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भारतीय राजनीति के एक दिग्गज पितामह को उनके 'अपने' (इस मामले में भतीजे ने) ने मात दे दी, इस घटना से मुझे क्रिस्टोफर हिचेन्स के शब्द याद गए जिन्होंने कहा था, “ये हम सभी के साथ होगा कि किसी एक मोड़ पर आपके कंधों को थपथपाया जाएगा और कहा जाएगा कि न सिर्फ पार्टी खत्म हो गई है, बल्कि उससे भी खराब बात कही जाएगी, पार्टी चल रही है, लेकिन तुम्हें जाना होगा.”
लेकिन, कई राजनीतिक संघर्षों के अथक पितामह बिना किसी लड़ाई के हार मानने वालों में से नहीं थे. लेकिन इस बार जैसे ही 'शक्ति प्रदर्शन' का विडम्बनापूर्ण नाटक शुरू हुआ, वह पितामह अपने पूर्व समर्थकों के सामने अनुनय-विनय कर रहे थे और यह "82 वर्षीय योद्धा अकेले लड़ाई लड़ रहा है." यह दिग्गज मराठा इस बार सामान्यत: उग्र रहने वाले अपने रूप में नहीं था, इसके बजाय भावनात्मक और नाटकीय उम्रवाद का सहारा ले रहा था.
राजनीति एक क्रूर और स्वार्थी पेशा (निश्चित रूप से 'समुदाय के लिए सेवा' नहीं है जैसा कि आसानी से कहा जाता है) है, यह बात तब और भी स्पष्ट हो गई कि जब एक समय के उनके भरोसेमंद प्रतिनिधि और अपने खून ने क्रिस्टोफर हिचेन्स की मेटफॉरिकल 'पार्टी' के साथ जवाब देते हुए कहा, "आपकी उम्र 83 वर्ष है, क्या आप कभी रुकेंगे या नहीं?". वे कहते हैं कि महत्वाकांक्षा (और बढ़ती मजबूरी) राजनेताओं को अजीब रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर सकती है. इस मामले में राजवंश का सदस्य ही राजवंश सुप्रीमो पर टूट पड़ा.
प्रमुख विपक्षी दल के पास कथित 'युवा ब्रिगेड' और 'पुराने रक्षक' की खुद की परस्पर विरोधी लॉबी हैं, लेकिन पार्टी अध्यक्ष के रूप में 80 वर्षीय व्यक्ति और 53 वर्षीय 'नेता' के साथ अगर हिमाचल और कर्नाटक को देखा जाए तो विभिन्न पीढ़ियों की तुलना में यह कॉम्बीनेशन (संयोजन) निश्चित रूप से अधिक प्रबल यानी कुछ करने के लिए किसी को बाध्य या विवश करने वाला है.
अक्सर विरोधाभासी रूप से, देश भर के सभी राजनीतिक दलों के 'युवा' नेतृत्व ने कुछ सबसे प्रतिगामी (रेग्रेसिव), संशोधनवादी (रीविजनिस्ट) और रटे-रटाए विचार दिए हैं, जबकि 'खुलापन' (चाहे अर्थव्यवस्था के संदर्भ में हो या सामाजिक दलदल के संदर्भ में) पूरे राजनीतिक परिदृश्य में राजनीति के तथाकथित दिग्गजों से आया है.
2016 में संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रेसिडेंशियल प्राइमरी और कॉकस की दौड़ में, वर्मोंट के तत्कालीन 74 वर्षीय 'युवा' सीनेटर बर्नी सैंडर्स ही थे, जिन्होंने अमेरिकी युवा मतदाताओं (30 वर्ष से कम उम्र के वोटर्स) के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया था. हारे हुए मामले (जहां डोनाल्ड ट्रम्प ने अंततः हिलेरी क्लिंटन को हराया) में भी बर्नी को ट्रम्प और क्लिंटन दोनों की तुलना में अधिक "युवा" वोट प्राप्त हुए थे.
2016 की दौड़ में जिस व्यक्ति को कथित तौर पर अंडरडॉग (कम क्षमता वाला व्यक्ति) मान लिया गया था, वह 2020 के राष्ट्रपति पद की दौड़ में '80' की उम्र (अंतिम विजेता, जो बइडेन से भी ज्यादा से उम्र) में एक हेवीवेट उम्मीदवार बन गया था. 'युवा' और 'प्रगतिशील' लॉबी ने अभी भी दृढ़ता से उस चिरपरिचित आइकन का समर्थन किया है, जिसने सिंगल-पेयर हेल्थकेयर, ट्यूशन-फ्री एजुकेशन, ग्रीनहाउस उत्सर्जन, गर्भपात अधिकार, समावेशिता जैसे आदि मुद्दों पर बात की थी. वह पहले भी और अब 83 वर्ष के होने के बाद भी मिलेनियल्स और जेनरेशन-जेड के लिए पोस्टर बॉय हैं.
