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ब्रिटनी से शहीद की विधवा तक-औरत को जागीर समझने वाली सोच की 'जंजीर'

पंजाब सरकार के नियम के कारण वीरता पुरस्कार प्राप्त शहीद की विधवा को नहीं मिल पा रहा भत्ता

आरिश छाबड़ा
नजरिया
Updated:
<div class="paragraphs"><p>शहीद की विधवा को भत्ता पर पंजाब सरकार का नियम परेशान करने वाला है</p></div>
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शहीद की विधवा को भत्ता पर पंजाब सरकार का नियम परेशान करने वाला है

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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लव जिहाद की फर्जी थ्योरी

ब्रिटनी स्पीयर्स का दु:ख

1986 में हेमा मालिनी और ऋषि कपूर स्टारर फिल्म “एक चादर मैली सी”

पंजाब सरकार का एक नियम जिससे यह तय होता है कि गैलेंट्री अवॉर्ड यानी वीरता पुरस्कार जीतने वाले सैनिकों की विधवाओं को मासिक भत्ता मिले कि नहीं.

आपको ये चारों मामले एक-दूसरे से अलग लगेंगे लेकिन यदि इनके मूल में जाएंगे तो यही पाएंगे कि महिलाएं पुरुषों की जागीर हैं.

लव जिहाद

लव जिहाद की कल्पना इतनी प्राचीन है कि इसे बयां करने की जरूरत ही नहीं है. महिलाओं पर नियंत्रण और हिंसा के मामले दर्शाते हैं कि किस तरह भारतीय पुरुष महिलाओं को देखता है. पुरुषों द्वारा महिलाओं को केवल लालच देने का काम किया जाता है. ऐसे में पुरुष एक चरवाहा और महिला भेड़ जैसी प्रतीत होती है.

ब्रिटनी स्पीयर्स

पॉप स्टार ब्रिटनी स्पीयर्स की त्रासदी भरी दास्तां भी हमें यह दिखाती है महिलाओं के साथ भेड़ जैसा व्यवहार किया जाता है. उनके मामले में चरवाहा और कोई नहीं बल्कि उनके पिता हैं. हाल ही में 23 जून को ब्रिटनी स्पीयर्स ने अपनी गार्जियनशिप यानी संरक्षण को लेकर कोर्ट के सामने चौंकाने वाला बयान दिया है. जिसमें उन्होंने कहा है कि वह करीब 13 साल से अपने पिता जेम्स पी स्पीयर्स के संरक्षण में हैं. वही उनके करियर और जीवन को लेकर फैसले करते हैं. ब्रिटनी ने यह भी कहा है कि बीते 13 साल से उन्हें जबरदस्ती ड्रग्स दी गई. उनकी इच्छा के विरुद्ध काम करने को मजबूर किया गया. इसके साथ ही उन्हें बर्थ कंट्रोल डिवाइस को अपने शरीर से हटाने से भी रोका गया. संरक्षण के दौरान उन्हें बताया गया कि वे बच्चा पैदा नहीं कर सकती और न शादी कर सकती हैं. इन सबके बाद ब्रिटनी ने लॉस एंजिल्स की अदालत से कहा कि उनके इस अपमानजनक संरक्षण को खत्म किया जाए.

एक चादर मैली सी

अगर बात करें फिल्म “एक चादर मैली सी” की तो यह रजिन्दर सिंह बेदी के उर्दू उपन्यास जो इसी नाम से लिखा गया था, पर आधारित थी. यह फिल्म वास्तिक है इसलिए क्रूर लगती है, लेकिन यह “तेरे नाम” या “कबीर सिंह” जैसी नहीं है जिसमें गाली-गलौच को पैशन के तौर पर बेचा जा रहा है.

इस फिल्म/उपन्यास में “चादर-अंदाजी” की प्रथा को दिखाया गया है. जिसमें एक विधवा की शादी उसके मृत पति के भाई से की जाती है, वो महिला के सिर पर चादर डालता है. इस तरह वह कहता है कि मैं इस औरत को स्वीकार कर रहा हूं. इसका अंग्रेजी अनुवाद होगा ‘I Take This Woman’, इसी टाइटल से खुशवंत सिंह ने रजिन्दर सिंह बेदी की रचना का अंग्रेजी में अनुवाद किया है. इस पूरी कहानी का मूल यही रहा कि घर की बकरी या भेड़ घर के आंगन में ही रही और यह परिवार की “जागीर” बन गई.

