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चुनावी राजनीति में कम ही ऐसे मौके आते है ,जब किसी राज्य के पंचायत नगरपालिका चुनाव के नतीजों को भी डीकोड करने में कई दिन लग जाएं. यूपी के निकाय चुनाव के नतीजों को लेकर कुछ ऐसा ही हो रहा है . शहरी निकायों में बढ़त हासिल करने वाली बीजेपी इसे अपनी बड़ी जीत बताने का कोई मौका नही छोड़ रही है.
टीवी न्यूज चैनल नतीजे वाले दिन बिना नतीजों की बारीकियों में गए स्थानीय निकाय चुनावों में बीजेपी के परचम की कहानी बता चुके है पर निकाय चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने पर बीजेपी के लिए खुश होने से ज्यादा चिंतिंत होने की जरूरत है.
तीन निष्कर्ष बड़े साफ है. बड़े शहरों में बीजेपी का दबदबा कायम है, पर छोटे शहरों और ग्रामीण इलाकों में बीजेपी की तुलना में निदर्लीय ज्यादा जीते हैं और अगर लोकसभा में सपा, बीएसपी और कांग्रेस इक्ट्ठे हो जाएं तो बीजेपी का रथ यूपी में रुक सकता है .बीजेपी के 16 में 14 मेयर जीतने के आंकड़ों को अगर थोड़ी देर के लिए किनारे कर दें, तो नगरपालिका परिषद और नगर पंचायत में बीजेपी को मिला समर्थन चिंतिंत होने के लिए काफी है.
योगी पास तो हुए हैं पर फर्स्ट डिवीजन के साथ नही . अगर पंचायत और नगर पंचायतों के नतीजों पर नजर डालें, तो 5433 नगर पंचायत सदस्यों में निर्दलीय की संख्या 3875 है यानि कुल सीट की 71 प्रतिशत सीटें निदर्लीयों ने जीती है. बीजेपी 600 सीट जीतकर महज 12 प्रतिशत सीट ही जीती है. सपा 453 सीट, बीएसपी 218 सीट और कांग्रेस ने 126 सीट जीती है .नगरपंचायतों के कुल 438 अध्यक्षों में निर्दलीयों ने 41 प्रतिशत सीटें जीतकर 182 सीटें जीती है, तो बीजेपी 22 प्रतिशत यानि 100 सीटें ही जीत पाई है सपा ने 83 और बसपा ने 45 कांग्रेस ने 17 सीटें जीतीं है.
तो क्या बीजेपी के निकाय चुनावों में झंडा फहराने की पूरी कहानी सही नहीं है? उससे ज्यादा क्या योगी बीजेपी हाईकमान की उम्मीदों पर खरे नही उतरें है ? ऐसा निष्कर्ष निकालना योगी पर टिप्पणी करने में थोड़ी जल्दबाजी होगी.
ऐसा नही है कि योगी ने इससे पहले बीजेपी को चुनाव जितवाए नही हैं, लेकिन 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य के कैप्टन के रूप में उनका यह पहला चुनाव था. अब तक वो यूपी में बड़े प्रचारक और पूर्वी यूपी की सीटों पर बीजेपी को जिताने का जिम्मा बखूबी निभाते रहे थे.
मुख्यमंत्री योगी ने अकेले 50 से ज्यादा सभाएं की और उप मुख्यमंत्री कैबिनेट के साथियों के अलावा केंद्रीय मंत्रियों की भी प्रमुख शहरों में सभाएं करवाई. धन बल के इस्तेमाल से लेकर हेलीकॉप्टर और एसयूवी से पंचायत चुनाव अभियान का नेतृत्व किया . पर बड़ी लकीर खींचने के लिए योगी को अभी और मेहनत करनी होगी . गोरखनाथ पीठ मंदिर के अपने वॉर्ड 68 में बीजेपी की निर्दलीय से हार की कहानी भी मायने रखती.
योगी को देश की राजनीति में बड़ी छलांग लगाने के लिए बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के यूपी से जीते 73 सांसदों के रिकॉर्ड की बराबरी करना होगा या कम से कम उसके आसपास बीजेपी को लेकर जाना होगा.
शिवराज रमण सिंह वसुंधरा राजे अपने अपने राज्यों में बीजेपी को कई बार जीत दिला चुके हैं. लेकिन योगी के बड़े राज्य का मुखिया होने और अपनी प्रखर हिन्दुत्ववादी नेता की छवि के कारण बीजेपी और संघ की सीढ़ी में सीधे छलांग मारकर ऊपर पहुंचने की प्रबल संभावना है और इसके लिए बीजेपी योगी को पूरा राष्ट्रीय मंच दे रही है, चाहे हिमाचल के चुनाव प्रचार का मसला हो या गुजरात के चुनाव में योगी की प्रमुख भूमिका .
योगी अपने रोल को समझते हैं और बीजेपी आरएसएस की उनसे उम्मीदें को भी इसलिए योगी ने निकाय चुनावों की व्यूह रचना के लिए राम की धरती अयोध्या को दीपावली पर दीयों से रौशन कर दिया था. अब कृष्ण की धरती मथुरा में होली की तैयारी है . विकास के साथ मथुरा वृंदावन अयोध्या वाराणसी के धार्मिक सर्किट को जन से जोड़कर लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी गई है पर लोकसभा में बड़ी जीत के लिए हिंदुत्व के एजेंडे पर धुव्रीकरण के साथ परफार्र्मर की अपनी इमेज बनानी होगी .
राजनीति परशेप्शन से चलती है और बीजेपी गुजरात के चुनावी कैपैंन में यूपी के नतीजों को जमकर अपने पक्ष में भुना रही है .बीजेपी अपने जीते मेयरों को 12 दिसंबर को गांधीनगर में प्रधानमंत्री से मिलवाकर यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि जनता का विश्वास मोदी के साथ है और गुजरात के पटेल मतदाता अपने वोट को बेकार न करें . चुनाव में हवा का बड़ा रोल होता है कई बार हकीकत से भी ज्यादा.
निकाय चुनाव की तुलना लोकसभा और विधानसभा के चुनाव से नही की जा सकती .स्थानीय निकायों के चुनाव में जनता स्थानीय उम्मीदवारों की लोकप्रियता और उनकी स्थानीय उपलब्धता पर वोट कर रही होती है .लोकसभा चुनाव का नैरेटिव बड़े मुद्दे और बड़े किरदार के आसपास घूम रहा होता है . पर हां अगर इन आंकड़ों को लोकसभा के फलक पर फैलाएं तो बीजेपी के लिए सावधान होने की जरूरत है . राजनीति संभावनाओं का खेल होता है अगर निकाय चुनाव से सबक लेकर सपा बसपा कांग्रेस लोकसभा चुनाव में इकट्ठे हो जाएं तो बीजेपी के लिए 2014 के 73 सीट जीतने की कहानी दुहरानी मुश्किल हो सकती है.
(शंकर अर्निमेष सीनियर जर्नलिस्ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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