मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019हिंदी गानों में हमेशा से दिखते रहे हैं ''2 भारत'', अब क्यों हो रहा बवाल?

हिंदी गानों में हमेशा से दिखते रहे हैं ''2 भारत'', अब क्यों हो रहा बवाल?

हिंदी फिल्मों ने हमेशा दिखाया कि इस देश में बसते हैं 2 भारत.

प्रज्ञान मोहंती
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>हिंदी गानों ने हमेशा दिखाए 2 भारत</p></div>
i

हिंदी गानों ने हमेशा दिखाए 2 भारत

फोटो- द क्विंट

advertisement

हाल ही में, वॉशिंगटन डीसी के जॉन एफ केनेडी सेंटर फॉर द परफॉर्मिंग आर्ट में कॉमेडियन वीर दास (Veer Das) के मोनोलॉग ‘आई कम फ्रॉम टू इंडियाज’ का एक वीडियो क्लिप वायरल हुआ जिसमें भारतीय राजनीति और समाज के विरोधाभासों और पाखंडों के बारे में कहा गया था. देश की छवि खराब करने की बात कहते हुए कई लोगों ने इसका विरोध किया. कला में इन दो विरोधी भारत का विचार हमेशा से ही मौजूद रहा है और भारत के सबसे ज्यादा लोकप्रिय माध्यमों में एक- हिंदी फिल्मों के गाने- इसका एक बड़ा सबूत हैं. इससे ये सवाल उठता है कि क्या इतना हंगामा जरूरी है.

हिंदी फिल्म संगीत ने लंबे समय से भारतीयों में देशभक्ति और राष्ट्रीय गौरव की भावना को आकार दिया है. स्कूलों, सामाजिक कार्यक्रमों में बच्चों की परफॉर्मेंस हो या सरकारी दफ्तरों में कार्यक्रम- कोई शायद ही बॉलीवुड के देशभक्ति भरे गानों के बिना कोई महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दिवस मनाने के बारे में सोच सकता है. इन गानों में ‘सोने की चिड़िया, दुल्हन की बिंदिया’ जैसे कई और शब्दों के जरिए भारत की महानता का गुणगान किया गया है और हमेशा एक गौरवशाली इतिहास और विरासत, एक जीवंत वर्तमान और आशाजनक भविष्य वाले राष्ट्र की छवि बनाई गई है. इनमें से कोई भी कुछ भी असत्य नहीं है लेकिन इस विविधता से भरे, विकासशील देश का यही इकलौता सच नहीं है.

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव उस दौर के बॉम्बे सिनेमा और साथ ही इसके गानों में दिखाई दे रहा था. शैली से अलग, कई फिल्मों में राष्ट्रवादी मूड के गाने जैसे ‘चल चल रे नौजवान’ (बंधन 1940), और ‘ये देश हमारा’ (हमजोली 1946) शामिल थे. भारत छोड़ो आंदोलन के कुछ महीनों बाद अशोक कुमार और मुमताज शांति स्टारर मेगा हिट किस्मत (1943) का प्रभावशाली गाना ‘दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है’ स्वतंत्रता सेनानियों के लिए एक नारे की तरह बन गया था.

गाने के जोशीले बोल हैं “जहां हमारा ताज महल है और कुतुब मीनार है/ जहां हमारे मंदिर मस्जिद, सिखों का गुरुद्वारा है,/ इस धरती पर कदम बढ़ाना अत्याचार तुम्हारा है/ दूर हटो, दूर हटो.”

इसने कवि प्रदीप की छवि एक देशभक्त कवि के तौर पर स्थापित कर दी जिन्होंने बाद में ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ और ‘हम लाए हैं तूफान से’ जैसे क्लासिक गीत लिखे. स्वतंत्रता के बाद इस श्रेणी के गानों के बोल और स्वर देश निर्माण, आत्मनिर्भरता, विकास और बहुलवाद में बदल गए. जहां ‘छोड़ों कल की बातें’ (हम हिंदुस्तानी,1960) में महानता की अभिलाषा थी वहीं ‘तू हिंदू बनेगा ना मुसलमान बनेगा’ (धूल का फूल,1959) में विभाजन की भयावहता के बाद मानवता और सद्भाव की अपील की गई और ‘इंसाफ की डगर पर’ (गंगा जमुना, 1961) गाने ने समानता और इंसाफ की वकालत की.

