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मिमी सारा से मिले न मिले,आप मिलिए, वो बताएगी मदरहुड हर औरत को लिए जरूरी नहीं

मदरहुड के महिमामंडन की दिक्कत ये है कि इसी के चलते औरतों को मां और एक व्यक्ति की भूमिका के बीच चुनना पड़ता है

माशा
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>मदरहुड के महिमामंडन में दिक्कत है</p></div>
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मदरहुड के महिमामंडन में दिक्कत है

(फोटो:अलटर्ड बाइ क्विंट)

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दिलचस्प है कि पिछले दिनों दो ओटीटी पर दो अलग-अलग किस्म की फिल्में देखने को मिलीं. विषय एक सा था, पर कहानी का ट्रीटमेंट अलग-अलग. मलयालम की फिल्म ‘साराज़’ और हिंदी की फिल्म ‘मिमी’. दोनों कहानियां महत्वाकांक्षी लड़कियों की हैं. एक की महत्वाकांक्षा पूरी होती है, एक की अधूरी. क्योंकि दोनों की च्वाइस अलग-अलग है. मदरहुड को अपनाने या न अपनाने की. सारा बच्चा नहीं लेती, लेकिन फिल्म में उसकी आलोचना नहीं होती. मिमी बच्चे को अपनाती है और फिल्म मदरहुड को ग्लोरिफाई करती है. मां होना कितने सम्मान की बात है!!! क्योंकि मां होना अपने आप में कमाल है!!

मां धरती, देश का रूप है, तभी उसको काबू में करने की होड़ है

यूं हम मदरहुड को हमेशा से ग्लोरिफाई करते रहे हैं. हमारे देश में मदरहुड की अवधारणा ने कई चरण पार किए हैं. देवत्व से लेकर राष्ट्रवाद तक. पौराणिक कथाओं में वह शक्ति की छवि है, जो सर्वशक्तिमान के स्त्री रूप और ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है. फिर धरती को भी हम मां कहते हैं. उड़ीसा का राजा पर्व धरती के उसी रूप को पूजता है. माना जाता है कि धरती एक रजस्वला, यानी मैन्स्ट्रुएटिंग महिला की तरह है. चार दिन चलने वाले इस त्योहार के आखिरी दिन- बासुमती गडुआ- भऊ देवी, धरती मां और भगवान जगन्नाथ की पत्नी का परंपरागत स्नान होता है. उनका गर्भ अगले जन्म के लिए तैयार होता है.

एक नजरिया देश को मां और स्त्री के तौर से देखने का है. इतिहासकार सुगाता बोस ने अपनी किताब द नेशन एज मदर एंड द अदर विजंस ऑफ नेशनहुड में स्वदेशी नेता बिपिन चंद्र पाल का हवाला दिया है. पाल ने कहा था, “हमारा इतिहास मां की पवित्र आत्मकथा जैसा है… हमारी कलाएं, स्थापत्य, आर्किटेक्चर सब मां की विविध भावनाओं का प्रदर्शन हैं… यूरोपीय या अमेरिकी लोग इस भावनाओं को नहीं समझ सकते.”

यानी प्राचीन से लेकर आधुनिक भारत तक में मदरहुड के अनुभव और रिप्रेजेंटेशन अलग-अलग तो हैं लेकिन पूरी तरह से मैन्यूफैक्चर्ड भी. औरत की जिंदगी में मदरहुड कितना अहम है, इस विचार को गढ़ा गया है. अगर हम समाज की अलग-अलग संरचनाओं का विश्लेषण करें, जैसे भाषा, धर्म, मीडिया, कानून- तो यही साबित होता है. सभी यह कोशिश करते हैं कि किसी तरह औरत की रीप्रोडक्टिव पावर को काबू में किया जाए.

मदरहुड को ग्लोरिफाई करने की दिक्कत

कोई पूछ सकता है कि मदरहुड की इस अवधारणा या उसके ग्लोरिफिकेशन से आपको समस्या क्या है? आखिर औरत की शारीरिक खासियत, उसकी अपनी है. लेकिन भारत जैसे देश में इस अवधारणा में कई दिक्कतें हैं. क्योंकि इस अवधारणा को देश के सामाजिक ढांचे से अलग करके नहीं देखा जा सकता. जब हम औरत के मातृत्व रूप को पूजना शुरू करते हैं तो अक्सर उसे रीप्रोडक्टिव, बायोलॉजिकल फंक्शन तक सीमित कर देते हैं. इसीलिए जिन औरतों के बच्चे नहीं होते, उन्हें मानसिक और मनोवैज्ञानिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है.