अब बात करते हैं पंजाब के मामले की...

“एक चादर मैली सी” कृति के मूल भाव जैसी ही भयावह भावना पंजाब सरकार के उस नियम में दिखती है, जिसके तहत वीरता पुरस्कार प्राप्त सैनिकों की विधवाओं को मासिक भत्ता दिया जाता है. पंजाब सरकार का यह नियम उन सैन्य विधवा महिलाओं को भत्ते से दूर करता है, जिनका पुनर्विवाह मृत पति के भाई के अलावा किसी और से हुआ है. हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट से यह नियम सुर्खियों में आया है. जिसमें अंजिनी दादा के मामले को दिखाया गया है.

अंजिनी दादा मेजर रमन दादा की विधवा हैं. मई 1999 में असम में मेजर दादा की टुकड़ी की आतंकवादियों से जबरदस्त मुठभेड़ हो गई थी, इस लड़ाई में रमन दादा ने अपनी जान गंवा दी थी. इस लड़ाई में उनकी टुकड़ी ने 7 आतंकी मार गिराए. जबकि खुद मेजर दादा ने 3 को ढेर किया था. उनकी इस वीरता को देखते हुए उन्हें 15 अगस्त 1999 में मरणोपरांत कीर्ति चक्र से सम्मानित किया था.

इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक अंजिनी इस समय देहरादून में रहती हैं, उन्हें पंजाब सरकार तय मासिक भत्ता मिलना शुरू हुआ, जो अब मिले तो 13,860 रुपये होगा. लेकिन जब 2005 में अंजिनी ने दूसरी शादी कर ली थी तब ये भत्ता रोक दिया गया. नियम कहते हैं कि गैलेंट्री अवॉर्ड विजेता के आश्रित को पेंशन से अलग एक मासिक भत्ता मिलता है. लेकिन अगर किसी सैनिक की विधवा उस जवान के भाई के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से शादी कर लेती है तो वह इस भत्ते की हकदार नहीं रह जाएगी.

रिपोर्ट के अनुसार जब अंजिनी का भत्ता सरकार द्वारा रोक दिया गया था तब उन्होंने इसकी कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई थी, लेकिन 2011 में अंजिनी का तलाक हो गया और अब उन पर अपनी खुद के साथ-साथ दो संतानों के गुजर-बसर का जिम्मा भी आ गया है. वे आर्थिक रूप से संघर्ष कर रही हैं. उन पर एक बेटी और एक बेटे की जिम्मेदारी है. रिपोर्ट में उन्होंने कहा है कि उनके द्वारा भत्ते को फिर से शुरू करने के लिए कई बार गुहार लगाई गई, लेकिन वित्त विभाग ने उनकी मांग को ठुकरा दिया.

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इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के कुछ घंटे बाद ही पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के मीडिया सलाहकार ने ट्वीट में कहा है कि सीएम खुद एक फौजी रह चुके हैं, उन्होंने इस मामले को संज्ञान में ले लिया है. उनके ट्वीट में यह भी कहा गया है कि जरूरत पड़ी तो सरकार इस नियम बदल सकती है.

लंबे समय बाद यह घोषणा पत्रकार की मेहनत और उसके द्वारा पैदा की गई सहानुभूति की वजह से हुई है. वहीं जिस सिस्टम को बदलते समय के साथ नियमों की समीक्षा करते हुए उसे अपडेट करना चाहिए, उसमें लगन और सहानुभूति का अभाव दिखता है.

यह नियम पंजाब की नियम पुस्तिका में तब भी बना रहा जब अन्य जगहों पर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद इसे हटा लिया गया था.

सिर्फ उदासीनता ही नहीं

उदाहरण के तौर पर अगर हम सरकार के उस फैसले को देखते हैं जब केंद्र ने ऐसा ही एक नियम, जिसमें संघर्ष के दौरान सैनिकों की मौत होने पर विधवाओं को पेंशन देने का प्रावधान था, को बदला था. तब भी उस नियम को बदलने में केंद्र की ओर से काफी देरी की गई थी.