इस विरासत को अभिनेता-निर्माता मनोज कुमार के दोषरहित देशभक्ति के ब्रांड ने आगे बढ़ाया. उनकी फिल्मों के गानों में कभी ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने दुनिया को तब गिनती आई, तारों की भाषा भारत ने दुनिया को पहले सिखलाई ’ (पूरब और पश्चिम, 1970) के जरिए भारत पर गर्व किया या विरोधियों को चेतावनी देने के लिए ‘मेरा चना है अपनी मर्जी का, ये दुश्मनी है खुदगर्जी का/ सर कफन बांध के निकला है, दीवाना है ये पगला है/ अपनों से नाता जोड़ेगा, गैरों के सर को फोड़ेगा’ (क्रांति, 1981) गीत लिखे गए.

मनोज कुमार 50 के दशक के अंतिम वर्षों से ही बॉलीवुड में रहे और कई रोमांटिक हिट्स भी दिए लेकिन 1965 में शहीद फिल्म में युवा क्रांतिकारी भगत सिंह का किरदार निभाना उनके लिए टर्निंग प्वाइंट रहा. मनोज कुमार के संयमित प्रदर्शन, साथ में फिल्म के हिट गानों –‘सरफरोशी की तमन्ना’, ‘ऐ वतन हमको तेरी कसम’, ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ ने भगत सिंह को महान नेता के रूप में अमर कर दिया और मनोज कुमार को फिल्मों में देशभक्ति के स्थायी प्रतीक के तौर पर स्थापित कर दिया.

उपकार (1967) राष्ट्रवादी फिल्मों की उस सीरीज की पहली फिल्म बनी जिसका मनोज कुमार ने निर्देशन किया और भारत का किरदार -भारत का अवतार जो सभी बाधाओं के खिलाफ अपनी आशाओं और मूल्यों को बरकरार रखने के लिए संघर्ष करता है-और अंत में जीतता है, निभाया. फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण गुलशन बावरा का लिखा और महेंद्र कुमार की आवाज में गाया गया जोशीला गाना ‘मेरे देश की धरती’ ने भारत और भारतीय मूल्यों के बारे में गर्व, प्रशंसा से भरे देशभक्ति गीत का खाका तैयार किया.

पूरब और पश्चिम, पूर्व के आध्यात्मवाद और पश्चिम के भौतिकवाद के बीच संघर्ष की कहानी, एक बहुत ही रूढ़िवादी फिल्म थी जिसने पश्चिमी जीवन शैली को अनैतिकता और पूर्वाग्रह के व्यापक नजरिए से चित्रित किया.

इसके विपरीत देश के तौर पर भारत गाता है ‘है प्रीत जहां की रीत’ एक ऐसी जगह जहां ‘काले गोरे का भेद नहीं’ और ‘इतना आदर इंसान तो क्या पत्थर भी पूजे जाते हैं’ किसी भी जाति, लिंग आधारित भेदभाव और देश में धार्मिक असहिष्णुता को नकारते हैं.

भारत कुमार के पैमाने से भी सबसे ज्यादा पाखंड से भरा गाना शायद यादगार (1970) फिल्म का काफी मनोरंजक ‘इक तारा बोले’ है. इसमें कुमार स्वदेशी की वकालत करते हैं, कम कपड़े पहनने के लिए महिलाओं को, हिप्पियों जैसे कपड़े पहनने के लिए पुरुषों को, भगवान और राष्ट्रीय गीत का उचित सम्मान न करने के लिए लोगों को शर्मिंदा करते हैं, भ्रष्टाचार और भीड़ के इंसाफ की निंदा की गई है, नेहरु और शास्त्री की तारीफ की गई है, विश्व शांति का आह्वान किया गया है और जनसंख्या नियंत्रण पर उपदेश-सभी एक ही बार में किया गया है.