इसी ग्लोरिफिकेशन के कारण औरतों को घर और काम के बीच किसी एक को चुनना पड़ता है. मां और व्यक्ति की भूमिका के बीच च्वाइस करनी पड़ती है. महत्वाकांक्षा को दबाने वाली औरत भली औरत मानी जाती है. जब तक वह अपने मां रूप, पत्नी रूप, बहू रूप को जीती रहती है, तब तक उसकी तारीफें की जाती हैं. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर उस मां की खूब वाहवाही हुई थी जो ऑक्सीजन मास्क लगाकर रसोई बना रही थी. लेकिन जैसे ही वह अपने बारे में सोचना शुरू करती है, उसे तिरस्कृत और अपमानित किया जाता है.

पर सिर्फ भारत ही में नहीं, अमेरिका जैसे विकसित देश में भी. नब्बे के दशक में अमेरिका की मशहूर रेडियो पर्सनैलिटी रश लिंबॉग ने ‘एक विशेष प्रकार की फेमिनिस्ट्स’ को ‘फेमिनाजी’ ही कह दिया था. लिंबॉग ने कहा था कि वे भी नाजियों की तरह नरसंहार में विश्वास करती हैं. यह नरसंहार है, गर्भपात. फेमिनाजी मतलब, ऐसी नारीवादी औरतें जिनकी जिंदगी का मकसद यह होता है कि ज्यादा से ज्यादा गर्भपात कराए जाएं. इस पर लिंबॉग ने 1992 में एक किताब ही लिख डाली थी- द वे थिंग्स ऑट यू बी. यानी, जब तक औरतें मदरहुड को न अपनाएं, तब तक उनकी इज्जत नहीं की जानी चाहिए. मातृत्व की गौरव गाथा की दिक्कत यही है कि उसके दूसरे सिरे पर तौहीन और इल्जाम हैं. हर उस औरत के लिए जो अपनी देह पर अपना हक समझती है.

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यूं मदरहुड के अपने दबाव हैं

फिल्म ‘साराज़’ इस मामले में बहुत अलग है कि इसमें वह तिरस्कार नहीं है. सारा स्कूली दिनों से ही बच्चों को पसंद नहीं करती. मदरली इंस्टिंक्ट उसमें नहीं. फिल्म के एक सीन में सारा का ब्वॉयफ्रेंड लंच के समय एग पफ को सिर्फ इसलिए फेंक देता है क्योंकि उसमें अंडा नहीं है. तब सारा सोचती है, इस लड़के को पूरा पफ नहीं चाहिए. सिर्फ उसके अंदर का अंडा चाहिए. लेकिन सारा की इस सोच को फिल्म क्रिटिसाइज नहीं करती. मदरहुड का दबाव सारा नहीं लेना चाहती क्योंकि इससे अपने सपने खो जाएंगे.

दूर अमेरिका में भी एक राइटर ने इसी भाव को कविताओं की एक किताब में दर्ज किया है. इस राइटर का नाम है केट बेयर और किताब का नाम है व्हॉट काइंड ऑफ विमेन. इस किताब को उन्होंने कैफे में बैठकर लिखा है क्योंकि घर पर काम करना उनके लिए बहुत मुश्किल हो गया था. एक छोटे से घर में चार बच्चे और सारी जिम्मेदारियों के बीच लिखना आसान नहीं था. किताब छपकर आई तो न्यूयॉर्क की बेस्टसेलर बन गई. इसमें आज के दौर में मदरहुड, त्याग की भावाना और उसका दबाव, औरत की परंपरागत भूमिकाएं- सब कुछ है. कई कविताओं में गुस्सा है, कई में इस बात की कुंठा कि क्यों परिवार की सेवा करते हुए उसे दोयम दर्जे की जिंदगी जीने के मजबूर होना पड़ रहा है. क्योंकि समाज, कानून, सभी जगहों पर औरतें मुफ्त की मजदूर मान ली जाती हैं- फ्री लेबर.