अपनी रेफरेंस बुक “मिलिट्री पेंशन : कमेंट्री, केस लॉ एंड प्रोविजन्स' में चंडीगढ़ के मेजर (सेवानिवृत्त) नवदीप सिंह, एक सम्मानित अधिकारी और इस विषय पर एक वकील / शोधकर्ता, ने इसका जिक्र किया है. उनके अनुसार विधवाओं को मृतक के भाई से पुनर्विवाह नहीं करने पर पेंशन के लिए अयोग्य घोषित किए जाने वाला नियम 2001 में बदल दिया गया है. नए नियम के मुताबिक पुनर्विवाह करने वाली विधवाओं को पेंशन मिलेगी, चाहे वे किसी से भी शादी करें. शुरुआत में कहा गया कि नया नियम 1996 के बाद के मामलों पर लागू होगा. सरकार को 1996 के पहले के मामले को कवर करने में चार साल और लग गए.

वीरता पुरस्कार विजेताओं की विधवाओं को मिलने वाले वार्षिक भुगतान को लेकर भी केंद्र सरकार ने 2017 में इस नियम को हटा दिया था. जिसे मीडिया में बड़े स्तर पर दिखाया गया था. लेकिन राज्य स्तरीय भुगतान के लिए राज्यों के अपने नियम हैं.

नवदीप कहते है कि एक समाचार रिपोर्ट आने के बाद पंजाब सरकार द्वारा सैन्य विधवाओं को भुगतान के नियमों के मापदंड को बदलने का वादा किया गया है. इसे हटा देना चाहिए, लेकिन यह सिस्टम के काम करने का आदर्श तरीका नहीं दर्शाता है.

अक्सर ऐसे मामलों और नियमों को लाल फीताशाही, सरकारी उदासीनता, गलतियों या निरीक्षण के तौर पर खारिज कर दिया जाता है. फाइलों में कोई मूवमेंट नहीं होती है. प्रक्रिया एक सजा की तरह प्रतीत होने लगती है. फिर किसी ट्विटर फ्रेंडली मंत्री की कार्रवाई या फेसबुक पर वायरल पोस्ट को देखकर एक्शन लेने वाले अफसर को जनता हीरो बना देती है, जबकि इन लोगों ने को भूल सुधार खुद ही करनी चाहिए थी. इन गलतियों और इन हीरो से पता चलता है कि सिस्टम काम कर सकता है. दिक्कत है ये कि सिस्टम ने सिर्फ बेदर्द है, बल्कि बेपरवाह भी है.

लड़ाई कोई इलाज नहीं

हम इस सूरत को बेदर्द और बेपरवाह बताते हैं तो दरअसल हम ये मानने से इंकार करते हैं कि ये हमारे समाज की कुरूप सच्चाई का आईना है. सड़क के कोनों से कार्यालयों तक, राजनीतिक जगहों से लेकर सामाजिक समारोहों तक, उपन्यास से लेकर कानून की किताबों तक, हम लक्षणों का इलाज कर देते हैं, लेकिन वायरस को मार नहीं मारते. पितृसत्ता वाली सोच सभी नियमों, धारणाओं और मानदंडों को प्रभावित करती है.

"एक चादर मैली सी" में राणो के किरदार की नियती के पीछे यही है, जहां उसको अपने से काफी कम उम्र के देवर से शादी करनी होती है. वहीं आधुनिक दौर की बात करें तो यही स्थिति ब्रिटनी स्पीयर्स के सामने भी है, जहां वह अभी भी बंधी हुई हैं. यही लव जिहाद जैसी कपोल कल्पना को रोकने के लिए कानून बनाने को मजबूर करता है. और यही समाज को ऐसे नियम बनाने की अनुमति देता है, जो महिलाओं को अपनी जागीर या सम्पत्ति के तौर पर देखता है.

चादर कुछ हद तक मैली नहीं है, बल्कि चादर खुद एक धब्बा है.

आरिश छाबड़ा (लेखक, बेनेट यूनिवर्सिटी में जर्नलिज्म के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इनका मेल एड्रेस aarishc@gmail.com और इनसे ट्विटर पर @aarishc हैंडल के जरिए जुड़ा जा सकता है. इस लेख में प्रस्तुत किए विचार लेखक के अपने हैं, क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है न ही इसकी जिम्मेदारी लेता है.)

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Published: 28 Jun 2021,06:32 PM IST

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