ज्यादातर हिंदी फिल्म के गानों में भारत को बहुत महत्व दिया गया है लेकिन प्रतिरोध के गाने और सत्ता के सामने सच बोलना भी हमेशा से इसके इतिहास का हिस्सा रहे हैं. साहिर लुधियानवी, शैलेंद्र और गुलजार जैसे प्रगतिशील गीतकारों ने सिस्टम की आलोचना वाले गीत लिखे, उन्हें समाजवादी विचार दिया और आत्म विश्लेषण की जरूरत का आह्वान किया. इन गानों की खूबी ये भी है कि ये अलग-अलग लोगों के एक समूह का प्रतिनिधत्व करते हैं और भारतीय समाज के बारे में अप्रिय सच्चाई का सामना कराने से भी पीछे नहीं हटते.
ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

बूट पॉलिश (1953) के गाने ‘ठहर जरा ओ जाने वाले’ में शैलेंद्र सामाजिक असमानता पर जोर देते हैं और सवाल करते हैं कि ‘पंडितजी मंतर पढ़ते हैं, गंगा जी नहलाते हैं/ हम पेट का मंतर पढ़ते हैं, जूते का मुंह चमकाते हैं/ पंडितजी को पांच चवन्नी है, हमको तो एक इकन्नी है/ फिर भेद भाव ये कैसा है?’

दिलीप कुमार के समाजवादी ड्रामा पैगाम (1959) में कवि प्रदीप ने अपने जोशीली देशभक्ति कविताओं की स्टाइल को तोड़ते हुए मजूदरों वर्ग के अधिकारों का मुद्दा उठाया. मन्ना डे अपनी आश्वस्त आवाज में गाते हैं- ‘नई जगत में हुआ पुराना, ऊंच नीच का किस्सा/ सबको मिले मेहनत के मुताबिक अपना-अपना हिस्सा/ सबके लिए सुख का बराबर हो बंटवारा, यही पैगाम हमारा’.

दो भारत की धारणा फिल्म दीदी (1959) में साहिर की ‘हमने सुना था एक है भारत’ में सामने आती है. छात्र किताबों में पढ़ाए जाने वाले भारत के विचार बनाम जो वो अपने आस-पास देख रहे हैं उसके बारे अपने शिक्ष से सवाल करते हैं. छात्र पूछते हैं ‘हमने नक्शे और ही पाए, बदले हुए सब तौर ही पाए/ एक से एक बात जुदा है, धर्म जुदा है, जात जुदा है/ आपने जो कुछ हमको पढ़ाया, वो तो कहीं भी नजर न आया.’

इसके जवाब में शिक्षक कहते हैं ‘भाषा से भाषा न मिले तो इसका मतलब फूट नही... बुरा नहीं गर यूं ही वतन में धर्म जुदा और जात जुदा.’ ये एक महत्वपूर्ण गाना है जो सवाल पूछने, अलग राय रखने और फिर भी चर्चा करने के विचार को प्रोत्साहित करता है और उन्हें उपदेश देने के बजाए आकर्षक बनाता है.

इसी तरह, गुलजार की मेरे अपने (1973) में निराश, बेरोजगार युवाओं के लिए, पढ़ाई, डिग्री के बाद भी नौकरी न मिलने का गुस्सा और मौकों की कमी को ‘हाल चाल ठीक-ठाक है’ गाने के जरिए दिखाया गया है. ‘बीए किया है एमए किया है, लगता है वो भी ऐंवे किया है’ लाइन के जरिए वो स्वतंत्रता के बाद के आशावाद, जो काफी पहले ही खत्म हो गया है, नौकरियों की कमी, कीमतों और अपराध के बढ़ने का मजाक उड़ाते हैं और उस ओर ध्यान आकर्षित करते हैं. फिर भी सिस्टम चाहता है कि आप विश्वास करें ‘आबो हवा देश की बहुत साफ है/ कायदा है, कानून है इंसाफ है.’