वे इस बात के उदाहरण हो सकते हैं कि उम्र महज एक संख्या है, हालांकि, उनके सह-डेमोक्रेट (को-डेमोक्रेट) जो बाइडेन का मामला यह दर्शाता है कि संख्या भी निर्विवाद परिणामों वाली या नकारी न जा सकने वाली एक भौतिक वास्तविकता है. बाइडेन के रीइलेक्शन कैंपेन में 'उम्र' स्पष्ट रूप से एक बाधा है, क्योंकि उनके द्वारा की गई हर चूक, ठोकर, और गलती से लेकर गलतबयानी तक के लिए उम्र से संबंधित मुद्दों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है. लेकिन मीम्स और सोशल-मीडिया फॉरवर्ड की दुनिया से परे, बाइडेन बड़े पैमाने पर यात्रा कर रहे हैं, ओवल ऑफिस में देर तक काम करने, कई द्विदलीय बिलों को आगे बढ़ाने, सबसे अधिक संख्या में नौकरियां पैदा करने, कोविड-19 के बाद की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के साथ-साथ वे अन्य कई मामलों में कामयाब रहे हैं.
भारतीय राजनीति और 'उम्र' और 'युवा' के साथ इसकी जिद या जुनून पर वापस आते हैं, विडंबना यह है कि विभिन्न लोकसभा के सदस्यों की औसत आयु में केवल वृद्धि हुई है. अगर पहली लोकसभा की औसत आयु की बात करें तो तब आंकड़ा 46.5 वर्ष का था, लेकिन वर्तमान में 17वीं लोकसभा के लिए यह आंकड़ा 54 वर्ष है.
उम्र और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जो तथ्य हैं, वे राजनेताओं द्वारा पेश की गई वास्तविकता से बहुत अलग हैं- केवल आपराधिक मामलों वाले सांसदों की हिस्सेदारी 29 प्रतिशत से बढ़कर 43 प्रतिशत हो गई है! इसलिए, नेताओं द्वारा प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ अक्सर 'उम्र' या 'भ्रष्टाचार' को लेकर जो लंबी-चौड़ी बातें की जाती हैं, उस पर उनका दृढ़ विश्वास नहीं होता है बल्कि यह उनकी अपनी सहूलियत का मामला होता है.
कुछ हफ्ते पहले पत्रकारों से बातचीत के दौरान जब एक पत्रकार ने शरद पवार से स्पष्ट रूप से पूछा कि "...आप इस उम्र में भी विपक्षी दलों के गठबंधन को एक साथ लाने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हैं..." तब शरद पवार ने तेजी से और मजाक में पत्रकार को सवाल पूरा करने से रोक दिया, उन्होंने टोकते हुए कहा "सबसे पहले, मैं आपसे सख्ती से कहता हूं कि आप अपने शब्द 'इस उम्र में भी' वापस ले लें," और पत्रकार ने हल्के-फुल्के मजाक को पहचानते हुए अपनी 'आपत्तिजनक टिप्पणी' वापस लेने पर सहमति जताई.
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि उस समय, लगभग कुछ हफ्ते पहले, वे सभी जिन्होंने एनसीपी के भीतर तख्तापलट (बगावत) किया, वे अभी भी अपने नेता का गुणगान कर रहे थे और उनके प्रति अटूट वफादारी की कसम खा रहे थे. लेकिन जल्द ही बागी विधायकों के सामने 'उम्र' का मुद्दा आ गया या एक ऐसा मुद्दा था कुछ जो उन्होंने पहले कभी नहीं उठाया था. और दंडाभाव और आत्मविश्वास के साथ पलटवार हुआ.
यह किसी की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को नकारने या आगामी संघर्ष में एक पक्ष को प्राथमिकता देने का सुझाव देने के लिए नहीं है, बल्कि केवल इस बात पर जोर देने के लिए है कि 'उम्र' के हौवा की सिर्फ एक हौवा होने की संभावना अधिक है. शरद पवार से उनके पिछले रिकॉर्ड, राजनीति या यहां तक कि भविष्य के दृष्टिकोण के बारे में सवाल करने और बहस करने के लिए पर्याप्त मुद्दे हैं, लेकिन 'उम्र' सिर्फ भटकाने का एक वेवजह मुद्दा है, जिसका इस्तेमाल महत्वाकांक्षी राजनेताओं द्वारा अपने पक्ष में भ्रष्टाचार के दाग को मिटाने के लिए आसानी से किया जाता है.
आधी रात के तख्तापलट को वैध बनाने के लिए 'हमें अपना आशीर्वाद दें' और इसके साथ वानप्रस्थ या संन्यास का सुझाव देना सिर्फ और सिर्फ राजनीति न कि गुरु-शिष्य परंपरा है, जैसा कि इसे दिखाया जा रहा है.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुद्दूचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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