केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी का जानवरों के अधिकारों के नजरिए से इसे लेकर एक अलग ही रुख है.
जब हम डेयरी की बात करते हैं, मेरी मां जानवरों के अधिकारों की सोच बीच में ले आती है और मैं इसे विशुद्ध आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखता हूं. अब एक आदमी अगर दूध के व्यवसाय में है तो दूध बंद कर देने के बाद जानवर को वह निश्चित रूप से बूचड़खाने ही ले जाएगा, क्योंकि उसके बाद उसे रखने का बोझ वह सहन नहीं कर सकता. ये जीव किसानों के लिए प्रासंगिक बने रहें, इसके लिए हमें किसी और व्यवस्था की ओर देखने की जरूरत है.
भारत में हमें ऊर्जा की सख्त जरूरत है. एलपीजी सिलेंडर, जो क्रूड ऑयल से बने होते हैं, उसकी कीमत जब चुभने लगती है और एक समय समाज के कमजोर व्यक्ति के लिए उसका भार असहनीय हो जाता है.
इसी तरह अगर हम गोबर गैस प्लांट पर नजर डालें तो हमारी कई समस्याएं सुलझ जाएंगी. एक सांड 30 से 40 किलो गोबर हर दिन देता है. अगर हम हर गांव में स्थानीय गोबर गैस प्लांट बना सकते हैं और उसे हर घर से जोड़ सकते हैं हमारे पास बिजली की उपलब्धता बढ़ जाएगी. परेशान करने वाली दूरी कम हो जाएगी और यह सस्ती हो जाएगी. और, ऐसे जीव हमेशा हमारे लिए प्रासंगिक बने रहेंगे और इसलिए वे भी सम्मान के साथ जी सकेंगे.
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