जैसे कोविड-19 ने बार-बार औरतों को इस बात की याद दिलाई है. पिछले साल यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के एक ऑनलाइन सर्वे में यही बात सामने आई थी कि दोहरे आय वाले परिवारों में वर्किंग मदर्स को मेल पार्टर्नस के मुकाबले सिर्फ एक तिहाई समय बिना रुकावट के काम करने का मौका मिल रहा है.

यानी अगर आदमी लगातार तीन घंटे बिना रुकावट के काम करे हैं तो औरतें उनके मुकाबले सिर्फ एक घंटा. यह सब कुछ इसीलिए हो रहा है क्योंकि श्रम का यौनिक विभाजन जेंडर यानी संस्कृति से जुड़ा हुआ है, सेक्स यानी जीव विज्ञान से नहीं. मदरहुड की अवधारणा के पीछे सिर्फ जीव विज्ञान की कोई ‘स्वाभाविक’ भिन्नता नहीं है. उसके बजाय वैचारिक पूर्व धारणाएं भी जिम्मेदार हैं. इसीलिए बच्चा पैदा होने के बाद उसके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी औरत पर ही आती है. यह काम सिर्फ औरत का काम मान लिया जाता है. ग्लोरिफिकेश के भी यही नतीजे होते हैं कि हम मेटरनिटी लीव को तो कानूनन छह महीने करा देते हैं लेकिन पेटरनिटी लीव को बढ़ाने या उस पर चर्चा करने के बारे नहीं सोचते.

राजनीति का हथियार भी बन जाता है मदरहुड

मिमी जैसी फिल्म बॉलिवुड में मदरहुड और वुमनहुड को गड्डमड्ड करती हैं. लेकिन ये दोनों एक दूसरे के पर्याय नहीं. अलग-अलग एंटिटी हैं. फिल्मों में मां का महिमांडन गलत है. क्योंकि एक- औरतों को अपने सपनों का बलिदान नहीं करना चाहिए. दो- मां कोई सुपरवुमन नहीं होती, और तीन- मां होना औरत की अकेली पहचान नहीं है. अगर आप स्कॉलर मैत्रेयी कृष्णराज की मशहूर किताब- मदरहुड इन इंडिया- ग्लोरिफिकेशन विदआउट इंपावरमेंट पढ़ेंगे तो समझ पाएंगे कि महिमामंडन की राजनीति पूरे समाज के लिए कितनी खतरनाक है. क्योंकि इसी की मदद से राष्ट्रीय सेविका समिति अपने शिविरों में लड़कियों को शक्तिशाली बनने का प्रशिक्षण देती है. वह मदरहुड को ऐसी ताकत बताती है जोकि संत को भी जन्म दे सकती है, और विध्वसंक को भी. 2017 के शिविर में जीजाबाई के जरिए लड़कियों को शिवाजी जैसे बेटे पैदा करने को कहा गया था ताकि हिंदू साम्राज्य की स्थापना हो.

मदरहुड की परिभाषा यूं व्यापक है. निखिल स्वामीनाथन ने 2007 में साइंटिफिक अमेरिकन में लिखा था, स्ट्रेंज बट ट्रू-मेल्स कैन लैक्टेट. यानी यह अवधारणा दुग्धदायी पुरुषों की है. क्योंकि दूध पैदा करने वाले हार्मोन प्रोलैक्टिन और ऑक्सीटोसिन का सीक्रेशन ओवरी में नहीं, पिट्यूटरी ग्रैंड में होता है. इसका एक पहलू अमातृ महिलाएं भी हैं. यानी जो बच्चों को जन्म नहीं दे सकतीं, या देना नहीं चाहतीं. इसीलिए फर्टिलिटी और मदरहुड को शरीर पर चस्पां किए गए जेंडर से हटाकर मानवीय नजरिए से देखने की जरूरत है. मदरहुड न तो किसी की बपौती है, और न ही जिम्मेदारी.

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Published: 01 Aug 2021,02:30 PM IST

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