साहिर की राजनीतिक रचनाओं में, नया रास्ता (1970) के ‘अपने अंदर जरा झांक मेरे वतन’ में देश से बहुत ही महत्वपूर्ण भावपूर्ण अपील है लेकिन इसकी काफी ज्यादा अनदेखी हुई है. फिल्म में जाति खत्म करने का अभियान है और ओपनिंग क्रेडिट के साथ ये बहुत ही कम लोकप्रिय गाना चलता है. गाने के बोल चुभने वाले हैं और किसी तरह का विकल्प नहीं देते. ‘तेरा इतिहास है खून में लिथड़ा हुआ, तू अभी तक है दुनिया में पिछड़ा हुआ/ तूने अपनों को अपना न माना कभी तूने इंसान को इंसान न जाना कभी/ तेरे धर्मों ने जातों की तक्सीम की, तेरी रस्मों ने नफरत की तालीम दी.’ ये कोई भी देख सकता है कि ये शब्द आज भी कितने प्रासंगिक हैं.

बेशक, भारत के विरोधाभासों पर कवि की सबसे ज्यादा चुभने वाली और शक्तिसाली टिप्पणी गुरु दत्त की सबसे अच्छी फिल्म प्यासा (1957) का प्रभावशाली गाना ‘जिन्हें नाज है हिंद पर’ है. ये गाना ऐसे समय पर आता है जब फिल्म का हीरो विजय, एक आदर्शवादी कवि, जिंदगी से निराश, एक वेश्यालय में शराब के नशे में बैठकर मुजरा देख रहा है. दुनिया के अनुचित और पाखंडी तरीके जहां एक वेश्या अपने कामुक ग्राहकों के लिए मुजरा करने को मजबूर है जबकि दूसरे कमरे में उसका बीमार बच्चा रो रहा है, विजय शर्म और डर से पीछे हट जाता है.

लड़खड़ाते हुए किसी तरह बाहर निकलते, ये सोचते हुए कि किस तरह शोषक दुनिया कमजोरों का शिकार करती है और दुखी होकर गाता है ‘जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ, ये कूचे, ये गलियां, ये मंजर दिखाओ/ जिन्हे नाज है हिंद पर उनको लाओ, जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?’ दिल दहला देने वाली मार्मिकता के साथ गाया गया ये गाना तब से एक विचारों को दिखाने वाला एक आईना बन गया है जिस पर समाज गौर करना नहीं चाहता.

लड़खड़ाते हुए किसी तरह बाहर निकलते, ये सोचते हुए कि किस तरह शोषक दुनिया कमजोरों का शिकार करती है और दुखी होकर गाता है ‘जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ, ये कूचे, ये गलियां, ये मंजर दिखाओ/ जिन्हे नाज है हिंद पर उनको लाओ, जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?’ दिल दहला देने वाली मार्मिकता के साथ गाया गया ये गाना तब से एक विचारों को दिखाने वाला एक आईना बन गया है जिस पर समाज गौर करना नहीं चाहता.

इन विरोधाभासों के बीच भारतीय शैली में उदारता और छल दोनों बातें हैं. ‘अपनी छतरी तुमको दे दें कभी जो बरसे पानी/ कभी नए पैकेट में बेचें तुमको चीज पुरानी’-जावेद अख्तर ने फिर भी दिल है हिंदुस्तानी (2000) के टाइटल ट्रैक में अपने देशवासियों के दोहरेपन को मजाकिया अंदाज में बताया है.

ऐसे लोगों से भरे देश में, जिन्हें नाराज होने के लिए बहुत कम चीजों की जरूरत है, ये आश्चर्य की बात है कि एक साधारण गाना जिसमें कुछ निंदात्मक लेकिन सटीक टिप्पणी है उसे दरअसल स्वीकृति और लंबी शेल्फ लाइफ दोनों मिली हुई है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

Read More
ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT