advertisement
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये बयान कि बीजेपी को सत्ता में होने के नाते ‘पिछड़े मुसलमानों के बीच जाना होगा’, पार्टी की घोषित नीति में महत्वपूर्ण बदलाव का इशारा है. कहा जा रहा है कि बीजेपी ने एक समावेशी ‘राष्ट्रीय दल’ की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है. यही वजह है कि मुसलमानों के पिछड़ेपन पर चर्चा होने पर बीजेपी ने सकारात्मक प्रतिक्रिया देना शुरू कर दिया है.
ये बदलाव बहुत अर्थपूर्ण है, खासकर उत्तर प्रदेश के चुनाव-बाद के परिदृश्य में. हालांकि, पिछड़ेपन की मुस्लिम राजनीति की जटिलताओं को सुलझाने के लिए इस बयान को ‘राजनीतिक रूप से सही’ की व्याख्या से परे जाकर देखने की जरूरत है.
हालांकि मुसलमानों का ‘राष्ट्रवाद’ अब भी बड़ी चिंता की नजर से देखा जाता है. पार्टी नेता 2014 की जीत के बाद मुसलमानों के पिछड़ेपन और उपेक्षा से जुड़े सवालों को टालने के लिए ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा बुलंद करते हैं.
इस लिहाज से दो सवाल महत्वपूर्ण हैं:
(1) क्या सरकार सकारात्मक कदमों के लाभ को पिछड़े मुसलमानों को पहुंचाने के लिए गंभीर है?
और/या
(2) क्या यह बीजेपी की तरफ से एक नया मतदाता समूह बनाने की गंभीर कोशिश है, जिसे ‘पसमांदा मुसलमान’ कहा जाता है?
ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश चुनाव में बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं, पिछड़ों और गरीबों ने बीजेपी को वोट दिया था.
इस संशोधन विधेयक से एक नई संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय सामाजिक एवं शैक्षिक पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीएसईबीसी) का गठन किया जाएगा, जिसके पास सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की शिकायतें सुनने का अधिकार होगा. ये विधेयक इस समय राज्यसभा में है.
अगर एनसीएसईबीसी बन जाता है तो इसका सीधा असर मुसलमानों के पिछड़े वर्गों पर भी पड़ेगा. हालांकि, ऐसी संभावनाओं का आकलन विभिन्न पसमांदा मुस्लिम समूहों की तरफ से उठाई गई मांगों को सामने रखकर करना होगा. यहां 2014 के लोकसभा चुनाव में पसमांदा मुसलमानों का राजनीतिक एजेंडा प्रासंगिक है.
इस घोषणा में दो मांगें रखी गई थीं:
(1) अनुसूचित जाति श्रेणी में मुसलमान और इसाई दलित शामिल किए जाएं.
(2) केंद्रीय और राज्यों के स्तर पर अन्य पिछड़ा वर्ग श्रेणी में बदलाव करते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का कोटा बनाया जाए.
ध्यान से देखिये तो ये दोनों मांगें धर्मनिरपेक्षता वाली सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों से प्रेरित हैं.अनुसूचित जाति का दर्जा फिलहाल हिंदू, सिख और बौद्धों के लिए आरक्षित है.
वास्तव में ये पूर्व में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी (एसपी) की तरफ से उठाई गई ओबीसी श्रेणी के अंदर मुसलमानों के लिए विशेष कोटा की चर्चित मांग से कहीं आगे की बात है. इसी से यह दूसरा सवाल पैदा होता है:
क्या भाजपा पिछड़े मुसलमानों को आकर्षित कर पाएगी?
सीएसडीएस- लोकनीति के आंकड़े हमारे सामने कुछ रोचक नतीजे पेश करते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को देशभर में मुसलमानों के तकरीबन 9 फीसदी वोट मिले थे. ये एक महत्वपूर्ण बदलाव है, क्योंकि ये मुसलमानों के वोट में बीेजपी के पक्ष में 2009 लोकसभा चुनाव की तुलना में 3 फीसदी की बढ़त दिखाता है.
मुसलमानों में वर्ग विभेद इस आकलन को और जटिल बना देता है. गरीब मुसलमान बीेजेपी को विकल्प के रूप में नहीं देखते. हालांकि निम्न और मध्य वर्ग के मुसलमानों के लिए ऐसा नहीं है. वो इस पार्टी को बड़ी संख्या में समर्थन देते हैं. ये भी एक कारण होगा कि बीेजपी राष्ट्रीय स्तर पर मध्य वर्ग के मुसलमानों की दूसरी पसंद (एसपी के बराबर) बन कर उभरी है.
ये नतीजे बताते हैं कि पिछड़े मुसलमानों के उलट उनके मध्यवर्गीय-उच्च जातीय भाई राजनीतिक पसंद के रूप में तेजी से बीजेपी को अपना रहे हैं. ऐसा लगता है कि मोदी का बयान भाजपा के गरीब उन्मुखी दिखने के अभियान का हिस्सा है, खासकर उस राज्य में जहां सामाजिक न्याय का एजेंडा कामयाब होने की उम्मीद है.
इस राजनीतिक ओबीसी ढांचे में मुस्लिम पिछड़ेपन को कितनी जगह मिलती है, यह देखना रोचक होगा.
(लेखक सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं, और 2015-16 में राज्यसभा फेलो रहे हैं.इनसे @Ahmed1Hilal. पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक वैचारिक आलेख है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने विचार हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 21 Apr 2017,08:30 PM IST